Sunday, December 3, 2023

एनिमल

 


'एनिमल' के बहाने 

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सिनेमा जनसंचार का एक बड़ा ही प्रभावी माध्यम है। 'कबीर सिंह' से एल्फा मेल जिसे कुछ अर्थों में (टोक्सिक मस्कुलेनिटी भी कहा जा सकता है) का एक नेरेटिव शुरू हुआ है उसी श्रेणी में 'एनिमल' को भी रखा जा सकता है। सिनेमा लोगो को शिक्षित करता है इस कथन में आंशिक सत्यता है इसके बरक्स यह भी समझा जा सकता है सिनेमा बनाने वाले समाज की स्टडी करते हैं और समाज की नस को पकड़कर फिर सिनेमा बनाते हैं। कल इस फिल्म को देखते हुए जब मैंने हिंसा के दृश्यों में क्राउड को चरम उत्साह में देखा तो मैंने खुद को अंदर अल्पसंख्यक पाया। इसे इस तरह भी समझा जा सकता है कि बहुसंख्यक व्यक्ति हिंसा को 'एंजॉय' कर रहे थे। समाज के मनोविज्ञान के लिहाज से यह बात सहज नहीं कही जा सकती है।

 

ऐसा नहीं है कि फिल्मों में हिंसा पहले नहीं दिखायी जाती थी पहले भी मारपीट और खून-खराबा होता था मगर 'एनिमल' में दिखायी गई हिंसा एक अलग स्तर की है। एल्फा मेल के लिए हिंसक होना एक अनिवार्य गुण जैसा बताया गया। फिल्म में पोएट्री को कमजोर पुरुषों की ईजाद कहा गया है। इस तरह से फिल्म एक विभाजन रेखा खींचती है जिसमें एक तरफ नायकत्व  और हिंसा से भरा पुरुष वर्ग है जो नेतृत्व करता है हस्तक्षेप को जो अपना अधिकार मानता है और दूसरी तरफ कमजोर पुरुष है जो कविताएं लिखते हैं और जिनका चुनाव स्त्री भी नहीं करती है। फिल्म के मुताबिक स्त्रियों की पहली पसंद एल्फा मेल होता है क्योंकि वह सुरक्षा की गारंटी देता है। 


'एनिमल' का कथानक पिता-पुत्र के खराब रिश्तों के इर्द-गिर्द बुना गया है मगर मनोवैज्ञानिक दृष्टि से यदि देखा जाए तो पिता के प्यार से वंचित पुत्र अपने पिता को 'ऑबसेस्ड' हो जाए इसकी संभावनाएं न्यून होती है मगर फिल्म में ऐसा होना दिखाया गया है इसकी वजह फिल्म के निर्माता ही बता सकते हैं। मनोविज्ञान के अनुसार किसी भी रिश्ते में अपवंचना का शिकार होने पर दूरियाँ बढ़ती हैं। निजी तौर पर मुझे 'एनिमल' का विजय मूलत: एक लापरवाह पेरेंटिंग के कारण लगभग साइकोपैथ बना लड़का नजर आया।  जिससे सिंपैथी रखी जा सकती है। 


फिल्म एकरेखीय है इसलिए फिल्म में सस्पेंस जैसा एलीमेंट नदारद है। जैसे फिल्म का एक मात्र उद्देश्य प्रेम के प्रदर्शन के लिए हिंसा को दिखाना है। फिल्म के प्रमोशन के दौरान बॉबी देओल को जितनी फुटेज दी गई है फिल्म में उनका रोल उतना बड़ा नहीं है बल्कि बहुत छोटा है मगर फिर भी वे अच्छे लगे हैं। उनके हिस्से कोई डायलॉग नहीं आया है उनका काम केवल बूचर का है। 


पशुता का एक अर्थ विवेकहीनता भी होता है उस दृष्टि से फिल्म में विवेकहीनता नायक के किरदार में दिखती भी है जो अपनी पिता की उपेक्षा से आहत होकर एक ऐसे हिंसक व्यक्ति में बदल जाता है जिसके लिए कुछ भी त्याज्य नहीं है। एक बात और। किसी भी जागरूक दर्शक को फिल्म में स्टेट/सिस्टम को अनुपस्थित देखकर निराशा होती है निर्बाध हिंसा करता एक व्यक्ति है और पुलिस/सिस्टम नाम की कोई चीज उस पूरे कथानक में नदारद है। देश-विदेश मय हथियार आना-जाना फिल्म में ऐसा है जैसे बगल के कस्बे में आदमी जाता है कोई वीजा सिस्टम का जैसे अस्तित्व ही न हो। फिल्म में इतना विवेकहीन होना मेरे जैसे दर्शक के लिए थोड़ा मुश्किल है। 


फिल्म में स्त्री किरदार 'कबीर सिंह' के बरक्स मजबूत है वह उतनी कमजोर नहीं है। यह एक अच्छी बात है।  फिल्म का नायक भले ही बाहर की दुनिया के लिए हिंसक है मगर अपनी पत्नि को वह सुनता है प्रेम के मसले में वह थोड़ा कोमल पड़ता दिखता है हालांकि उसका अपने किरदार को लेकर कनविक्सन इतना मजबूत है कि उससे वह टस से मस फिर भी नहीं होता है। 


साराश: एनिमल देखकर अपने अंदर बैठे एक एनिमल से जरूर मुलाक़ात होती है मगर वह मुलाक़ात उस एनिमल को मारती नहीं है बल्कि उसे खुराक देती है। मेरे जैसे नॉन एल्फा मेल की तो वह मुलाक़ात भी नहीं होती है क्योंकि अपने अंदर एनिमल को पालने की ताकत मेरे जैसे कमजोर पुरुष के पास नहीं है। मजबूत दिल वालों को फिल्म जरूर पसंद आएगी और आ रही है यहाँ पर स्त्री-पुरुष का भेद खत्म हो जाता है क्योंकि सिनेमा हाल में रक्तरंजना पर दोनों स्त्री-पुरुष दोनों किस्म के दर्शक उत्साहित और उल्लासित नजर आते हैं। उन्हें देखकर एकबारगी एल्फा मेल वाली कान्सैप्ट पर यकीन आने लगा है मगर फिर मेरे जैसा दर्शक फिल्म एकाध रोमांटिक सीन या गाने में अपने हिस्से की कविता महसूस कर अपने कमजोरियों के साथ खुश होकर फिल्म देखकर बाहर निकल आता है।


©डॉ. अजित


Friday, December 21, 2018

जीरो: गणित मन का


जीरो: गणित मन का
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जीरो का आविष्कार भारत में हुआ था और यह तथ्य हम हमेशा हम भारतीयों के लिए गर्व का विज्ञापन कराता रहता है. जीरो वैसे तो एक अंक है जो किसी अंक के आगे या पीछे लगने पर उसका मूल्य बदल देता है. मगर आप कल्पना कीजिए अगर किसी के जीवन के साथ जीरो लग जाए तो उसके  जीवन का अर्थ और ध्वनि दोनों बदल जातें है.
शाहरुख खान की फिल्म ‘जीरो’ हमारे मन के गणित को अस्त-व्यस्त करने में पर्याप्त समर्थ है. फिल्म देखतें हुए जीरो को आगे या पीछे लगाने की दुविधा कोई भी संवेदनशील दर्शक महसूस कर सकता है. फिल्म का नायक बउवा सिंह एक बौना इंसान है  और फिल्म की नायिका आफिया एक डिसेबल्ड पर्सन है. बउवा सिंह समाज की ‘परसेप्शन डिसेबिलिटी’ का शिकार है तो आफिया सफल वैज्ञानिक होने के बावजूद उसकी दुनिया व्हील चेयर तक सीमित है.
 बउवा सिंह की लड़ाई दोतरफा है एक लड़ाई वो खुद से लड़ रहा होता है और एक लड़ाई उसकी बाहर चल रही होती है.आफिया इस मामलें में थोड़ी सी सम्पन्न है उसके अन्दर ‘सेल्फ रिजेक्शन’ नही है क्योंकि वह एक कामयाब अन्तरिक्ष वैज्ञानिक है उसकी सीमाएं शारीरिक अधिक है मानसिक रूप से वह मजबूत है. आफिया का किरदार उस सामाजिक मान्यता की पुष्टि करता है जिसके अनुसार यदि कोई डिसेबल्ड व्यक्ति सफल हो जाए तो वह समाज में अपने स्तर पर सर्वाईव कर जाता है.
जीरो फिल्म मूलत: बउवा सिंह के व्यक्तित्व के जटिलता को समझने का एक  अवसर देती है मगर फिल्म के दौरान उसके व्यक्तित्व में प्राय: दर्शक हास्य तलाश रहे होते है यही बात सोसाइटी की पॉपुलर थिंकिंग को बताने में सक्षम है.
यह बात निर्विवाद रूप से सच है कि समाज हमेशा ताकतवर को आदर्श के रूप में देखता है ऐसे में जो किसी किस्म की शारीरिक हीनता या डिसेबिलिटी से पीड़ित होते है वो हमेशा समाज में हाशिए की जिंदगी जीते है. जीरो फिल्म का नायक बउवा सिंह केवल आर्थिक रूप से सम्पन्न है बाकि बौना होने के कारण वो हर किस्म का सोशल और फैमली रिजेक्शन झेलता है.
मनोवैज्ञानिक रूप से लम्बे समय से सोशल और पर्सनल रिजेक्शन झेलने के कारण आप खुद ही खुद को भी रिजेक्ट करने लगतें है इसका अलावा लम्बे समय से जब आप रिजेक्शन झेलतें हैं तो हमेशा उस रिजेक्शन को खारिज करके उससे बाहर आने की कोशिश करतें है. और ऐसी कोशिशें एक बड़े लक्ष्य या लगभग असम्भाव्य सपने का पीछा करने की होती है कि सामाजिक रूप से रिजेक्शन झेल रहा व्यक्ति खुद कि महत्ता सिद्ध कर सके.
जीरो का बउवा सिंह भी अपनी ऐसी ही द्वंदात्मक महत्वकांक्षा का पीछा करता हुआ नजर आता है. बउवा सिंह ने बौने के किरदार निभाया है  जो खुद को कोयल कहता है. कोयल कहने का आशय है  उसने यह मान लिया होता है कि वह ‘गुड फॉर नथिंग’ है. फ़िल्में के पहले हाफ में बउवा सिंह खुद से भाग रहा होता है इसलिए दर्शकों को उसमें हास्य और मनोरंजन नजर आता है मगर इंटरवल के बाद बउवा सिंह की सारी कोशिशें खुद को स्वीकार करने की होती है.
बतौर मनुष्य यह लड़ाई बेहद जटिल होती है जब आप खुद को समाज की दृष्टि में एक विदूषक जैसा बना लेते है मगर अंतरमन से यह चाहतें है कि कोई तो हो जो आपको गंभीरता से लें. बउवा सिंह का किरदार फिल्म में बहुत अच्छा गढ़ा गया है  उसे उसकी स्वाभाविकता में दिखाया गया है.
एक लोकप्रिय कहावत है कि दो असफल लोग मिलकर कभी एक सफल काम नही कर सकते हैं. बउवा सिंह के जीवन में जब पहली दफा प्यार घटित होता है वो आफिया के द्वारा घटित होता है बउवा सिंह का अवचेतन यह बात स्वीकार ही नही कर पाता है कि कोई उससे प्यार भी कर सकता है जबकि आफिया का प्यार एकदम सच्चा था. दोनों एक दूसरे के जीवन की रिक्तताएं भरने की कोशिश कर रहें थे मगर बउवा सिंह का मानसिक धरातल सबसे बड़ी बाधा बनता है.
बहुधा मनुष्य खुद के सच से भागकर खुद को एक अज्ञात के आकर्षण में बाँधने की कोशिश करता है क्योंकि उसे लगता है कि जो अप्राप्य है उसको हासिल करके वो अपना खोया हुआ आत्म गौरव प्राप्त कर सकता है. ऐसी ही सारी कोशिशें बउवा सिंह की फिल्म जीरो में नजर आती हैं.
बहुसंख्यक सिनेप्रेमियों को जीरो फिल्म का इंटरवल से बाद का पार्ट खराब लगा मगर मुझे निजी तौर पर जो जरूरी लगा है. हाँ उसमें कुछ अतिशय नाटकीयता जरुर है मगर मैं फिल्म के पहले हाफ में बउवा सिंह के किरदार से इस कदर जुड़ गया था कि मुझे नाटकीयता में भी विरेचन के साधन नजर आने लगे थे.
बउवा सिंह और आरफा को मिलाने के लिए दिल से दुआएं निकलती है जबकि यह जानते हुए कि बउवा सिंह पलायनवादी रहा है. मनोविज्ञान की दृष्टि से पलायन कभी भी किसी मनुष्य का ऐच्छिक चुनाव नही होता है उसके पीछे वो तमाम वजहें होती है जो बतौर मनुष्य आपके अस्तित्त्व को लगातार खारिज करती हैं.
दैहिक हीनता और शारीरिक अक्षमता झेलते मनुष्य का  मनोविज्ञान समझने के लिए जीरो एक जरुरी फिल्म हैं. जीरो में फिल्म में औसत चेतना के दर्शकों के लिए हास्य है, बुद्धिवादी दर्शकों के लिए नाटकीयता से चिढ़ है और अति संवेदनशील दर्शकों के लिए मानव व्यवहार की जटिलताओं को समझने का एक अवसर है.
अंत में अभिनय की बात करूं तो मेरा ऑब्जरवेशन यही है कि बउवा सिंह  के किरदार में शाहरुख खान ने  और आफिया के किरदार में अनुष्का शर्मा ने बहुत शानदार काम किया है.
जीरो को देखतें समय आप इस अंक के मनोविज्ञान को महसूस कर पातें हैं जोकि आपके खुद के मन के किसी कोने में अपने स्थान बदलनें के लिए उत्सुक नजर आता है मेरे ख्याल से यही बात फिल्म के निर्देशक और एक्टर्स की सबसे बड़ी सफलता है. जीरो फिल्म में प्यार,दोस्ती. पलायन जैसे भावनात्मक तत्व मौजूद है.
फिल्म देखतें हुए हमें यह एहसास होता है कि हमारे जीवन में भी ऐसे शख्स मौजूद हैं जिनसे हम प्यार और नफरत एक साथ कर रहें होतें हैं.
© डॉ.अजित    

