Tuesday, December 1, 2015

तमाशा : एक मनोवैज्ञानिक पक्ष

तमाशा:
'कुछ एक्स्ट्रा शॉट्स' (एक मन ओ' वैज्ञानिक नजर से)

'तमाशा'फ़िल्म के कुछ सीन क्लासिक बन पड़े है इसे डायरेक्टर इम्तियाज़ अली की कलन्दरी ही कहा जाएगा कि उन्होंने फ़िल्म के एक्टर्स से बेहतरीन काम लिया है। शानदार एक्टिंग के दीपिका,रणबीर और पीयूष मिश्रा बधाई के पात्र है।
एक दर्शक की दृष्टि से कुछ सीन पर  मनोविश्लेषणात्मक दृष्टिकोण से कुछ कहना चाहता हूँ। कोरसिका टूर के दौरान दीपिका और रणवीर की मुलाक़ात होती है साथ खाते पीते घुमते है एक सीन में जंगल में बहती नदी तक पहूंचते है रणवीर औंधे मुंह लेट कर जानवरों की माफिक नदी से पानी पीते है ठीक ऐसा ही दीपिका भी करती है ये सीन अर्जित व्यवहार की मुक्ति और नैसर्गिक होने के सुख की लाजवाब अभिव्यक्ति है पानी के अंदर मुंह डालकर बुलबुले निकालना चित्त की बेफिक्र मनोदशा को बताती है जहां अर्जित व्यवहार की तार्किकता को छोड़कर अपने मन की बेवजह बातों को करने का सुख दिखता है जीवन दरअसल ऐसे ही जीवन्त लम्हों में सांस लेता है अन्यथा तो हम सब लोकाचार से दबा जीवन ही जीतें हैं।
एक दुसरे सीन जब दीपिका और रणवीर अपनी दैहिक सीमाओं का जिक्र कर 'टच'को डिफाइन करते है और मर्यादाओं के बीच में सांस लेती शुद्ध सम्वेदना को रेखांकित करते है वहां विश्वास और आंतरिक शुचिता सर्वोपरी और मुखर दिखाई देती है वहां एक दूसरे के गले लगना और आश्वस्ति से आँखें मूँद लेना मन के विस्तार और पारस्परिक स्नेह और विश्वास की यात्रा तय करता है वहां उन लम्हों को जीने की बैचेनी दोनों के अंदर साफ़ देखी जा सकती है। जब मन का सम्वाद सीधा मन से होता है तब वहां देह गौण हो जाती है और स्पर्श एक दुसरे की रूह पर मरहम लगाती है तथा लम्बी उड़ान के लिए हमारे हौसलें की गाल पर एक चिकोटी काट लेती है ताकि होश बरकरार रहें।
एक दुसरे सीन में जब दीपिका को अचानक भारत लौटनें होता है वो रणवीर से बिन मिलें लौटने का फैसला करती है मगर होटल की सीढ़ियों से वापिस रणवीर के रूम में जाती है फिर कभी न मिलनें की बात करके अपने साथ सुखद स्मृतियों का बोझ लेकर कार में बैठती है उस  समय उसकी आँखें ज़बां हो जाती है गीली आँखों और चेहरें के भाव से विलग होने की पीड़ा को इतनी ख़ूबसूरती से दीपिका ने बयां किया है कि वहां मौन अभिनय मुखर होकर सामने आता है अनुराग की दहलीज़ पर जब बिछड़न की सवारी आ खड़ी होती है तब अहसासों के छूटने और टूटने का एक बढ़िया कोलाज़ दीपिका के उस कार के सीन ने बनाया है।
भारत में लौटकर दीपिका का अनमना मन देखना निसन्देह सुखप्रद लगता है क्योंकि बतौर दर्शक हम चाहतें है कि वो रणबीर को कुछ इसी तरह से याद करें उसकी बैचेनियों में हमारे खोए किस्सों का आलाप भी शामिल हो जाता है।
दिल्ली एअरपोर्ट उतर कर दीपिका का चलनें अंदाज़ साफ़ बताता है कि उसके पास रणवीर को तलाश करने का आत्मविश्वास था। 'सोशल' पर जब वो रणबीर को देखती है और उससे मिलनें जाती है घुमावदार सीढ़ियों पर दो बार उतरना फिर वापिस चढ़ना ये एक क्लासिक शॉट उन पर फिल्माया गया है यह मन के द्वन्द और उत्साह की एक खूबसूरत प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति दिखाई देती है जहां दिल हां और ना की लड़ाई से गुजर रहा होता है क्योंकि रणबीर से मिलना जहां एक तरफ वादाखिलाफी है वही ये मुलाक़ात अनुराग की चासनी में डूबी एक रूह की जरूरत भी है।
और मैं उस क्लासिक सीन का जिक्र जरूर करूँगा जो इस फ़िल्म की सबसे बड़ी यूएसपी मुझे लगा।
