हैदर
रिश्तों की सच्चाई और कश्मीर वादी की स्याह हकीकत की महीन पड़ताल करती
फिल्म है। फिल्म में दो यात्राएं समानांतर रूप से चलती हैं। एक कश्मीर में
पूछताछ के नाम पर उठाए गए लोगो के परिवार की दारुण कथा है, दूसरी रिश्तों
की महीन बुनावट में उलझे प्यार की पैमाइश की कोशिश फिल्म करती दिखती है।
फिल्म की गति थोड़ी धीमी है मगर एक बार जुड़ने के बाद आप फिल्म के सिरे जोड़
पाते हैं। विशाल भारद्वाज की फिल्मों में स्त्री किरदार को काफी रहस्यमयी
ढंग से विकसित किया जाता है। हैदर में भी तब्बु के मिजाज़ को पढ़ने के लिए मन
को जीने से नीचे तहखाने में उतरना पड़ता है।
फिल्म में मां-बेटे और भाभी-देवर के रिश्तों को काफी अलग एंगल से दिखाया गया है। हैदर और उसकी मां यानि तब्बु के रिश्तें में एक अलग किस्म की टोन भी है, जो कभी-कभी विस्मय से भरती है। फिल्म उम्मीद, बेरुखी, इश्क और धोखे के जरिए कश्मीर की अवाम के एक जायज मसले पर बात करती नजर आती है। केके मेनन गजब के एक्टर हैं, तब्बु के देवर खुर्रम मियाँ के रूप में उनका काम पसंद आया। श्रद्धा कपूर भी फिल्म में काफी नेचुरल लगी है, वो काफी आगे तक जाएंगी। शाहिद कपूर फिल्म में एक अपने रोल का एक फ्लेवर मेंटन नही रख पाते हैं, कहीं बहुत भारी हो जाते तो कहीं थोड़े कमजोर। वे फिल्म में श्रीनगर के लाल चौक पर कश्मीर की हालात पर एक पॉलिटिकल स्टायर करने के सीन में बेहद गजब की परफोर्मेंस देते दिखे। ओवरआल ठीक ही है। फिल्म में इरफ़ान खान और नरेंद्र झा का रोल काफी छोटा है मगर इरफ़ान खान तो इरफ़ान खान हैं, वो गागर में सागर भर देते हैं। नरेंद्र झा का काम भी बहुत क्लासिक किस्म का है।
फिल्म के गीतों में गुलजार ने कश्मीर की खुशबू भर दी है। उनमें आंचलिकता का पुट है। फिल्म में फैज़ की शायरी फिल्म को असल मुद्दे से जोड़े रखती है। फिल्म का संदेश है इंतकाम से आजादी लिए बिना कोई भी आजादी अर्थहीन है। यह एक काफी गहरी दार्शनिक बात है, जो हमें अहिंसा की तरफ ले जाती है।फिल्म की कमजोरी स्लो होना है, जिन दर्शकों के पास सब्र नहीं है उन्हें फिल्म नहीं देखनी चाहिए। हैदर को महसूस करने के लिए दिमाग का खुला और दिल का जला होना जरूरी है। मौज मस्ती के लिए कोई और फिल्म देखी जा सकती है। विशाल भारद्वाज ने एक संवेदनशील मसले पर एक काफी प्रासंगिक फिल्म बनाई है इसके लिए वो बधाई के पात्र हैं।
-:- डॉ अजीत
मैं कोई समीक्षक नहीं एक आम दर्शक हूं।
फिल्म में मां-बेटे और भाभी-देवर के रिश्तों को काफी अलग एंगल से दिखाया गया है। हैदर और उसकी मां यानि तब्बु के रिश्तें में एक अलग किस्म की टोन भी है, जो कभी-कभी विस्मय से भरती है। फिल्म उम्मीद, बेरुखी, इश्क और धोखे के जरिए कश्मीर की अवाम के एक जायज मसले पर बात करती नजर आती है। केके मेनन गजब के एक्टर हैं, तब्बु के देवर खुर्रम मियाँ के रूप में उनका काम पसंद आया। श्रद्धा कपूर भी फिल्म में काफी नेचुरल लगी है, वो काफी आगे तक जाएंगी। शाहिद कपूर फिल्म में एक अपने रोल का एक फ्लेवर मेंटन नही रख पाते हैं, कहीं बहुत भारी हो जाते तो कहीं थोड़े कमजोर। वे फिल्म में श्रीनगर के लाल चौक पर कश्मीर की हालात पर एक पॉलिटिकल स्टायर करने के सीन में बेहद गजब की परफोर्मेंस देते दिखे। ओवरआल ठीक ही है। फिल्म में इरफ़ान खान और नरेंद्र झा का रोल काफी छोटा है मगर इरफ़ान खान तो इरफ़ान खान हैं, वो गागर में सागर भर देते हैं। नरेंद्र झा का काम भी बहुत क्लासिक किस्म का है।
फिल्म के गीतों में गुलजार ने कश्मीर की खुशबू भर दी है। उनमें आंचलिकता का पुट है। फिल्म में फैज़ की शायरी फिल्म को असल मुद्दे से जोड़े रखती है। फिल्म का संदेश है इंतकाम से आजादी लिए बिना कोई भी आजादी अर्थहीन है। यह एक काफी गहरी दार्शनिक बात है, जो हमें अहिंसा की तरफ ले जाती है।फिल्म की कमजोरी स्लो होना है, जिन दर्शकों के पास सब्र नहीं है उन्हें फिल्म नहीं देखनी चाहिए। हैदर को महसूस करने के लिए दिमाग का खुला और दिल का जला होना जरूरी है। मौज मस्ती के लिए कोई और फिल्म देखी जा सकती है। विशाल भारद्वाज ने एक संवेदनशील मसले पर एक काफी प्रासंगिक फिल्म बनाई है इसके लिए वो बधाई के पात्र हैं।
-:- डॉ अजीत
मैं कोई समीक्षक नहीं एक आम दर्शक हूं।
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ReplyDeleteYour all posts are very good and aap biti very right
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