Saturday, October 6, 2018

पटाखा: एक मन ओ’ वैज्ञानिक पुनर्पाठ


पटाखा: एक मन ओ’ वैज्ञानिक पुनर्पाठ 
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भारतीय काव्य शास्त्र में ध्वनि और औचित्य दो बड़े सिद्धांत है. पटाखा शब्द लोक प्रहसन की दृष्टि से जुमला भले ही हो, मगर ध्वनि सिद्धांत की दृष्टि से इसके व्यापक अर्थ हैं. यह विस्फोट का प्रतीक है और विस्फोट जड़ता को तोड़ने के लिए एक अनिवार्य उपक्रम है. इसलिए मैं यहाँ पटाखा को मन की अमूर्त जड़ताओं को तोड़ने के एक साधन के तौर पर देख रहा हूँ. कला के विभिन्न माध्यमों का एक औचित्य होता है बिना औचित्य के सृजन अकारथ होता है ऐसा आचार्यों ने माना है. सिनेमा को कला का एक प्रभावशाली माध्यम मानते हुए इसके व्यापक औचित्य को समझा जा सकता है. मनोविज्ञान और दर्शन कला के माध्यमों को विरेचन का बड़ा साधन मानते है. कला के विभिन्न माध्यम मानवीय संवेदना के अमूर्त तत्त्वों का आम जन के साथ तादात्म्य स्थापित करने के ही साधन है इसलिए हम दृश्य-श्रृव्य माध्यम से जुड़कर भावुक होकर रोने लगते है या हंसने लगते है.
विशाल भारद्वाज की अधिकाँश फ़िल्में साहित्य का एक प्रभावशाली सिनेमेटिक क्रिएशन करने में समर्थ सिद्ध हुई है इसका कारण है वो खुद साहित्य के सजग पाठक है और उनके पास एक व्यापक सिनेमाई दृष्टि है.
वैसे तो सिनेमा देखने वाला अपने जीवन अनुभवों के साथ फिल्म को जोड़कर फिल्म का अर्थ विकसित करता है और इसी में वह मनोरंजन भी तलाशता है. पटाखा फिल्म के कई पाठ हो सकते है मगर चूंकि मैं मनोविज्ञान का विद्यार्थी रहा हूँ इसलिए मैं इस फिल्म एक मनोविश्लेष्णात्मक पाठ करने की एक छोटी सी कोशिश करता हूँ.
पटाखा फिल्म राजस्थान के कहानीकार  चरण सिंह पथिक की कहानी ‘दो बहनें’ पर आधारित है. इस कहानी को जब विशाल भारद्वाज अपनी सिनेमेटिक दृष्टि से बुनते है तो इसके आयाम बहुफलकीय हो जाते है. फिल्म के प्रमुख पात्रों की मनोवैज्ञानिक पड़ताल करने पर साफ़ पता चलता है मानव व्यवहार के निर्धारक तत्वों में परिवेश का एक महत्त्वपूर्ण योगदान होता है और इसी के आधार पर किसी का ‘सेल्फ’ विकसित होता है.
फिल्म की दो नायिका गेंदा देवी और चम्पा ( बड़की और छुटकी) आपस में इस कद्र लडती है कि उनकी लड़ाई को भारत-पाकिस्तान की संज्ञा दी गई है. मतलब एक ऐसी लड़ाई जिसका कोई अंत न हो. विशाल की इस स्थापना में भी एक गहरा व्यंग्य छुपा हुआ है. वैसे भी अगर देखा जाए तो अधिकाँश लड़ाईयां ईगो और वर्चस्व की ही लड़ाईयां होती है वो अलग बात है सबके भिन्न राजनीतिक पाठ हो सकते है.
बडकी और छुटकी दो बहनें है जिनकी मां नही है और उनको उनके ‘बापू’ बड़ी लाड-प्यार से पाल रहे हैं. दोनों आपस में खूब लड़ती है. मनोवैज्ञानिक दृष्टि से देखा जाए दोनों के अंदर का मूल आक्रोश अवचेतन के स्तर पर सिंगल पेरेंट फैमली में रहने की परिवेशीय जटिलता से उपजा हुआ है. गाँव-देहात में आज भी सिंगल पेरेंटिंग के रेयर ही उदाहरण मिलेंगे. इसके अलावा दोनों के अंदर असुरक्षाबोध की बड़ी गहरी ग्रंथि है इसलिए दोनों एक दुसरे से गहरी ईर्ष्या रखती है. सामान्यत: भाई-बहन, भाई-भाई, बहन-बहन के मध्य एक स्वाभाविक स्तर की ईर्ष्या होती है मगर यदि यह सामान्य स्तर की है तो फिर यह एक मोटिवेशनल एलिमेंट बन जाती है मगर इस फिल्म दोनों बहनों के मध्य सामान्य से कई गुना बड़े स्तर की ईर्ष्या है.मेरी दृष्टि में जिसका एक बड़ा कारण देहात का उनका पेरेंटिंग पैटर्न है. गाँव में ऐसे उदाहरण साफ़ तौर पर देख सकतें है कि भावनात्मक अपवंचन और हीनता-असुरक्षाबोध के चलते सिंगल पेरेंट के बच्चे क्या तो अतिरिक्त रूप से भावुक होकर समय से पहले परिपक्व हो जाते है या फिर स्वयं के प्रति लापरवाही का बोध विकसित करके ‘कंडक्ट डिसऑर्डर ‘ के शिकार हो जाते है जिन्हें समाज बिगडैल बच्चें कहता है.
बड़की और छुटकी का बापू दोनों से भरपूर प्यार करता है मगर उनके जीवन में जिन शीलगुणों (कोमलता,वात्सल्य) आदि का परिचय माँ के कारण होता है वह बापू नही कर पाता है. इसके अलावा आम दर्शक फिल्म में दोनों बहनों के मध्य ईर्ष्या और उससे उपजा युद्ध देखता है मगर यदि मनोवैज्ञानिक दृष्टि से देखा जाए तो दोनों बहनों के मध्य एक अमूर्त और गहरा प्रेम भी है. जब मनुष्य अपने अंदर के प्रेम को सही आकार देने में समर्थ नही हो पाता है या उसे सही  समय पर अभिव्यक्त या पहचान नही कर पाता है तब वो बिना किसी आकार नेपथ्य में चला जाता है. दोनों बहनों के मध्य जो ईर्ष्या दिखाई देती है वो मूलत: उन दोनों बहनों के जीवन में अपने-अपने प्रेम से अजनबी रहने की एक मुखर बाह्य अभिव्यक्ति होती है. फिल्म में दोनों बहनों के सपनें भी एकदिम भिन्न है मगर उन सपनों के माध्यम से भी वे एक दुसरे से दूर ही भाग रही होती है.
पटाखा फिल्म के जरिए हम यह देख पाते है कि जीवन में महत्वकांक्षाओं या सपनों के पूरे होने के बाद उस स्थिति को मेंटेन करने के लिए हमें अपने कड़वे अतीत को छोड़ना होता है अन्यथा हम उसे सेलिब्रेट करना भूल जाते है फिल्म में यही बात बड़की और छुटकी के साथ घटित होती है. दोनों के मध्य की ईर्ष्या एक समय के बाद पैथोलोजिकल बन जाती है और जीवन की गति को अवरुद्ध कर देती है.
इस फिल्म के जरिए हम यह महसूस कर सकतें है कि सम्बन्धो में शेयरिंग या अभिव्यक्ति का कितना गहरा मनोवैज्ञानिक अर्थ होता है यदि हम अपने इमोशन को सही समय पर शेयर कर देते है तो हमारे मध्य के इमोशनल बांड को और अधिक मजबूत कर देते है. मन में बसे अमूर्त प्यार को जीवन में शब्द देने की बड़ी सख्त जरूरत होती है अन्यथा एक समय के बाद वो प्यार ‘प्रति प्यार’ की उपेक्षा से आहत होकर गलतफहमियों का एक बड़ा बड़ा पहाड़ खड़ा कर देता है और ईर्ष्या जैसे नकारात्मक संवेगों के लिए  मन में एक गहरी घाटी बन जाती है.
अब बात फिल्म के एक और रोचक पात्र डिप्पर की-
विशाल भारद्वाज ने इस फिल्म में डिप्पर के किरदार को बेहद महीनता से बुना है. मेरी नजर में डिप्पर के किरदार की दो व्याखाएं हो सकती है एक यह कि सामान्य दर्शक ने उसको दोस्त, विदूषक या दोनों बहनों के मध्य लड़ाई करा कर मजा लेने वाले व्यक्ति के रूप में देखा दूसरी मैं डिप्पर के किरदार को सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक दृष्टि से देखने की कोशिश करता हूँ तो मुझे डिप्पर मानवीय स्वभाव का प्रतिनिधि किरदार लगने लगता है. डिप्पर मूलत: मन की विद्रोही, वर्जनामुक्त और परपीड़ा में सुख पाने वाले स्वरूप का मानवीयकरण करता है. डिप्पर लिंग निरपेक्ष है इसलिए मैंने उसे मन का मानवीयकरण कहा. डिप्पर दोस्त भी और हीलिंग प्रोसेस का एक बाह्य प्रतीक है. डिप्पर एक आशा है जिसके पास हर मुश्किल वक्त का एक समाधान है. डिप्पर मनुष्य मन की स्थायी शंका का भी प्रतीक है जो हमारे विश्वास तन्त्र को क्षति-ग्रस्त करती रहती है.
कुल मिलाकर डिप्पर  का किरदार बाहर लोक से भले ही मिलता हो मगर उसके गहरे सूत्र मन के अंदर छिपे हुए है वो हर मुश्किल वक्त में ऑटो हीलिंग को प्रमोट करता है इसके अलावा वो ईर्ष्या को भी प्रमोट करता है क्योंकि उसे इसमें भी खुद की प्रासंगिकता लगती है. डिप्पर की दृष्टि एक रेखीय नही है वो अपने तमाम गलत कामों के बावजूद भी आपकी घृणा का पात्र नही बनता है बल्कि आप खुद को उसके साथ खड़ा महसूस करते है. गौर से देखिएगा ये सब आपके मन के ही गुण है.
सारांश यही है पटाखा एक विस्फोट है जो मन की जड़ता को तोड़ता है और हम अपने मन पर ज़मी मैल-मालिन्य की परत को टूटता हुआ देख पाते हैं. यह फिल्म हमारे मन के लिए एक छिपा हुआ सन्देश देती है कि किसी से कितना प्यार करते हो उसको सही समय पर जता दो अन्यथा एक समय के बाद आप न प्यार देख पातें है और न प्यार सुन पातें हैं.
ऐसी फ़िल्में बनती रहनी चाहिए ताकि हम अपने आसपास की दुनिया से गहरी और सच्ची मुलाकातें कर सकें.
और अन्त में फिल्म के मूल कहानीकार चरण सिंह पथिक जी को बधाई वो यह कहानी न लिखतें तो हम अपने मन की  प्रतिध्वनि ढंग से न सुन पातें.