इस सीन में दीपिका रणवीर से माफी मांगती है और अपनी अपेक्षा टूटने की बात को अप्रासंगिक बताती है वो रणवीर को एक प्रेमी के रूप में नही एक अस्तित्व के रूप में स्वीकार करती है उसे लगता है किसी भी अस्तित्व के 'काम्प्लेक्स' को टच करना उसे अस्त व्यस्त कर सकता है। यहां वो प्रेम का अनकंडीशनल होना भी समझती है प्रेम कभी इमेज़ से नही किया जा सकता है बल्कि प्रेम आपकी ग्राह्यता का विस्तार कर देता है मगर इस सीन में रणबीर के व्यक्तित्व की जटिलता का भी बड़ा खूबसूरत चित्रण किया गया है उसकी तात्कालिक 'स्प्लिट पर्सनेलिटी' और दीपिका के प्यार की जुम्बिश दोनों के अंतरद्वन्द का बेहद महीन चित्रण किया गया है। दोनों में मन में अथाह प्रेम भी है और गुस्सा भी दोनों ही आत्मदोष से पीड़ित है साथ रणवीर के मन दीपिका की अपेक्षाओं पर खरा न उतरने की खीझ भी शामिल है। दीपिका यहाँ ईगो के विस्तार का प्रतीक बनकर उभरी है व्यापक अर्थो में रणबीर का ही सुपर ईगो है दीपिका चाहती है कि अपने प्रेम की पुकार से वो रणवीर के मन पर इड (id) की पकड़ को थोड़ा ढीला कर सके। उसके पास अधिकार है करुणा है और विनय युक्त प्रेम यहां प्रेम एक रिहेबिलेसन का एक प्रमुख टूल बन जाता है वो माफी मांग रणवीर के इगो को सम्भालती है साथ उसे अपनी और खींच कर लगे लगा उसे अंतर्द्वन्द से मुक्त करने की एक ईमानदार कोशिश करती है उसकी आँखों में आँसू है मगर दिल में एक आत्मविश्वास भी है कि उसकी उपस्थिति रणबीर के बिखरे वजूद को इकट्ठा कर देगी। रणबीर के अंतर्द्वन्द कहीं अधिक गहरे है वो एक बार समर्पित होता तो दुसरे पल उसकी गिल्ट और ईगो विद्रोह करती है। मेज पर गाल टिका एक दुसरे को विपरीत कोण से देखना दो चेतनाओं के विस्मय का खूबसूरत चित्रण दिखता है। इसी सीन के विस्तार में रणबीर के जाने पर दीपिका उसको खोजती बिरहन सी जब गलियों में भटकती है और अंत में उसे देख स्ट्रीट में घुटनों के बल बैठ जाती है यह सीन अंतिम प्रयास या प्रार्थना के पलों में अंतिम स्वर के शामिल होने जैसा है जहां छूटते अतीत हो पकड़ने की जिजीविषा और प्रेम की गहराई में ईगोलेस कन्डीशन की उपस्थिति साफ़ दिखाई देती है वहां ऐसा लगता है कि  अनुराग चिंता और पीड़ा एक साथ घुटने के बल बैठ गई है मगर यहाँ यह बेबसी पराजय की नही बल्कि प्रेम के विस्तार की प्रतीक लगती है।
और अंत में कहानी सुनाने वाले बाबा (पीयूष मिश्रा) से जब रणबीर बड़ा होकर मिलता है तो उसका 'एनलाइटमेंट' होता है बाबा की एक झिड़क उसके मन की जड़ता को तोड़ती है कि बाहर क्या जवाब ढूंढ रहा है सब कुछ तेरे अंदर ही है सवाल भी और जवाब भी। इम्तियाज़ अली ने बाबा का किरदार बड़ा ही अबस्ट्रेक्ट गढ़ा है दरअसल बाबा हमारा ही इनर सेल्फ है उससे जब एक बढ़िया डायलॉग स्थापित हो जाता है तब समस्त शंकाओं के उत्तर हमें खुद ब खुद मिल जातें है फ़िल्म में कहानी बाहर की दुनिया का प्रतीक है और जिसका तमाशा खुद के अंदर चलता है। प्रेम के जरिए ये फ़िल्म खुद के अंदर चल रहे तमाशे को देखनें का एक बढ़िया अवसर हमें उपलब्ध कराती है।

(कुछ-कुछ सीन का जिक्र करके फ़िल्म की कुछ कहानी शेयर करने का दोषी हूँ उसके लिए अग्रिम माफी मगर इन सीन की छाप मेरे दिल ओ जेहन पर इतनी गहरी थी कि खुद को लिखने से रोक न सका। मैंने रणबीर और दीपिका का नाम इसलिए भी लिखा है क्योंकि दोनों असल जिंदगी में प्रेमी रह चुकें है बाकि दुनिया यहां उन्हें वेद और तारा ही समझें किरदार बदलतें है कहानी हमेशा एक ही रहती है। शुक्रिया !)

© डॉ. अजित