'एनिमल' के बहाने
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सिनेमा जनसंचार का एक बड़ा ही प्रभावी माध्यम है। 'कबीर सिंह' से एल्फा मेल जिसे कुछ अर्थों में (टोक्सिक मस्कुलेनिटी भी कहा जा सकता है) का एक नेरेटिव शुरू हुआ है उसी श्रेणी में 'एनिमल' को भी रखा जा सकता है। सिनेमा लोगो को शिक्षित करता है इस कथन में आंशिक सत्यता है इसके बरक्स यह भी समझा जा सकता है सिनेमा बनाने वाले समाज की स्टडी करते हैं और समाज की नस को पकड़कर फिर सिनेमा बनाते हैं। कल इस फिल्म को देखते हुए जब मैंने हिंसा के दृश्यों में क्राउड को चरम उत्साह में देखा तो मैंने खुद को अंदर अल्पसंख्यक पाया। इसे इस तरह भी समझा जा सकता है कि बहुसंख्यक व्यक्ति हिंसा को 'एंजॉय' कर रहे थे। समाज के मनोविज्ञान के लिहाज से यह बात सहज नहीं कही जा सकती है।
ऐसा नहीं है कि फिल्मों में हिंसा पहले नहीं दिखायी जाती थी पहले भी मारपीट और खून-खराबा होता था मगर 'एनिमल' में दिखायी गई हिंसा एक अलग स्तर की है। एल्फा मेल के लिए हिंसक होना एक अनिवार्य गुण जैसा बताया गया। फिल्म में पोएट्री को कमजोर पुरुषों की ईजाद कहा गया है। इस तरह से फिल्म एक विभाजन रेखा खींचती है जिसमें एक तरफ नायकत्व और हिंसा से भरा पुरुष वर्ग है जो नेतृत्व करता है हस्तक्षेप को जो अपना अधिकार मानता है और दूसरी तरफ कमजोर पुरुष है जो कविताएं लिखते हैं और जिनका चुनाव स्त्री भी नहीं करती है। फिल्म के मुताबिक स्त्रियों की पहली पसंद एल्फा मेल होता है क्योंकि वह सुरक्षा की गारंटी देता है।
'एनिमल' का कथानक पिता-पुत्र के खराब रिश्तों के इर्द-गिर्द बुना गया है मगर मनोवैज्ञानिक दृष्टि से यदि देखा जाए तो पिता के प्यार से वंचित पुत्र अपने पिता को 'ऑबसेस्ड' हो जाए इसकी संभावनाएं न्यून होती है मगर फिल्म में ऐसा होना दिखाया गया है इसकी वजह फिल्म के निर्माता ही बता सकते हैं। मनोविज्ञान के अनुसार किसी भी रिश्ते में अपवंचना का शिकार होने पर दूरियाँ बढ़ती हैं। निजी तौर पर मुझे 'एनिमल' का विजय मूलत: एक लापरवाह पेरेंटिंग के कारण लगभग साइकोपैथ बना लड़का नजर आया। जिससे सिंपैथी रखी जा सकती है।
फिल्म एकरेखीय है इसलिए फिल्म में सस्पेंस जैसा एलीमेंट नदारद है। जैसे फिल्म का एक मात्र उद्देश्य प्रेम के प्रदर्शन के लिए हिंसा को दिखाना है। फिल्म के प्रमोशन के दौरान बॉबी देओल को जितनी फुटेज दी गई है फिल्म में उनका रोल उतना बड़ा नहीं है बल्कि बहुत छोटा है मगर फिर भी वे अच्छे लगे हैं। उनके हिस्से कोई डायलॉग नहीं आया है उनका काम केवल बूचर का है।
पशुता का एक अर्थ विवेकहीनता भी होता है उस दृष्टि से फिल्म में विवेकहीनता नायक के किरदार में दिखती भी है जो अपनी पिता की उपेक्षा से आहत होकर एक ऐसे हिंसक व्यक्ति में बदल जाता है जिसके लिए कुछ भी त्याज्य नहीं है। एक बात और। किसी भी जागरूक दर्शक को फिल्म में स्टेट/सिस्टम को अनुपस्थित देखकर निराशा होती है निर्बाध हिंसा करता एक व्यक्ति है और पुलिस/सिस्टम नाम की कोई चीज उस पूरे कथानक में नदारद है। देश-विदेश मय हथियार आना-जाना फिल्म में ऐसा है जैसे बगल के कस्बे में आदमी जाता है कोई वीजा सिस्टम का जैसे अस्तित्व ही न हो। फिल्म में इतना विवेकहीन होना मेरे जैसे दर्शक के लिए थोड़ा मुश्किल है।
फिल्म में स्त्री किरदार 'कबीर सिंह' के बरक्स मजबूत है वह उतनी कमजोर नहीं है। यह एक अच्छी बात है। फिल्म का नायक भले ही बाहर की दुनिया के लिए हिंसक है मगर अपनी पत्नि को वह सुनता है प्रेम के मसले में वह थोड़ा कोमल पड़ता दिखता है हालांकि उसका अपने किरदार को लेकर कनविक्सन इतना मजबूत है कि उससे वह टस से मस फिर भी नहीं होता है।
साराश: एनिमल देखकर अपने अंदर बैठे एक एनिमल से जरूर मुलाक़ात होती है मगर वह मुलाक़ात उस एनिमल को मारती नहीं है बल्कि उसे खुराक देती है। मेरे जैसे नॉन एल्फा मेल की तो वह मुलाक़ात भी नहीं होती है क्योंकि अपने अंदर एनिमल को पालने की ताकत मेरे जैसे कमजोर पुरुष के पास नहीं है। मजबूत दिल वालों को फिल्म जरूर पसंद आएगी और आ रही है यहाँ पर स्त्री-पुरुष का भेद खत्म हो जाता है क्योंकि सिनेमा हाल में रक्तरंजना पर दोनों स्त्री-पुरुष दोनों किस्म के दर्शक उत्साहित और उल्लासित नजर आते हैं। उन्हें देखकर एकबारगी एल्फा मेल वाली कान्सैप्ट पर यकीन आने लगा है मगर फिर मेरे जैसा दर्शक फिल्म एकाध रोमांटिक सीन या गाने में अपने हिस्से की कविता महसूस कर अपने कमजोरियों के साथ खुश होकर फिल्म देखकर बाहर निकल आता है।
©डॉ. अजित