© डॉ. अजित

Friday, November 17, 2017

शादी में जरुर आना

शादी में जरुर आना
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पहले मुझे लगा यह है बदरी की दुल्हनिया टाइप की मूवी होगी और शुरुवात में थोड़ी वैसी लगी भी मगर धीरे-धीरे शादी में जरुर आना फिल्म अपने उनवान पर चढ़ी और फिल्म का तेवर और कलेवर दोनों ही बदल गए. चूंकि मैं उत्तर प्रदेश का बाशिंदा हूँ इसलिए पीसीएस की पद प्रतिष्ठा को ठीक से समझता हूँ. फिल्म का कथानक इलाहाबाद को केंद्र में रखकर बुना गया है और यूपी में इलाहाबाद सिविल सर्विस की तैयारी करने वालों का मदीना रहा है.
शादी में जरुर आना मध्यमवर्गीय चेतना के जटिल बुनावट को सिनेमेटिक फॉर्म में दर्शको के समक्ष रखने की एक ईमानदार कोशिश करती है. सपनें,सिविल सर्विस, दहेज़, लिंग भेद, नैतिकता,प्रतिशोध और शो ऑफ़ आदि जैसे तत्वों ने फिल्म की कहानी के कहन को आसान और प्रभावी बनाया है.
सत्येन्द्र ऊर्फ सत्तू और आरती शुक्ला के प्रेम को समझने के लिए आपको अपनी स्टूडेंट लाइफ में बार-बार झांकना पड़ता है और फिल्म आपको अतीत में ले जाती है जहां किसी के लिए खुद को सिद्ध करना था या किसी के लिए खुद सिद्ध होना था. प्रेम मे विश्वास एक अनिवार्य तत्व है मगर जब सामने एक अप्रत्याशित सपना आकर खड़ा हो जाए तो फिर आपका विवेक भी साथ छोड़ देता है उसके बाद चीज़ें अपनी दिशा खुद करने लगती है फिल्म में सपना ऐसे ही अचानक सामने आता है और फिल्म की शुरुवात से चल रही एक गुदगुदी को तनाव में बदल जाता है.
प्रेम में रिजेक्शन किसे अच्छा लगता है मगर मुझे इस फिल्म में नायक का रिजेक्शन नही लगा वह दरअसल हालात का रिजेक्शन था जो अप्रत्याशित ढंग से घटित होकर चला गया. सत्तू की सादगी और आरती का चुलबुलापन फिल्म के पूर्वाद्ध में बहुत हंसाता है मगर बाद में दोनों को देखकर लगने लगता है क्या ये वही लव बर्ड है?
शादी में जरुर आना एक साफ़ सुथरी एक रेखीय फिल्म है हाँ फिल्म कुछ अति भी है जैसे डीएम बने सत्येन्द्र मिश्र का छापे के दौरान खुद तोड़-फोड़ करना मुझे नही लगता कोई आई ए एस अधिकारी खुद इस तरह से करता होगा भले ही उसकी निजी खुन्नस क्यों न रही हो फिल्म की कहानी में एक यह झोल मुझे  जरुर लगा इसके अलवा मेरा इंतकाम देखोगी..गाना भी प्रेम में अवांछित हिंसा का प्रतिनिधत्व करता है मगर रोचक बात है इस गाने पर फिल्म में खूब सीटियाँ बजी इसका मतलब है भारतीय पुरुष दर्शक अब भी दिल में गुबार लेकर जीता है जो नही मिल सका उसे एक बार सबक जरुर सिखाना है ये अमूमन एक मनोवृत्ति है हालांकि मैं इसे अनुचित मानता है.
फिल्म की कहानी कमल पांडे ने बहुत बढ़िया और गठन के साथ लिखी है फिल्म देखतें हुए आप फिल्म से बंधे रहते है और फिल्म आपको एक पल के लिए भी बोर नही करती है फिल्म में गाने भी अच्छे है.
शादी में जरुर आना आपको प्रेम की एक रेखीय दुनिया के आंतरिक उथल-पुथल और रिश्तों के संघर्षो की दुनिया से रूबरू कराती है और मनुष्य के अंदर उपेक्षा और तिरस्कार से उपजे प्रतिशोध को देखने का अवसर देती है मगर फिल्म देखकर आप अंत में तय कर पाते है कि वास्तव में कोई गलत या सही नही होता है बस वक्त और हालत आदमी को मजबूर कर देते है.
शादी में जरुर आना एक निमंत्रण है या धमकी ये आपको फिल्म देखकर ही पता चलेगा मेरे ख्याल से सर्दी के इस मौसम में ऐसी शादी में एक बार जरुर जाना चाहिए इसी बहाने आपको अपनी कहानी को रिमाइंड करने का मौक़ा मिलेगा जो भले ही ऐसी न हो मगर उसके कुछ तार इससे जरुर मिलते जुलते होंगे बशर्ते आपने किसी से सच्चा प्रेम किया हो.

© डॉ. अजित 

Monday, November 13, 2017

करीब-करीब सिंगल

करीब-करीब सिंगल
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करीब-करीब को जोड़कर मैं तकरीबन शब्द बनाता हूँ. यह मेरी कोई मौलिक खोज नही है प्रचलन के लिहाज़ भाषा वैज्ञानिक इस पर बढ़िया प्रकाश डाल सकते है, मगर तकरीबन शब्द मुझे यहाँ अनुमान की आखिरी दहलीज़ पर छोड़ आता है जहां मैं मान लेने की स्थिति में खुद को पाता हूँ. मान लेना वैसे गणित के सवाल हल करने में मदद करता है, मगर जिंदगी का भी अपना एक गणित है और उस गणित में हमें बहुत कुछ वो मान लेना होता है जो असल में होता नही है या होता है तो हमें हासिल नही होता है या हासिल होकर भी हमारा नही होता है. मैं बातों को अधिक उलझाने की कोशिश नही करूंगा ये काम असल में जिंदगी का है. मैं तकरीबन सिंगल होने को इस फिल्म के जरिए समझने की एक ईमानदार कोशिश जरुर करूंगा शायद मैं फिल्म के उतना करीब पहुँच पाऊं जहां से सिंगल और मिंगल दुनिया का महीन भेद साफ-साफ़ दिखाई पड़ता है.
करीब-करीब सिंगल देखने के पीछे जाहिरी तौर पर इरफ़ान खान का ऑरा मुझे सिनेमा हाल तक ले गया था मगर फिल्म देखते हुए मैंने महसूस किया कि यह केवल इरफ़ान खान की फिल्म नही है बल्कि इस फिल्म एक करीब का सिरा इरफ़ान के हाथ में और दुसरे करीब का सिरा पार्वती थामे हुए है और इन दोनों के मध्य सिंगल होने और न होने का एक महाभाष्य टंगा हुआ है जिसका अलग-अलग पाठ हो सकता है.
योगी और जयश्री टीके मनुष्य के एकांत के दो गहरे प्रतीक है उनका जीवन एकरस से भरा दिखता जरुर है मगर असल में उनके आंतरिक जीवन में एक अमूर्त निर्वात भी पसरा हुआ है. यह फिल्म हमें यह बताती है कि स्त्री और पुरुष दोनों स्वतंत्र अस्तित्व होते हुए भी चेतना और संवेदना के स्तर पर एक दुसरे में किस कदर गुंथे हुए भी है.
सिंगल या अकेला होना आपका चुनाव हो सकता है मगर यह त्रासद बिलकुल नही होता है, यह त्रासद जब लगने लगता है जब समाज के मानको पर आपको जज किया जाने लगता है.
दरअसल मनोवैज्ञानिक तौर पर प्रत्येक मनुष्य की दो ज्ञात दुनिया होती है एक वह जो बाहर की दुनिया को दिखती है और एक वह जिसके बारें में केवल आप जानते है. आपकी नितांत ही निजी दुनिया में निजी दुःख,छूटे सपनें और अपने, छोटे-छोटे सुख दुबके रहते है. अंदर और बाहर की दुनिया के संघर्ष मनुष्य के सुख और दुःख का मानकीकरण करते है.
योगी शायर है और रूह की बेचैनी उसे नियामत के तौर पर हासिल है जयश्री हेल्थ सेक्टर की प्रोफेशनल है, विडो होने के कारण सिंगल है. देखा जाए तो दोनो एकदम विपरीत ध्रुव है मगर विज्ञान भी मानता है कि असंगतता के मध्य एक गहरा आकर्षण भी छिपा होता है रिश्तों का यह चुम्बकीय क्षेत्र फिल्म में उन्हें कभी नजदीक तो कभी दूर करता रहता है.
करीब-करीब सिंगल की सबसे बड़ी यूएसपी यह है कि फिल्म का बड़ा हिस्सा एक यात्रा में घटित होता है इसी कारण हम सिंगल और मिंगल दोनों की यात्रा के साक्षी बन पाते है. योगी का किरदार बहुत अच्छे ढंग से स्थापित किया गया है वो फक्कड़,फकीर,मनमौजी है दिल से जैसा महसूस करता है वैसा उसका बयान भी कर देता है. जयश्री के व्यक्तित्व पर सोशल कंडीशनिंग पर प्रभाव साफ़ तौर पर दिखते है. एक उम्र अकेले बिताने के बाद उसके अपने डर,असुरक्षाएं और सीमाएं है जो प्रेम के प्रवाह में कभी आड़े आती है तो कभी उसे सावधान भी करती है.
योगी और जयश्री दोनों का एक अतीत है मगर दोनों के अतीत का ट्रीटमेंट एकदम अलग है योगी के अतीत ने उसको मुक्त किया है जबकि जयश्री का अतीत उसके इर्द-गिर्द एक स्मृतियों का घेरा हमेशा तैयार रखता है. जयश्री की यात्रा खुद और खुद के अतीत से भागने से आरम्भ होकर अपने डर और संशयों की मुक्ति पर जाकर खत्म होती है और योगी की यात्रा जैसे अचानक से खत्म हो जाती है और ये अचानक से खत्म होना उसके जीवन का सबसे गहरा बोध बन जाता है.
करीब-करीब सिंगल देखकर हम यह जान पातें है कि प्रेम के लिए सहमत होना अनिवार्य नही होता है और प्रेम की शुरूवात गल्प से आरम्भ होकर जादुई यथार्थ पर खत्म हो जाए तो फिर हम कह सकते है कि एक सफ़र मुक्कमल हुआ.
यह फिल्म गुदगुदाती है और हमें समझाती भी है फिल्म देखते हुए आप फिल्म के दर्शक से अधिक सहयात्री अधिक होते है इसलिए इसके अलग अलग पड़ाव पर आपके अनुभव भी अलग होते है मसलन ऋषिकेश में आप सोच रहे होते है अब क्या होगा और सिक्किम में आपको पता नही होता है कि अब क्या होगा.
मनुष्य के निजी दुःख,डर,स्मृतियाँ और उनसे निर्मित आदतें मनुष्य की एक अलग दुनिया का सृजन करती है जहां की नीरवता में आप तभी दखल बरदाश्त करना पसंद करते है जब कोई ऐसा मिल जाए जिसे आप बिना किसी ज्ञात कारण के भी पसंद करने लगे हो. करीब-करीब सिंगल देखते वक्त अपने अपने आसपास ऐसे किरदारों की गिनती शुरू कर देते है जिनके शक्ल और अक्ल योगी और जयश्री से मिलती हो. यही फिल्म की सबसे बड़ी ख़ूबसूरती है.
इरफ़ान की आँखों और पार्वती की नाक के लिए करीब-करीब सिंगल जरुर देखी जानी चाहिए भले ही आप सिंगल है या मिंगल.

