Thursday, June 11, 2015

दिल धड़कनें दो

'दिल धड़कनें दो'
: एक दर्शकीय टिप्पणी

दिल तो वैसे चौबीसों घंटे धड़कता ही रहता है मगर निर्देशक जोया अख़्तर की यह फ़िल्म देखकर दिल की धड़कनों को गिनने का हुनर मिलता है बशर्ते आप मुहब्बत और आजादी की बेचैनियों को जाननें के सच्चे तलबगार हो।
यह फ़िल्म अभिजात्य/कुलीन वर्ग के लोगों की जिन्दगी में पसरें खामोश सन्नाटे और रिश्तों के बुनावट की महीन पड़ताल करती है फ़िल्म का मूल कथानक मानवीय सम्बन्धों की जटिलता और उसमें सम्वाद स्नेह की आवश्यकता को केंद्र में रखकर बुना गया है। फ़िल्म हमें बताती है कि जब दिल से हम कोई फैसला कर लेते है तो दिमाग उसको पूरा करनें की तरकीब निकाल ही लेता है।
एक हाई प्रोफाइल बिजनेस मैन की जिंदगी बाहर से जितनी हसीन और रंगीन नजर आती है अंदर से वो कितने स्तर के द्वन्द और शून्यता से भरी हो सकती है फ़िल्म को देखकर पता चलता है। पति-पत्नी,भाई-बहन, दोस्त-प्रेमी जैसे रिश्तों अपने आदर्श रूप में कैसा होना चाहिए फ़िल्म इसी की स्थापना करती नजर आती है।
प्यार मनुष्य की बुनियादी जरूरत है और इस प्यार को जीने या महसूस करने के लिए एक कान अपने दिल के हवाले करना पड़ता है। रिश्तों में नयापन बचाकर रखनें के लिए सम्वाद कितना अनिवार्य सूत्र होता है यह फ़िल्म देखते हुए अहसास होता है।
दिल धड़कने दो मूलतः मनुष्य के स्वतन्त्र अस्तित्व को जीने अनुभूत करनें तथा अपने सच को स्वीकर कर उसके अनुरूप जीने का कौशल सिखाने वाली फ़िल्म है। जोया अख़्तर ने फ़िल्म में क्रूज़ की यात्रा को कहानी बढ़ाने के लिए एक प्रतीक के रूप में बेहतर चुना है क्योंकि इस फ़िल्म मानवीय सम्बंधों में प्रेम के मूल्य और वैयक्तिक स्वतन्त्रता की यात्रा को देखनें समझनें का नजरिया देती है।
फ़िल्म कही पर कभी अनकहे गाम्भीर्यता का शिकार नही होती है किरदारों के जिंदगी में पसरें तनाव के बीच हास्य के हलके फुलके पल भी गूंथे हुए है इसलिए फ़िल्म समानांतर रूप से हंसाती भी है और आपको किरदारों को समझनें का मौका भी देती है।
सभी कलाकारों का अभिनय बेहद बढ़िया है अनुष्का शर्मा और फरहान अख़्तर की भूमिका अपेक्षाकृत छोटी है मगर दोनों का काम दमदार है। रणवीर सिंह और प्रियंका चोपड़ा फ़िल्म के केंद्र में है। अनिल कपूर का नया आउटलुक प्रभावित करता है अभिनेता तो वो मंझे हुए है इसमें दो राय नही है।
रणवीर की मम्मी की भूमिका में शैफाली शाह आउटस्टैंडिंग लगी है। फ़िल्म में शैफाली मुझे व्यक्तिगत रूप से काफी खूबसूरत और प्रभावी नजर आई।
और अंत में प्लूटो का जिक्र जरूर करूँगा उसके बिना फ़िल्म अधूरी वो फ़िल्म का नैरेटर ही नही बल्कि मानव व्यवहार की जटिलता की व्याख्या करनें वाला दार्शनिक भी है। उसका नाम फ़िल्म के लिहाज़ से एकदम उपयुक्त है। यदि आप चाहतें है कि अपने दिल को यूं ही बेतरतीब धड़कनें दिया जाए और उसकी बेचैनियों की गिरह को थोड़ा ढीला करना चाहतें है तो यह फ़िल्म जरूर देखिए शायद अपनी धड़कनों का सुगम संगीत आप भी सुन सकें।

© डॉ.अजित