©डॉ.अजित


Monday, September 25, 2017

अंजलि पाटिल: खत

अंजलि पाटिल,
तुम्हें पहले चक्रव्यूह में देखा था और अब न्यूटन में देखा। नक्सलवाद से मुझे कोई सैद्धांतिक लगाव नही है और न ही मैं हिंसा का मार्ग उचित मानता हूँ।मगर तुम जब वंचितों की दुनिया का आंतरिक सच डायलॉग डिलीवरी के माध्यम से सिनेमा में रचती हो तो मेरा कवि हृदय नागरिक शास्त्र और लोक प्रशासन का विद्यार्थी बन वास्तव में इस जन और जंगल की समस्या को समझने के लिए आतुर हो जाता है।

मैं जानता हूँ तुम एक मॉडल हो मगर व्यवस्था से पीड़ित किरदार को निभाते वक्त तुम्हारी अभिनय क्षमता बहुत निखर कर सामने आती है। मैं तुम्हें किसी खास रोल में टाइप्ड नही कर रहा हूँ क्योंकि तुम्हारा काम है एक्टिंग करना फिर भी तुम्हारे जरिए एक ज्वलंत समस्या का बेहद वास्तविक चित्र बनता है।
न्यूटन फ़िल्म में तुम मलका नाम की बीएलओ बनी हो और तुम्हारी आँखों मे उम्मीद का जो आकाश दिखाई देता है उसके समक्ष यथार्थ की जमीन थोड़ी पड़ जाती है।

दरअसल, न जाने कब से मनुष्य की एक लड़ाई खुद से चल रही है और उसके टूल बहुत सी चीजें बनती है धर्म,अर्थ,राजनीति और सत्ता के केंद्र मिलकर मनुष्य को मनुष्यता के खिलाफ खड़ा करते है ये लड़ाई अभी और लंबी चलेगी मनुष्य की हताशा की अभी अतिरेक रूप से परीक्षा ली जानी बाकि है।

दंडकारण्य के जंगल मे तुम्हारे जरिए मैं मनुष्य की उस हताशा को पढ़ने की कोशिश करता हूँ जो आदिवासियों के चेहरों पर पुती है मैं पैरा मिलिट्री फोर्स के जवानों के चेहरों से भी गुजरता हूँ वे भी दरअसल सिस्टम का एक टूल भर बन गए है मनुष्य अपनी नस्ल से लड़ रहा है और क्यों लड़ रहा है इसका जवाब वे जरूर जानते है जिनके पास सवालों के जवाब देने की कोई बाध्यता नही है।

फिलहाल, तुम्हारी हंसी में कंकर सी पिसी उदासी को देखकर मैं एक अंतहीन इंतजार के कमरे में पसर गया हूँ जहां मुझे लगता है कि एकदिन सब ठीक हो जाएगा। हालांकि सब ठीक होना अक्सर ठीक होना नही होता है मगर मैं चाहता हूँ जल,नदी,जंगल, झरने,हवा आदि पर मनुष्य अपनी दावेदारी समाप्त कर दें और उन्हें अपने नैसर्गिक रूप से रहने दिया जाए। यदि मनुष्य किसी दूसरे मनुष्य का भला करना चाहता है तो उसके पीछे नीति की दासता शामिल न हो वो उनके उत्थान के नाम पर जड़ो से काटने का षडयंत्र न हो।

ये सब मेरे मन के सन्ताप है जो मैं तुम्हारे जरिए कह पा रहा हूँ न्यूटन फ़िल्म में तुम एक जगह कहती हो कि आप हमसे कुछ घण्टे की दूरी पर रहते है मगर हमारे बारें में कुछ नही जानते है। यह डायलॉग इस सदी का सच है हम घण्टे ही मिनटों की दूरी पर रहने के बावजूद किसी के बारे में कुछ नही जानते है।

दरअसल हम खुद को भी पूरी तरह नही जानना चाहते है क्योंकि फिर हमें अपने मनुष्य होने पर कुछ कुछ अंशो में शर्मिंदगी जरूर होने लगेगी।
खैर, मैं विषयांतर करके असंगत बातें करने के लिए जाना जाता हूँ इसलिए मैं ताप के प्रलाप की तरह बात तुम्हारी हंसी से शुरू करता हुआ मनुष्य की धूर्तताओं पर आ खड़ा होता हूँ।

अंजलि, हो सकता है भविष्य में हम तुम्हें और ग्लैमरस रोल में देखें मगर फिलहाल तुम्हारी कुछ छोटी-छोटी भूमिकाओं ने बतौर मनुष्य मेरी भूमिका में जरूर इजाफा किया है अब मैं अपने देह पर रेंगती चींटी के प्रति कृतज्ञता का कौशल सीख गया हूँ इसलिए इस बात के लिए मैं तुम्हें थैंक यू जरूर कहूँगा।
खूब आगे बढ़ो और अपनी सहजता से यूं ही हमे यह अहसास कराती रहो कि ये अभिनेत्री कोई करिश्माई किरदार नही है ये हमारे बीच की एक लड़की है जो हमें हमसे बेहतर जानती है।

तुम्हारा एक नूतन दर्शक
जो न्यूटन बिल्कुल नही
डॉ. अजित

Friday, August 4, 2017

जब हैरी मेट सेजल

जब हैरी मेट सेजल
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‘ जिस मुलाकत में कोई किसी से नही मिलता’

इम्तियाज़ अली मेरे प्रिय निर्देशकों में से एक है अभी तक उनकी फिल्मों ने निराश नही किया था, मगर जब हैरी मेट सजल को देखकर मुझे थोड़ी निराशा हुई है. थोड़ी इसलिए कह रहा हूँ कि इम्तियाज़ की पुरानी फ़िल्में मुझे अधिक निर्मम होने की छूट नही दे रही है. इसे एक दर्शक और बढिया निर्देशक का रिश्ता समझा जा सकता है. आज यह फिल्म  देखने के लिए  दो सौ बीस रुपए का टिकिट लिया मगर पूरी फिल्म के दौरान मुझे ऐसा लगता रहा कि यह फिल्म क्यों देख रहा हूँ मैं.
जिंदगी में इमोशंस बहुत आम से चीज़ है मगर  इमोशंस का सिनेमेटिक प्रजेंटेशन बेहद मुश्किल काम है इस फिल्म में यह तय करना मुश्किल है कि कौन किस चीज़ से भाग रहा है.  हैरी और सजल की मुलाक़ात और गहरी और मीठी हो सकती थी उनका सफर और रोमाचंक हो सकता था मगर दोनों की मुलाक़ात बतौर दर्शक मेरे मन में कोई कौतूहल नही जगा पायी.
शाहरुख को अब यह मान लेना चाहिए कि उनकी उम्र हैरी बनने की नही है वो लाख फिट दिखतें हो मगर उनके चेहरे से उम्र के अपने तकाजे नज़र आने लगे है. मैं उन्हें अब डियर जिंदगी के साइकोथेरेपिस्ट जैसे रोल में देखना चाहता हूँ. इस फिल्म में अनुष्का उन पर थोड़ी भारी पडी है मगर अनुष्का के लिए भी बहुत ज्यादा काम फिल्म में बचा नही था.
फिल्म में बढ़िया लोकेशंस है यूरोप का नक्शा है और वहां की गलियां है मगर उस नक़्शे के सहारे उन गलियों में घुमते हुए हैरी और सजल मुझे बेमेल नजर आए. शाहरुख  पंजाबी एक्सेंट में कभी कभी कुछ  डायलोग बोलते है मगर उसके लिए एक्सेंट रियल करने की उनकी वोकल मेहनत कुछ ऐसी साउंड निकालती है कि हमें समझ ही नही आता है कि वो क्या कह रहें है.
दिल और वजूद की जद्दोजहद में अक्सर आदमी दिल की ही सुनता है और ताउम्र खुद से भागता रहता है इसी भागदौड़ में उसकी मुलाक़ात कुछ ऐसे लोगो से होती है  जिनके साथ अपने लम्हें शेयर करने का अफ़सोस नही  होता है बल्कि खुशी मिलती है ये लम्हें हमारी पकड से छूटे हुए कुछ पवित्र किस्म के अहसास होते है जिसको जीने के लिए आदमी खुद को दांव पर लगाने से भी नही चूकता है. प्यार इसी दांव की छाँव में पलता है . यह फिल्म हमें एक अनजानी मुलाकात के सुखद अहसास दिखाने के लिए बुनी गयी थी मगर इस बुनावट में कसावट की अच्छी खासी कमी है इसलिए जब आप इस मुलाक़ात के सहारे अपने अतीत या भविष्य में झूलना चाहते है तो आपको लगता है ये झूला तो एक कमजोर शाख पर डाला गया है चूंकि मुझे इम्तियाज़ से मुहब्बत थी इसलिए मैं इस झूले को अकेले ही खींच कर झूलने के लिए छोड़ आया इसके बदलें मुझे कुछ अच्छी लोकेशन के हवा और एकाध गाने नसीब हुए जिन्हें मैं गुनगुना तो नही सकता मगर तब मैं उनको सुनते हुए थियेटर में अपने व्हाट्स एप्प के मैसेज जरुर चेक कर सकता था.
 जब हैरी मेट सेजल  में  शाहरुख की फाइटिंग और वोकल होने के कुछ सीन अवांछित है इसके अलावा पुर्तगाल के एक सीन में मुझे वो गाना गाता हुआ भी अजीब लगा. अनुष्का इस फिल्म में एक गुजराती लड़की बनी है गुजराती एक्सेंट में उसको सुनना एक अच्छा अनुभव हुआ और फिल्म देखकर मुझे लगा गुजराती लडकियां शायद ज्यादा खुले दिमाग की होती है हालाँकि फिल्म से राय क्या बनानी.
जब हैरी मेट सेजल में सजल की एक अंगूठी खो गयी है उसको तलाशने में फिल्म अपनी यात्रा पूरी करती है मगर मूलत: फिल्म अपने अन्दर की सच्ची खोज और उससे मिलने ख़ुशी से हमें मिलवाना चाहती है हम खुद से भागते हुए खुद की असली चाहत हो भूल जाते है और जिस दिन हमारी चाहत हमारे सामने होती है हम यह तय नही कर पातें कि उसे किस तरह से सहज सकें. जब हैरी मेट सेजल  देखतें हुए यह बात आपको खुद सीखनी पड़ती है क्योंकि फिल्म खुद ही खुद के अन्दर उलझ कर रह गई है.
और अंत में, मुझे फिल्म का एक सीन और डायलोग जरुर पसंद आया जब सेजल हैरी से कहती है कि क्या तुम कल के टिकिट बुक कर सकते हो इस पर हैरी जवाब देता है यस मैंम !
सामान्य  सा डायलोग है मगर मुझे क्यों पसंद आया इसके लिए आपको फिल्म देखनी होगी. इम्तियाज़ की इतनी बढ़िया फिल्में हमने देखी है उसी उधार के बदले उनकी यह एक औसत फिल्म भी देखा जा सकती है.

© डॉ. अजित 

Thursday, July 27, 2017

डियर शैफाली

डियर शैफाली,
उम्मीदन तुम अच्छी ही होंगी इसलिए कुशल क्षेम की औपचारिकता में नही पड़ना चाहता हूँ. जमाने भर मे मैं फिलहाल थोड़ा चिट्ठीबाज़ के तौर पर बदनाम हो चुका हूँ. आज जब जमाने में हर कोई गति से प्यार कर रहा है मैं आज भी उस दौर में अटका हुआ हूँ जब ख़त, रोशनाई और इंतज़ार में एक गहरी दोस्ती हुआ करती थी. मैं पीछे देखता हूँ और मुस्कुराता हूँ. मेरे पास लिखावट की शक्ल में कुछ अच्छी यादें है. दिन ब दिन जटिल होती जिंदगी में मेरे पास ख़त और किताबों की एक छोटी सी दुनिया है इसी दुनिया के भरोसे मैं जीवन के बेहतर होने की उम्मीद को जिंदा रख पाता हूँ.
बहुत दिनों से मेरे ख्यालों में यह खत दस्तक दे रहा था मगर मेरे पास आपका कोई मुक्कमल पता नही था और ख्याल भी बेहद उलझे हुए थे इसलिए मैंने  कुछ दिन आपका पता और कुछ दिन ख्यालों के बाल संवारने में लगा दिए. आज सुबह वो ख्याल मुझे स्कूल जाती किसी लड़की के दो चोटियों जैसे मासूम खड़े मिले मैं उन्हें देख मुस्कुराया और फिर खुद को समेटकर यह खत लिखने बैठ गया.
मेरी  अब तक की बातों से यह साफ़ अनुमान लगाया जा सकता है कि मैं एक आत्ममुग्ध शख्स हूँ क्योंकि आपको चिट्ठी लिखते वक्त भी मैंने भूमिका के केंद्र में खुद को रखा है मगर यह मेरे वजूद का आधा सच है और जो बचा हुआ सच है उसमें कुछ किरदार मेरे इर्द-गिर्द जमा है जिनसे मेरे लगभग रोज़ ही बतकही हो जाती है यह किस स्वप्न में बडबडाने जैसा समझा जा सकता है.
जिन किरदारों के तसव्वुर के जले मेरे दिल ओ’ दिमाग में लगे है उनमें से एक मौजूं किरदार आप भी है. मैंने आपकी ज्यादा फ़िल्में नही देखी है मगर बड़ी या छोटी स्क्रीन पर जब भी आपको देखा है तो आपके वजूद में एक खास किस्म का सम्मोहक ऑरा मैंने महसूस किया है. यह एक बड़ा विस्मय से भरा सम्मोहन रहा है मेरे लिए  आपको देखते हुए हर बार ऐसा लगा कि जैसे कुछ सवाल जवाब की शक्ल में मेरे सामने खड़े है.
आपको आँखों में जज्बाती सरहदों में कुछ मसलें दफ्न है जिन्हें देख ऐसा लगता है कि जैसे खुद खुदा ने अपने चूल्हे से बुझी लकड़ी निकाल कर आपकी आँखों पर काज़ल की गिरहबंदी कर दी है ताकि कुछ दिन मनुष्य अपनी अपनी कामनाओं को प्रार्थना की शक्ल में रूपांतरित करने का हुनर सीख सकें. आपकी पलकों के झपकने का अंतराल मैं अपने मन के दस्तावेजों में कुछ इस तरह दर्ज करता हूँ जैसे कोई जलकर्मी नदी के बढ़ते हुए जलस्तर को घंटो के हिसाब से दर्ज करता है और फिर प्रमाणिकता से नदी के खतरे के निशान से ऊपर बहने की चेतावनी जारी करता है. मैं  आपकी आँखों को समंदर नही कहूंगा क्योंकि समंदर अथाह होता है और यह अंतिम प्राश्रय देता है. मेरे पास इतना प्रतिक्षा के धैर्य का अभाव है इसलिए मैं आपकी आँखों में देखता हूँ और अपने सफर के जरूरी सामानों की एक लिस्ट बनाने लग जाता हूँ इस तरह है मैं इन आँखों में देखते हुए अपने सफ़र की जरूरी तैयारी करता हूँ. मुझे उम्मीद है इनमें जो उदासीनता की चमक है उसके भरोसे मैं अँधेरे में अपनी गति से सुनसान जंगल पूरे उत्साह से गाना गुनाते हुए पार कर सकता हूँ.
यह बात मुझे ठीक से पता है कि अभिनय की दुनिया अपने आप में एक बड़ी आभासी दुनिया है मगर मुझे मुद्दत से आभास को यथार्थ और यथार्थ मान कर जीने की एक खराब आदत हो गई है. जिन्दगी मगर हमेशा अच्छी आदतों के भरोसे कहां जी जाती है इसलिए इस खराब आदत के सहारे मैं आजकल अपने सपनों पर इस्त्री करके उनकी तह लगाकर उन्हें एक अज्ञात बक्शे में जमा कर रहा हूँ. आपको देखने के बाद मैं जीवन का यह सच जान गया हूँ कि जो सपने हम नींद में देखते है वो दरअसल केवल हमारी अतृप्त कामनाओं की छाया होती है.चूंकि आपसे मेरी किसी किस्म की कोई कामना नही जुडी है इसलिए आपसे कभी सपने में मुलाक़ात नही हुई है. मैं इसी कारण आपकी आभासी उपस्थति को वर्तमान का एक सच मानता हूँ.
आपके पास एक विस्मय से भरी दृष्टि है जिससे खुद को बचा पाना लगभग नामुकिन है यह नज़र ठीक वैसी है जैसे किसी पहाड़ी बागान में चाय की पत्तियां चुनती महिलाओं की होती है जो अपनी चाय की पत्तियाँ चुनती है और फिर विस्मय से उनके भार का अनुमान लगाती है. आपको देखकर खुद के अनुमान कौशल को आजमाने का दिल करता है मगर फिर मैं इसलिए ठहर जाता हूँ  शायद हमेशा खुद को सिद्ध करने वाले पुरुष आपको बेहद निर्धन लगतें होंगे. आप मनुष्य को उसके नैसर्गिक रूप में देखना पसंद करती हैं इसलिए मैंने खुद को संभावनाओं और विकल्पों से मुक्त रखने का अभ्यास विकसित किया है यद्यपि मैं इसमें पूर्णत: सफल नही हूँ मगर फिर भी मुझे लगता है जिनके पास कोई योजना न हो ऐसे लोगो को आप हिकारत की नजर से नही देखती होंगी.
पिछले दिनों मैं सौन्दर्य की टीकाओं पर किसी से बात कर रहा था उनका मत था कि सौन्दर्य स्वत: प्रकट नही होता है उसे प्रकाशित करना पड़ता है मैं उन सज्जन से सहमत होना चाहता था मगर तभी मेरे ध्यान में आप आ गई आपको देखकर साफ़ तौर पर सौन्दर्यशास्त्र के इस सिद्धांत की मैं साधिकार अवहेलना कर सकता हूँ कि सौन्दर्य स्वत: प्रकट नही होता है. अलबत्ता तो सौन्दर्य का  विश्लेषण करना खुद में सौन्दर्य का एक अपमान है मगर आपको देखकर मुझे हमेशा से ऐसा लगता है कि आपके पास ऐसा सौन्दर्य है जिसे हम शास्त्रीय मान अप्राप्य नही समझ सकते है जो बुनावट में इतना महीन है मगर वो हमारे आसपास के चेहरों से इतना मिलता जुलता है कि आपको देखकर कभी ऐसा नही लगता है कि आप ऐसी स्टार है जो हमसे इतनी दूर है कि जिस पर बात करते हुए भौतिक दूरी और सामाजिक स्थिति से हमें हीनता का बोध घेरता हो. इसलिए मैं आपको लौकिक तौर बेहद खूबसूरत घोषित करता हूँ क्योंकि मुझे यह बात साफ़ तौर पर पता है कि अलौकिक सुन्दरता का वर्णन करने वाले लोग खुद से झूठ बोलते है और अपरिमेय,अप्राप्य वस्तुओं के दूर होने पर खुद को एक बुद्धिवादी सांत्वना देते है.  
अंत में आपकी हंसी पर एक बात कहना चाहूंगा आपकी हंसी कुछ कुछ वैसी है जैसे कोई मल्लाह सुबह अकेला नाव लेकर समंदर में चला गया हो और जाल को सुलझाने के चक्कर में बिना जाल फेंके फिर से किनारे लौट आया हो. आपकी हंसी मुझे  थोड़ी कुलीनताबोध से भरी मगर थोड़ी जजमेंटल किस्म की लगती थी मगर बाद में मैंने अपने इस निष्कर्ष को अपने मन का एक पूर्वाग्रह पाया दरअसल आपकी हंसी में कोई एन्द्रिक अधीरता नही है यह किसी इंतज़ार के चरम को महसूस करके सीधे हृदय से प्रस्फुटित होती है इसलिए आपकी हंसी को देखते हुए मनुष्य कम से कम अपने दुखों की भावुक प्रस्तुति भूल जाता है. इसलिए भी दुःख आपको नापसंद करते है.
आदतन चिट्ठी लम्बी हो गई है दरअसल मैं जब कुछ कहना चाहता हूँ तो फिर मैं एक नदी की तरह बहना चाहता हूँ हो सकता है मेरे किनारे मेरी बात ध्यान न सुनतें हो मगर मुझे भरोसा है  मेरी गति और यात्रा एकदिन मेरी तमाम बातें ठीक ढंग से संप्रेषित करने में सफल सिद्ध होगी. ये खत भी उसी यात्रा का एक हिस्सा भर है मुझे उम्मीद है देर सबेर यह आपके सही पते तक जरुर तामील होगा.
फिलहाल के लिए इतना ही...शेष फिर !
आपका एक दर्शक

डॉ.अजित  

Tuesday, July 25, 2017

लिपस्टिक अंडर माय बुर्का

लिपस्टिक अंडर माय बुर्का
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हिज़ाब में रोज़ी के महकतें सपनों की दास्तान
कामनाओं का अपना एक तिलिस्मी संसार होता है. आदमीयत की अंदरुनी दुनिया अमूर्तन के सहारे बड़ा विचित्र सा संसार बुनती है और जब हम एक औरत की अंदरुनी दुनिया देखने की कोशिश करतें है तो उसकी पेचीदगियां हमें विस्मय से भरती है. मगर ये विस्मय विशुद्ध रूप से एक पुरुष का विस्मय हो ऐसा भी नही है. जब एक स्त्री खुद से गहरी मुलाक़ात करने अपने मन के तहखाने में उतरती है फिर वहां मन और देह कुछ समय अक्लांत हो जीना चाहते हैं. वो हर किस्म की कन्डीशनिंग से मुक्ति चाहते है. ये चाहतें जब बाहरी दुनिया में आकार लेती है तो हम इन्हें तथाकथित वर्जनाओं से अतिक्रमण के रूप में देखतें है. ऐसा देखने का हमारा एक तयशुदा सामाजिक प्रशिक्षण है.
यह फिल्म स्त्री मुक्ति का कोई वोकल नारा नही देती है और ना ही इस फिल्म के जरिए समाधान की शक्ल में कोई निष्कर्ष तय कर सकतें है मगर यह फिल्म चार महिला किरदारों में माध्यम से उनके जीवन में बसे आंतरिक आकर्षणों और उसको पाने के लिए की गई जद्दोजहद का एक बढ़िया रूपक प्रस्तुत करती है.
जेंडर के संदर्भ में समाज का एक अपना ज्ञात सच है और इसी ज्ञात सच को हमें अंतिम रूप से मानने के लिए समाज तैयार करता है इसमें कोई दो राय नही कि लैंगिक पूर्वाग्रह और भेदभाव के चलते पुरुष ने खुद को एक सत्ता के रूप में स्थापित किया है समाज की अंदरूनी लोकतंत्र बेहद कमजोर और डरा हुआ है इसलिए सवाल करती हर स्त्री को वो एक सांस्कृतिक खतरे के तौर पर प्रोजेक्ट करता है.
रोज़ी एक औपन्यासिक नाम है जो फिल्म की सूत्रधार है प्रतीकात्मक रूप से देखा जाए तो यह मन के बीहड़ में उगा कामनाओं का गुलाब है जो मुरझाना नही चाहता है और अपने लिए हवा खाद पानी का प्रबंध करने के लिए हर स्त्री को अपने अपने ढंग से उकसाता है उसे सपने देखने की हिम्मत देता है.
लिपस्टिक अंडर माय बुर्का फिल्म में कायदे में हमें केवल एक लड़की और एक महिला बुर्के में नजर आती है मगर ये बुर्का स्त्री के अस्तित्व पर पड़ा वर्जनाओं और रूढ़ियो का सदियों पुराना पर्दा है जिसके अन्दर का अन्धेरा देखने की कभी कोई कोशिश नही होती है. यह फिल्म व्यक्तिवादी चेतना के जरिए स्त्री के आंतरिक संघर्षों को सेक्सुअलिटी के संदर्भ में रेखांकित करने की एक अच्छी कोशिश है.
यदि हमें इसे एक सामाजिक यथार्थ के रूप में देखें तो यह आधी आबादी का एक संगठित सच है मगर चूंकि फिल्म कोई आन्दोलन या नारा नही है इसलिए फिल्म का नेरेशन इस द्वंद से लडती स्त्री को कोई रास्ता नही दिखाती है. यह फिल्म मध्यमवर्गीय स्त्री की मन और देह के स्तर पर एक शुष्क मनोवैज्ञानिक रिपोर्टिंग करती है सिनेमा यदि दिशा का बोध कराए तो उसका कोलाज़ बड़ा हो जाता है. यहाँ फिल्म थोड़ी कमजोर पड़ गई है.
एक अधेड़ स्त्री जो जंत्री में रखकर कामुक साहित्य पढ़ती है, एक ब्यूटी पार्लर चलाने वाले लड़की जो सेक्स को ही प्रेम और आजादी का प्रतीक मानती है जबकि उसकी खुद की मां न्यूड पेंटिंग्स के लिए मजबूरीवश मॉडलिंग का काम करती है, एक लड़की जो कालेज गोइंग है मगर बुर्का और परवरिश के धार्मिक संस्कारों के बोझ के तले दबी है वो खुल कर जीना चाहती है. जींस,शराब,सिगरेट, बूट, परफ्यूम, नेलपेंट उसके आयुजन्य और परिवेशजन्य आकर्षण है जिसके लिए शोपिंग माल में चोरी तक करती है,एक मुस्लिम महिला जिसका पति प्यार और सेक्स में भेद नही जानता है जो मेल ईगो से भरा हुआ है और जिसे औरत का काम करना खुद के वजूद की तौहीन लगता है जो संसर्ग के नाम पर हमेशा बलात्कार करता है.
ये चार महिलाओं का किरदार इस फिल्म में स्त्री समाज का वर्ग प्रतिनिधित्व करने के लिए गढ़े गये है निसंदेह चारों ही समाज का अपने-अपने किस्म का सच भी है . इन चारों स्त्रियों के पास एक अपरिभाषित किस्म का सपना है और रोज़ उसके पीछे भागने की एक जुगत भी है मगर कामनाओं के दिशाहीन संसार में जब आप अकेले दौड़तें है तो एक दिन थककर बैठना आपका निजी सच बन जाता है. यही सच स्त्री के आंतरिक एकांत का भी सच फिल्म के जरिए हमें देखने को मिलता है.
आजादी और बराबरी के डिस्कोर्स में फिल्म देह की तरफ झुकती है तो कभी कभी उत्तर आधुनिकता यथा सेक्स, शराब,सिगरेट के जारी प्रतीकात्मक रूप बराबरी के मनोवैज्ञानिक दावें को भी प्रस्तुत करती है मगर फिल्म का अंत कोई एक स्टेटमेंट नही बन पाता है. सपने देखना जरूरी है और अपनी खुशी की चाबी खुद के अंदर होती है मौटे तौर पर फिल्म यह उद्घोषणा करके खत्म हो जाती है.
लिपस्टिक अंडर माय बुर्का के जरिए हम आधी दुनिया का आधा सच जान पाते है और यदि फिल्म देखकर हम मात्र यह धारणा बना लें कि स्त्री मुक्ति का रास्ता देह की आजदी से जाता है तो यह भी एक किस्म की जल्दबाजी होगी दरअसल आजादी और बराबरी को एक फिनोमिना के स्तर पर समझाना इतना आसान काम भी नही है यह फिल्म जीवन के उस पक्ष पर एक सार्थक बातचीत करती है हम जिसका शोर रोज़ सुनते है मगर सुनकर भी जिसे हम अनसुना कर देते है मेरे ख्याल से फिल्म की यही सबसे बड़ी सफलता है.
लिपस्टिक अंडर माय बुर्का के जरिए हम मध्यमवर्गीय चेतना के नैतिकता और यौनिकता से जुड़े ओढ़े हुए समाज के पाखंड को देख सकते हैं यह फिल्म हमें उस दुनिया में ले जाती है जहां एक स्त्री अपने एकांत से भागकर अपनी कामनाओं का पीछा कर रही है उसे थकता हुआ देखकर पुरुषवादी मन को संतोष मिलता है और फिल्म इस लिहाज़ से अपना काम बेहतरी से कर गयी है क्योंकि इस फिल्म में कोई कोलाहल नही है मगर फिर भी द्वंदों की एक मधुमक्खी वाली सतत भिनभिनाहट जरुर है जिसे छूने पर डंक का खतरा महसूस होता है मगर स्त्री उसे छूती है और अंत में अपने दर्द पर उत्सव की शक्ल में रोते-रोते हंसने लगती है.
© डॉ. अजित

Sunday, May 21, 2017

हिंदी मीडियम

हिंदी मीडियम: मेरा पाठ  
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मेरा जैसा देहात से निकला दर्शक ऐसी फिल्मों को दिल से लगा लेता है. भले ही कामकाजी चक्करों में वो शहर का बाशिंदा बन गया है मगर असल में उसका दिल श्याम प्रकाश ( दीपक डोब्रीयाल) के जैसा ही है वो किसी का हक चाहकर भी नही मार सकता है.
हिंदी बनाम अंग्रेजी की बहस दरअसल दो भाषाओं के औचित्य की बहस नही है यह बहस है कुलीनता बनाम निम्नमध्यम वर्ग की. यह बहस है इंडिया बनाम भारत की. अंग्रेजी भाषा जब एक सम्प्रेष्ण के टूल से बढ़कर हमारे लिए गर्व का विषय बन समाज का हिस्सा बनती है तब यह सीधे-सीधे देश के अन्दर एक बड़ी लकीर खींच देती है.
‘हिंदी मीडियम’ जैसी फ़िल्में दरअसल कोई समाधान भले ही प्रस्तुत न करती हो मगर ये एक बड़े वर्ग के द्वंद को बहुत अच्छे से चित्रित जरुर करती है. फिल्म का मूल विषय बड़े और महंगे स्कूल में एडमिशन को लेकर मरते महानगरीय पेरेंट्स है वो किस किस्म के दबाव से गुजरते है वह देखने लायक चीज़ है, मगर ये दबाव उन्होंने परिवेश से अर्जित किया है इसके लिए उनका स्वयं का दोष भी कम नही है. एक तरफ देश के अन्दर सांस लेता एक दूसरा देश है जो उम्मीद की रोटी रोज खाता है मगर फिर भी खाली पेट सोता है. आरटीई जैसा क़ानून गरीबों के बच्चों को बड़े स्कूलों के क्लासरूम ले जाना चाहता है मगर शिक्षा को व्यवसाय मानकर करने वाले बड़े स्कूलों के अपनी एक अलग किस्म अभेद्य दुनिया है.
कई दिन से मेरे जेहन में एक बात घूम रही थी आज यह फिल्म देख कर कहने का मौक़ा मिला है तो जरुर कहूंगा आप मेरी और अपनी पीढ़ी के लोगो को गौर से देखिए हम लोग यहाँ तक बिना किसी पेरेंटल गाइडेंस के  पहुंचे है. जो लोग गाँव देहात से निकले है उनके माँ-बाप कई बार साक्षर भी नही होते थे या फिर उनकी साक्षरता अक्षरज्ञान भर जैसी होती है. मेरे खुद के पिता को ये नही पता था कि मैंने 12 तक कौन से विषय पढ़ें है मगर फिर भी हम उच्च शिक्षित हुए और दुनिया की आँख में आँख मिलाकर बात करने की योग्यता अर्जित की है अब जो नई शिक्षानीति देश में लागू हुई है उसमें जिनके माँ-बाप गरीब और अनपढ़ है वो इस एजुकेशन सिस्टम में सरवाईव नही कर सकते है. ये देश के लिए एक बेहद खतरनाक संकेत है. हिंदी मीडियम देखकर आप मेरी इस चिंता को ठीक से समझ पाएंगे.
फिल्म में एडमिशन की मारा-मारी में फंसा एक बिजनेसमेन(इरफ़ान खान) की कहानी है जिसके पास पैसा जरुर है मगर अंग्रेजी में कमजोर है इसलिए महंगे और बड़े स्कूल में बेटी का एडमिशन नही हो पा रहा है. इरफ़ान खान की पत्नी ( सबा कमर  ) अपनी बेटी के एजुकेशन को बढ़िया स्कूल में एडमिशन कराने को लेकर ओवरकांशियस है. दरअसल ये केवल बेटी के एडमिशन का मसला नही है ये एक क्लास शिफ्ट की जद्दोजहद से गुजरते परिवार की कहानी है जो अपनी दुनिया में बहुत खुश था मगर एक एडमिशन की घटना उनकी दुनिया बदल देती है.
हिंदी मीडियम में गरीबी का गरिमापूर्ण फिल्मांकन मन को द्रवित कर देता है.फिल्म गरीबी को परिभाषित जरुर करती है शिक्षा को लेकर उनके बुनियादी हक़ को छीनने वाली ताकतों को खुलकर एक्सपोज़ नही करती है, हालांकि फिल्म कोई नारा नही होती है इसलिए मुझे क्रान्ति से अधिक एक सामाजिक सन्देश की दरकार फिल्म से रहती है. गरीबों का हक मारकर आरटीई जैसे कानून का मजाक कैसे बनाया जाता है यह फिल्म देखकर पता चलता है मगर आप इस अपराध को अभिभावकीय जद्दोजहद समझ माफ़ करते चलते है इससे पता चलता है कि हम कहीं न कही अवचेतन के स्तर पर इस फर्जीवाड़े को लेकर कन्वीन्स भी है.
श्याम प्रकाश ( दीपक डोबरियाल) फिल्म में रुलाने के लिए ही है वो कमाल के अभिनेता है और इस फिल्म में उनका रोल छोटा जरुर है मगर उनका किरदार सिद्धांतो की ऊंचाई के मामलें में इरफ़ान कहां से की गुना बड़ा है. उनका एक डायलोग ‘गरीबी की आदत धीरे-धीरे लगती है’ अपने आप में एक कम्प्लीट स्टेटमेंट है. दीपक के आने के बाद फिल्म का कैनवास निसंदेह कई गुना बढ़ जाता है.
हिंदी मीडियम अपने बच्चों के साथ देखे जानी वाली फिल्म है क्योंकि अंग्रेजी का भूत अब हमारे कंधो से उतर कर उन्ही की सवारी कर रहा है. देश के एजुकेशन सिस्टम में भाषाई पूर्वाग्रह और गरीबी की समस्य के बीच उनके बुनियादी हक की लड़ाई के नितांत की अकेले होने की कहानी को हिंदी मीडियम के माध्यम से कहने की एक ईमानदार कोशिश की गई है.
फिल्म देखकर आप यह भी जान पाएंगे कि जब गरीब अपनी क्लास शिफ्ट करता है तब वह सबसे पहले गरीब और गरीबीयत से मुंह मोड़ता है. कड़वा अतीत भूलकर हर कोई इंडिया में रहना चाहता हैं क्योंकि भारत के साथ उनकी कड़वी स्मृतियाँ जो जुड़ी है.
पाकिस्तानी अभिनेत्री सबा कमर  अच्छी लगी है उनका अभिनय भी अच्छा है मगर उनकी लम्बाई इरफ़ान पर थोड़ी भारी पड़ी है मुझे गरीबी वाले रोल में अधिक खूबसूरत लगी इसकी शायद एक निजी वजह यह भी हो सकती है कि गरीबी और मामूलीपन मेरे परिवेश का हिस्सा रहा है हालांकि मैं कभी गरीब नही था इसलिए यहाँ इस कथन को गरीब होने का ग्लैमर लूटने वाले समझा सकता है इसलिए बताना जरूरी समझा ताकि मैं किसी के हिस्से का हक ना मार सकूं.
© डॉ. अजित 

Friday, November 25, 2016

डियर ज़िन्दगी

'डियर ज़िन्दगी' अच्छी फिल्म है। देखने लायक। खुद के डरों से मिलवाती अंदरूनी लड़ाईयों का इश्तेहार करती फिल्म है। दरअसल ये फिल्म ज़िन्दगी से दोस्ती करने का नुक्ता बताती है वो अतीत के द्वन्द के वर्तमान पर प्रभाव को रेखांकित करती है। प्यार करने के लिए निर्द्वन्द और बेख़ौफ़ ज़िन्दगी चाहिए और जिंदगी से दोस्ती वही कर सकता है जो अपने डरो को विदा कर सके।
अच्छी बात है  अब भारत में ऐसे साइकोलॉजिकल कल्ट विषयों पर मूवी बनी शुरू हो गई है। पेरेंटिंग के रोल और पर्सनलिटी डायनामिक्स पर एक बढ़िया सिनेमेटिक डायलॉग फिल्म शुरू करती है।
डियर जिंदगी देखने के लिए मैच्योर ऑडियंस होना जरूरी है वरना लोग फिल्म के बीच में बोल बोल कर मजा किरकिरा करने से बाज नही आते शायद छोटे शहरों की ही यह दिक्कत हो।
डियर ज़िन्दगी दरअसल जिंदगी के नाम लिखा एक खत है जिसे आप रोज़ अकेले में पढ़ते है फिल्म को देखते वक्त आपको अपनी लिखावट और धूमिल हुए पते को साफ़ साफ़ देखने का अवसर मिलेगा बीच बीच में जहां जहां आँखे नम होंगी समझ लीजिए वो टिकिट चिपकाने का ग्लो है। उम्मीद यह की जा सकती है फिल्म देखकर आप अपने खत ज़िन्दगी के नाम रवाना कर देंगे और दुआ यह है कि आपका कोई खत बैरंग न लौटे।
आलिया भट्ट का शानदार अभिनय है। शाहरुख खान साइकोलॉजिस्ट की भूमिका में अच्छे लगे है, चूंकि मनोविज्ञान मेरा विषय रहा है इसलिए उनको थेरेपिस्ट के रूप में देखकर मुझे और भी अच्छा लगा। रोशार्क (मनोवैज्ञानिक परीक्षण) को फिल्म में देखना अच्छा लगा।
ज़िन्दगी का फलक बहुत बड़ा है उससे आँख मिलाकर बात करने का जो हौसला चाहिए वो हम सब के अंदर मौजूद होता है बस उसे पहचानने की जरूरत भर होती है। डियर जिंदगी देख आप खुद से एक ईमानदार बातचीत कर सकते है एक बच्चे के रूप में खोई हुए चीजों को तलाश सकते है और एक पेरेंट के तौर खुद को प्रशिक्षित कर सकतें है।
गुस्सा,प्यार,डर, एकांत,महत्वकांक्षा इन सब जटिल चीजों को समझने के लिए यह एक फिल्म काफी है। सहज रहने के लिए खुद से मुलाक़ात जरूरी होती है डियर जिंदगी उसी मुलाकात का समन है जो हमें फिल्म देखतें देखतें तामील हो जाता है।
फिल्म में गाने के फिलर के तौर में मौजूद है मगर ठीक ठाक है।
कुल मिलाकर एक देखने लायक फिल्म।

Friday, September 23, 2016

पार्च्ड-2

कल पार्च्ड मूवी देखी। फिल्म देखकर फिल्म के सेंट्रल आईडिया पर एक लंबा क्रिएटिव नोट भी लिखा। आज फिल्म की प्रमुख पात्रों पर लिखने की कोशिश कर रहा हूँ इस उम्मीद के साथ कि आपको तस्वीर और साफ़ नज़र आएगी।
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पार्च्ड का कथानक राजस्थान/गुजरात के सीमांत गाँव पर बुना गया है। जहां रेत ही रेत है कच्चे मकान है बबूल के पेड़ है और उन सबके ऊपर पितृ सत्तात्मक समाज का आकाश है। वहां दकियानूसी और रूढ़ियों की कठिन धूप है जिसकी आंच में मनुष्यता जलती है वहां केवल पुरुषों को निर्णय लेने की आजादी है। स्त्री वहां भोग्या है और पुरुषों के लिए एक कार्मिक और दैहिक टूल भी।
गाँव की पंचायत में भले ही बूढ़े बुजुर्ग गाँव की समस्या सुनने के लिए बैठते है मगर उनके कान महिलाओं की समस्याओं के मामलें में बहरे है उनकी बोली भले ही राजस्थानी/गुजराती है मगर उसमें शोर कमोबेश खाप पंचायत जैसे तुगलकी फैसलों का ही है। उनके हिसाब से कुल और गांव की इज्जत बचाने की सारी जिम्मेदारी स्त्री की है पुरुष का काम केवल छद्म नैतिकता का डंडा चलाने के है और बड़ी चालाकी से गाँव का ये सिस्टम पुरुषों की सारी लम्पटई को सामाजिक स्वीकृति भी देता है। ये सिस्टम नियोजित ढंग से एक निःसहायता का बोध स्त्री के मन में भरता है जो खुद अपने वर्ग की मदद नही कर सकती है मानो मजबूरी उसकी नियति बना दी गई है। फिल्म के एक सीन एक माँ की मजबूर आँखें दिखती है जो जानती है उसकी बेटी के साथ ससुराल में देवर और ससुर द्वारा दैहिक शोषण होता मगर फिर भी वो मजबूर है और बलात उसे ससुराल भेजना चाहती है।
गाँव के अंदर का ये सिस्टम महज राजस्थान के अति पिछड़े गांव की कहानी नही बल्कि ये कमोबेश देश के हर गांव का स्याह सच है।
अब बात फिल्म के किरदारों की करता हूँ।
रानी:
रानी की शादी कम उम्र में हो जाती है। राजस्थान में बाल विवाह एक बड़ी सामाजिक समस्या आज भी है। फिर पति की उपेक्षा को झेलती है क्योंकि पति ने बाहर एक दूसरी महिला से रिश्तें रखे हुए है। सास कहती है एकदिन सब ठीक हो जाएगा मगर रानी की।ज़िंदगी रानी जैसी बल्कि गुलामों जैसी रही और ये सब ठीक होना कभी ठीक नही हुआ। पति एक दुर्घटना में मर जाता है फिर रानी काले बाने में विधवा का जीवन जीने की अभ्यस्त हो जाती है। उसका एक नालायक बेटा है गुलाब है बिन बाप की परवरिश और दोस्तों के कुसंग ने उसको बिगाड़ दिया है उम्र कम है मगर वो मर्द होने के अभिमान से ग्रसित है। रानी को लगता है उसका ब्याह करके वो चैन से सो सकेगी मगर ये चैन उसे आखिर तक नसीब नही होता है।
उसकी अपनी कामनाएं उसने हमेशा के लिए नेपथ्य में भेज दी है वो मेहनतकश है और थोड़ी बहुत हंसोड़ भी। गुलाब उसके जीवन का दूसरा स्थाई दुःख है जो पूरी फिल्म में उस पर तारी रहता है।
लज्जो:
रानी की दोस्त है। पति शराबी है और मारपीट करता है।लज्जो को बाँझ घोषित किया हुआ है। इसी कारण पति का शोषण चरम पर है। लज्जो के अंदर एक बाल सुलभ खिलंदड़पना भी है वो अपने सारे दुःखों को भूलकर रानी के साथ हंसती गाती है।उसकी देह पर चोट के निशान जरूर है मगर असल में उसका स्त्रीत्व जख्मी है वो आत्म सम्मान से जीना चाहती है। उसके वही छोटे छोटे सपनें है मगर पति के शोषण के समक्ष वो बंधुआ है। वो एक सवाल का केंद्र बनती है कि क्या पुरुष बाँझ नही हो सकता है? और जब उसका जवाब उसे मिलता है तो उसकी दुनिया बदल जाती है फिल्म के अंत में उसे शोषण से स्थाई मुक्ति मिलती है।
बिजली:
बिजली रानी की दोस्त है वो नाचने गाने वाली वेैश्या है। रानी की पति शंकर कभी उसका ग्राहक हुआ करता था। एकदिन वो शंकर को उसके घर छोड़ने आई तो रानी ने उसको धन्यवाद कहा और खाना खिलाया। बिजली इस आत्मीयता की कायल होकर रानी की दोस्त बन जाती है। रानी,लज्जो और बिजली तीनों पक्की दोस्त है। बिजली पेशे से जरूर वेश्या है मगर उसकी चेतना रानी और लज्जो की अपेक्षा अधिक मुखर है। वो कड़वे सच को पूरी ईमानदारी से कहने की हिम्मत रखती है उसके समाज से दोगलेपन से घिन्न है। फिल्म के एक सीन में सारी गालियों के केंद्र में महिला होने पर बिजली कुछ नई गालियां ईजाद करती है जिसमें पुरुषों को गाली का केंद्र बनाया जाता है ये स्त्री सशक्तिकरण की नही स्त्री के मन में दबे हुए आक्रोश की अभिव्यक्ति के रूप में प्रकट होता है।
बिजली के पास सपनें है फंतासी है और एक सच्चे प्रेमी की कल्पना वो लज्जो और रानी को सपनें देखना सिखाती है उन्हें उनकी अंदरूनी दुनिया से मिलवाती है। वो उन दोनों की सारथी है उन्हें अंत में उनकी खुशियों तक ले जाती है।
जानकी:
गुलाब की पत्नी है जिसका बाल विवाह हुआ है। रानी एक सख्त सास है मगर उसके मन में वात्सल्य भी है। रानी को लगता है कि जानकी उसके बेटे को सुधार देगी (यह देहात की हर माँ की एक बेतुकी उपकल्पना रहती है) मगर बाद में जब गुलाब शराब पीकर उसके साथ मारपीट करता है तब रानी को जानकी में अपना अतीत साफ नजर आने लगता है। रानी अपनी गलती सुधरती है और जानकी के जीवन को एक सही दिशा देती है यहां वो सास से एक क्रांतिकारी माँ की भूमिका में तब्दील होती है।
गुलाब:
रानी का  बिगड़ैल बेटा है अभी किशोर है मगर उसमें पुरुष होने का दम्भ बेहद गहरा है। मोबाईल में अश्लील एमएमएस की क्लिप रखता है आवारा दोस्तों के साथ घूमता है शराब पीता है और पतन की पराकाष्ठा पर जाकर वेश्यावृत्ति भी करता है। इतनी कम उम्र में उसके ये तेवर देखकर दर्शक को पूरी फिल्म में उस पर गुस्सा बना रहता है।गुलाब के पतन का चरम यहां तक है कि वो अपनी माँ की दोस्त बिजली के पास तक पैसे लेकर वेश्यावृत्ति करने चले जाता है जिस पर उसको थप्पड़ पड़ता है। वो क्रूर पुरुष और शोषक की भूमिका में है बेहद दकियानूस है और गाँव में हर किसी नए किस्म के परिवर्तन का विरोधी है वो पढ़ाई लिखाई को गैर जरूरी समझता है। रानी अंत में उसका मोह छोड़कर एक मिसाल पैदा करती है।
किशन:
गाँव का प्रगतिशील युवा है। जिसने नॉर्थ ईस्ट की लड़की से प्रेम विवाह किया है गाँव में हस्त शिल्प का एक प्रोजेक्ट चलाता है। उसके जरिए गाँव की महिलाएं आत्मनिर्भर हो रही है। वो रूढ़ियों का विरोधी है इसलिए गाँव के पुरुषों की नजरों में खलनायक है। उसकी मदद से महिलाएं गांव में अपने पैसो से टीवी ला पाती है। वो वंचितों का सच्चा मददगार है। रानी की खूब मदद करता है मगर गुलाब उसके लिए जितना बुरा कर सकता है उतना करता है।

फिल्म का मास्टरस्ट्रोक सीन:
फिल्म के एक सीन मेंलज्जो से प्रणय अनुमति लेता एक युवा सन्यासी जब लज्जो के पैर आदर से छूता है तब लज्जो की आँखों से आंसू इस तरह बहते है मानों अंदर बरसों से जमा दर्द का ग्लेशियर फूट पड़ा हो वो अपने जीवन में पहली बार एक पुरुष का यह रूप देखती है जो उसके स्त्रीत्व इस तरह से आदर देता है।पति की मार पिटाई से त्रस्त लज्जो के लिए यह अनुभव दिव्यतम श्रेणी का था। वहां अनुमति लेने की चाह संसर्ग को वासना से इतर एक कलात्मक और चैतन्य अनुभूति में बदल देती है। स्त्री पुरुष सम्बन्ध की पवित्रता और चैतन्यता की वो अद्भुत प्रस्तुति बन पड़ी है।

© डॉ.अजित


पार्च्ड

रेत शुष्क ही नही दरदरा भी होता है इसलिए चुभता भी है,उसे हवा उड़ाती है मगर वो एक जगह न ठहरने के लिए शापित भी होता है। देह और मन दो ध्रुव है जिस पर झूला डाल भरी दोपहरी की लू मे झूलने की कोशिश की जा सकती है भले इसमें देह का ताप बढ़ जाए।
समाज समूह से बनता है मगर समूह के भीतर एक वैयक्तिक नितांत हमेशा बचता चला आता है।जिस पर कभी रूढ़ियों की बेल चढ़ी होती है जो अपनी हरियाली में भी चुभने के स्तर तक जालिम होती है  तो कभी हम  लैंगिक भिन्नता की ओट लेकर खुद एक क्रूर रिवाजों की तिरपाल तान देते है जिसके अंदर वही दिखता है जो हम देखना चाहतें है।
पार्च्ड तीन महिलाओं की आंतरिक दासता की नही बल्कि देशकाल समाज की एक तरफा दुनिया की उपेक्षा से सूखी तीन नदियों की कहानी है। जिसके रेत में ठंडक नही है बल्कि एक किस्म की जलन है जिस पर नँगे पांव चलते हुए दिल और दिमाग दोनों एक साथ जलते महसूस होते है। जिसके किनारे खड़े वृक्ष शीतल छाया नही देते बल्कि बाँझ होकर भी वो हरे भरे दिखने की अति नाटकीयता और छद्म दुनिया का हिस्सा बने होते है।
पार्च्ड सम्भावना की एक यात्रा है जो स्याह सच की रोशनी में सबके हाथ में एक दर्पण थमा जाती है ताकि बंदिशों के कारोबार में हम मनुष्यता की दासता को देखकर अपनी मनोवृत्ति और कुत्सा की उम्र का सही सही अंदाजा लगा सके।
देह का भूगोल मन से जब बैर पाल लेता है तब किस्सों में खुद का वजूद मुखर होकर रूबरू होता है सखा भाव सह अस्तित्व का मूल है इसकी योगमाया स्त्री चेतना की आंतरिक अनुभूतियों के सबसे बड़े केंद्र के रूप में हमेशा सुषुप्त रहती है।
जब खुद से एक गहरी मुलाक़ात होती है तब आंतरिक जड़ता टूटती है और प्रतिशोध पैदा होता है। गाँव देहात की आत्मीयता के जंगल में स्त्री की उम्रकैद का दस्तावेज़ जब अनुवाद के लिए सिनेमेटिक फॉर्म में सामनें आता है तो हम फिल्म देखते हुएअवाक होकर अपने शब्द सामर्थ्य पर खेद प्रकट कर कुछ मोटे मोटे अनुमान विकसित करते पाए जाते है।
बिन बाप का एक बिगड़ैल बच्चा गोखरू की तरह तलवों में चुभता है और ये चुभन दिल ओ दिमाग में फिल्म के अंत तक बनी रहती है। उम्मीद कुछ कुछ हिस्सों में रेत को मिट्टी बनाने की कोशिश करती है ताकि उसके जरिए दासता की लिपि को पोतकर प्यार का नया शब्दकोश रचा जा सकें।
प्रेम,प्रणय और वेदना की युक्तियां जब रेत में सांरगी बजाती है तब आँखों में आंसू होते है और बदन पर अपवंचना के कसे हुए तारों की छायाप्रति। पार्च्ड में उंगलियों पर हल्दी का लेप लगा है जो देह की चीत्कार से बने भित्तिचित्रों को कुरेद कर पहले जख्म की शक्ल देते है फिर उनका उपचार भी आंसूओं से करते है।
वक्त की शह और स्त्री पुरुष सम्बन्धो की आंतरिक जटिलता पर एक गहरा काजल का टीका लगाकर उसको नजर लगाने की कोशिश इस फिल्म की गई है अब तक काले टीके से नजर उतारने की रवायत रही है।यह स्त्री के मनोविज्ञान का आख्यान भर नही है बल्कि उसकी देह के समाजशास्त्र की अटरिया पर सूखतें उसके मन की परतों का महीन लेप बनाती है जो मन के जख्म भरने की दवा भी है और दुआ भी।
फिल्म बहुत कुछ जलाती है और बहुत कुछ अधजला छोड़ जाती है ताकि हम उसे देख ये तय कर सकें कि सभ्यता का विकास असंगतता के साथ क्यों हुआ है और क्यों किसी के हिस्से की खुशी पर किसी और का पहरा है।
अगर पहरे और बंदिशों में खुशियों का एक तरफा कारोबार हमनें समाज की रीत बना दी है तो इसके नफे नुकसान के लिए गर्दन झुका कर अपने उत्पादक तंत्र की पुनर्समीक्षा करनी होगी क्योंकि इस ग्रह के कुछ कुछ हिस्सों में ये निजता और वैयक्तिक संदर्भ की भ्रूण हत्या करके एक ऐसी दुनिया बना रहा है जहां एक आदमी खुश है तो एक आदमी शोषित कम से कम ईश्वर ने मनुष्य को इसलिए नही बनाया था।
पार्च्ड ईश्वर की मनुष्यता से निराशा की दो घण्टे की कहानी है जो अंत में एक चौराहे पर लाकर खड़ा करती है अब ये चुनना हमें खुद होगा कि हम लेफ्ट जाए कि राईट हां ये फिल्म देखकर आप राइट जा सकते है बशर्ते आप दिशाबोध से मुक्त होकर पहले सही को सही और गलत को गलत कहने की हिम्मत विकसित कर लें,मेरे ख्याल से फिल्म का मकसद भी यही है।

© डॉ.अजित

Friday, September 16, 2016

पिंक

शुजीत सरकार संवेदनशील विषयों पर फिल्म बनाने वाले निर्माता/निर्देशकों में से एक है। 'पिंक' ऐसे ही जॉनर की उनकी फिल्म है। इस फिल्म को निर्देशित किया अनिरुद्ध रॉय ने।
 उदारता,सहिष्णुता और ज्ञान परम्परा में विश्व के गुरु होने का दावा करने वाले भारत देश का समाज यथार्थ में कितने पूर्वाग्रहों और स्टीरियोटाइप्ड सोच के साथ जीता है पिंक यह बताती है।जेंडर सेंसेब्लिटी की ट्रेनिंग हमारी कितनी कमजोर है साथ स्यूडो और बायस्ड एथिक्स और मोराल के साथ हम किस तरह का समाज बना पाए पिंक उसी की तरफ हमारा ध्यान ले जाती है।
पिंक केवल कोई फेमिनिज़्म का नारा नही बनती बल्कि समाज के दोहरे मापदंड और हिप्पोक्रेसी को उजागर करती है।
देश की राजधानी दिल्ली में लड़कियां कितनी सुरक्षित है यह फिल्म का केंद्रीय विषय नही है मगर दिल्ली में वर्किंग और अकेली रहती
लड़कियों को लेकर जो सोशल परसेप्शन है फिल्म उसको जरूर उधेड़ती नजर आती है।
पिंक का मूल दर्शन यह है कि 'नो' (नही) का मतलब नही ही होता है ये एक कम्पलीट लॉजिक है इसे किसी व्याख्या की जरूर नही होती है। यदि किसी महिला ने 'नो' कहा है तो इसे नो ही समझना चाहिए न कि बलात उसके नो को सहमति में बदलने की जुर्रत की जाए चाहे वो गर्ल फ्रेंड हो,सेक्स वर्कर हो या फिर आपकी बीवी ही क्यों न हो।
'पिंक' स्त्री मन की महीन पड़ताल करती है देह को लेकर समाज की दृष्टि और उसकी सहजता को उसकी उपलब्धता मान लेने कि एक स्थापित मनोवृत्ति पर सवाल खड़े करती है। इसके अलावा फिल्म के जरिए देश की राजधानी दिल्ली को एक समाजशास्त्रीय संकट से गुजरते भी देख पातें है और वो समाजशास्त्रीय संकट यह है दिल्ली के आसपास के राज्यों जैसे हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सामंती किसान और रियल एस्टेट कारोबारी जब राजनीति में दखल बनाते है और दिल्ली में दबंगई करते है उसके बाद वो एक अलग लकीर दिल्ली के दिल में खींच देते है एक दिल्ली वो है जो महानगर है जिसे कायदे से खुला सुरक्षित और प्रगतिशील होना चाहिए साथ ही वह देश की राजधानी भी है और दुसरे इस प्रोपर्टी कारोबारियों से राजनीतिज्ञ बने लोगो के बिगड़ैल बेटे है जो ठीक से पढ़े लिखे होने के बावजूद भी वही पितृ सत्तात्मक और सामंती सोच के साथ शहर में अपने कद और पद का जमकर दुरूपयोग करते है इनकी जेंडर सेंसेब्लिटी एकदम से जीरो होती है। दिल्ली के अंदर बसता ऐसा देहात नई और ऐसी प्रगतिशील दिल्ली को स्वीकार नही कर पाता है जो ह्यूमन राइट्स और जेंडर सेंसिबल हो यह अंतर्विरोध महिलाओं को लेकर होने वाले अपराधों का एक बड़ा फैक्टर भी है।
फिल्म एक पार्टी नाईट के किस्से पर आधारित है शुरू में स्लो है मगर कोर्ट की कार्यवाही के सीन फिल्म को गति प्रदान करते है।
जब आप मुश्किल वक्त में होते है जब बुद्धिवादी और परिवक्व प्रेमी भी साथ छोड़ देते है उनके लिए इमेज के लिए पलायन अनिवार्य हो जाता है इसलिए उन्हें प्रेमी नही कायर ही कहा जाता है ये फिल्म देखकर पता चलता है।
मीनल अरोड़ा फिल्म की केंद्रीय पात्र है कहानी उन्ही के इर्द गिर्द घूमती है। कहानी आपको फिल्म देखकर ही पता चलेगी। पिंक लड़कियों के संघर्ष और दोस्ती एक भावुक दस्तावेज़ बन पड़ी है।
अमिताभ बच्चन फिल्म में एक ऐसे वकील की भूमिका में है जो वकालत छोड़ चुका है जिसकी बीमार पत्नी है और जो खुद अस्थमा से लड़ रहा है मगर उसकी चेतना जागती है और वो लिंग भेद और उत्पीड़न के संघर्ष में मीनल का साथ देता है। उनका अभिनय अच्छा है मगर वो तभी अच्छे लगे जब कोर्ट में बहस करते है।
फिल्म में कोर्ट रूप में उनका मेक अप थोड़ा जवान दिखाता है और बाहर उन्हें अपेक्षाकृत ज्यादा बूढ़ा दिखाया गया है जहां उनकी सांसे उखड़ी हुई और बोलते वक्त सांस की धौकनी चलती है फिल्म में उनका पहला डायलॉग उनके अस्थमा की आवाज़ के कारण मै सुन ही नही पाया।
कुछ पात्र अनावश्यक फिल्म में रखे गए है अमिताभ की पत्नी की भूमिका भी इसी श्रेणी की है जिनके एक दो अस्पताल के सीन है बाद में उनकी तस्वीर पर फूल ही चढ़ते दिखाई दिए।
पिंक में पुलिस का रवैया भी देखने लायक है वो कैसे राजनीतिक दबाव में किसी केस को कैसे बदलती है। हालांकि मीनल की पहली शिकायत वाले सीन को दीपक सिंहल(अमिताभ बच्चन) ने बतौर वकील केस में क्यों इस्तेमाल नही किया ये बात मुझे समझ नही आई आपको आए तो जरूर बताइएगा।
इसके अलावा फिल्म के शुरुवाती कुछ सीन्स में न जाने क्यों अमिताभ बच्चन मास्क लगे स्पाई बने रहते है इसका भी कोई लॉजिक समझ नही आता।
पिंक तकनीकी रूप से एक स्लो फिल्म है जो धीरे धीरे गति पकड़ती है। वकील की भूमिका में  पीयूष मिश्रा ने भी कमाल की एक्टिंग की है।
पिंक महिलाओं से अधिक पुरुषों के देखने लायक फिल्म है बशर्ते वो इससे एक मैसेज़ ग्रहण करें और अपनी लैंगिक सम्वेदनशीलता में इजाफा करें।
देख आइए आप भी। पिंक का रंग हमारी आँखों पर पुते पूवाग्रहों के काले चश्में से मिलाता है चश्मा उतरेगा तो पिंक की खूबसूरती उसके अस्तित्व की सम्पूर्णता और सह अस्तित्व के दर्शन को जीने में साफ़ साफ़ नज़र आएगी।
© डॉ.अजित