Monday, March 23, 2015

NH 10

एन एच 10

:एक सफर जो खत्म नही होता

हाई वे बड़े शहरों को आपस में जोड़तें है ऐसा कहते है सब मगर ये फ़िल्म हाई वे और महानगरों के बीच बसे देहात के बीहड़ और उसके टूटे बिखरे हुए समाजशास्त्रीय सच की कहानी हैं। टेबलॉयड और गूगल के सहारे हिन्दुस्तान को जानने के एक महानगरीय सांस्थानिक सच का बेहद अस्त व्यस्त कर देने वाला दस्तावेज है यह फ़िल्म है।
फ़िल्म रात में शुरू होती है और रात में ही खत्म। यहां रात महज़ दिन के छिपने का प्रतीक नही है बल्कि यहाँ रात उस कड़वे यथार्थ का प्रतीक है जो हमारे आसपास बिखरा पड़ा है। वैसे तो फ़िल्म ऑनर किलिंग की घटना से गति पकड़ती है परन्तु इसके बाद की कहानी में जो बदलाव आतें है वो दिल की धड़कनों को बढ़ा देते है। इंटरवल तक फ़िल्म आपके द्वन्द और तनाव को उस शिखर तक ले जाती है कि आप कभी नाख़ून कुतर कर तो कभी सीट पर पसर खुद को सामान्य करने की कवायद करने लगते है।
फ़िल्म महानगरों के अवैध सन्तान के रूप में जीते देहात के कड़वे सामाजिक यथार्थ की कहानी है और इसका कथानक इतना कसा हुआ है कि आप थोड़ी ही देर में फ़िल्म का हिस्सा बन मीरा और अर्जुन के लिए प्रार्थना करना शुरू कर देतें हैं।
ऑनर किलिंग जितनी समाजशास्त्रीय समस्या है उतनी ही मनोवैज्ञानिक भी। फ़िल्म में कुछ दृश्य विचलित करने वाले है। लॉ एंड आर्डर के बीच बेख़ौफ़ सांस लेते एक कड़वें सामाजिक सच को फ़िल्म बेहद प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत करती हैं।
दिल्ली गुड़गाँव की महानगरीय जीवनशैली जीनें वाला एक युगल जब इस बर्बर दुनिया से रूबरू होता है तब उसको यथार्थ और कल्पना के अंतर का पता चलता है। मीरा का बर्थ डे सेलीब्रेट करने के लिए एक प्राइवेट विला को बुक कर अर्जुन दिल्ली के आउटर एरिया में क्या निकलता है उसकी दुनिया ही बदल जाती है एक बाईपास उन दोनों की दुनिया को उस रास्ते पर खड़ा कर देता है जहां जीने के लिए भागना और भागने के लिए जीना जरूरी हो जाता है।
यह कहानी महज हरियाणा के गाँव से ही नही जुडी है बल्कि इस कहानी में खाप पंचायत के सिस्टम में जीते उस हर गाँव की कहानी है जहां जाति और गोत्र सबसे बड़ा सामाजिक सच हैं। जहां प्रेम विवाह आज भी गुनाह है इसलिए भौगोलिक रूप से ये दिल्ली से सटे हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के देहात की कहानी कहा जाए तो अतियुक्ति न होगी।
फ़िल्म बताती है कि ऑनर किलिंग समाजशास्त्रीय और मनोवैज्ञानिक रूप से इतना जटिल मुद्दा है कि इसमें स्त्री के स्वाभाविक वात्सल्य की भी हत्या हो जाती है फ़िल्म में दीप्ति नवल को देख मुझे गाँव की चौधरन याद आई जो इस मसलें पर पुरुषों के साथ ही खड़ी होती है।
एन एच 10 एक त्रासद सच की कथा है इसमें एक शहरी युगल उस परिवेश से रूबरू होने की कहानी है जहां प्रतिष्ठा के नाम पर लॉ एंड आर्डर की कोई हैसियत नही बच जाती हैं। फ़िल्म एक दृश्य में पुलिस अधिकारी मीरा (अनुष्का शर्मा) को जाति व्यवस्था का पाठ पढ़ाता है मनु और अम्बेडकर का उदाहरण देता है साथ ही यह भी पता चलता है कि जाति का मनोवैज्ञानिक सच वर्दी के पीछे भी वैसे ही ज़िंदा रहता है जैसे गाँव के अंदर ये एक गर्व से भरी व्यवस्था जीवित है।
अनुष्का की एक्टिंग आउटस्टैंडिंग है। वो फ़िल्म की प्रोड्यूसर भी है इस फ़िल्म को बनाकर उन्होंने एक बढ़िया काम किया है उद्देश्य भले ही व्यावसायिक हो मगर इसके पीछे एक सोशल कन्सर्न भी जुड़ा नजर आता है।
फ़िल्म के सम्वाद में देशज और भदेस पुट है जो फ़िल्म की सम्प्रेषणशीलता को बढ़ा देती है। सभी का अभिनय काबिल ए तारीफ़ है। फ़िल्म में देहात के मनोरंजन का साधन रहें सांग का भी एक दृश्य है जो बेहद जीवन्त किस्म का है जिससे पता चलता है कि फ़िल्म की पटकथा पर पर्याप्त शोध किया गया है।
एक ज्वलंत विषय पर बनाई गई एक बेहतरीन फ़िल्म है एन एच 10 आप एक बार इस हाई वे पर जब रात को सफर पर निकलतें है सुबह होने के इन्तजार में पलक झपकना भूल जातें है फ़िल्म सवाल खड़े करती है जिसके जवाब हमें खुद तय करने होंगे जिसके लिए यह सफर बेहद जरूरी हो जाता है।

© डॉ.अजीत

(लिखना और भी व्यापक सन्दर्भों के साथ चाहता था मगर मोबाइल से टाइप करने की अपनी सीमाएं है उम्मीद करता हूँ आप तक बात सही पहूंच गई होगी ध्यान रहें मैं कोई फ़िल्म समीक्षक नही हूँ बस सिनेमा का एक ईमानदार दर्शक भर हूँ)


Sunday, March 1, 2015

हैदर

हैदर रिश्तों की सच्चाई और कश्मीर वादी की स्याह हकीकत की महीन पड़ताल करती फिल्म है। फिल्म में दो यात्राएं समानांतर रूप से चलती हैं। एक कश्मीर में पूछताछ के नाम पर उठाए गए लोगो के परिवार की दारुण कथा है, दूसरी रिश्तों की महीन बुनावट में उलझे प्यार की पैमाइश की कोशिश फिल्म करती दिखती है। फिल्म की गति थोड़ी धीमी है मगर एक बार जुड़ने के बाद आप फिल्म के सिरे जोड़ पाते हैं। विशाल भारद्वाज की फिल्मों में स्त्री किरदार को काफी रहस्यमयी ढंग से विकसित किया जाता है। हैदर में भी तब्बु के मिजाज़ को पढ़ने के लिए मन को जीने से नीचे तहखाने में उतरना पड़ता है।
फिल्म में मां-बेटे और भाभी-देवर के रिश्तों को काफी अलग एंगल से दिखाया गया है। हैदर और उसकी मां यानि तब्बु के रिश्तें में एक अलग किस्म की टोन भी है, जो कभी-कभी विस्मय से भरती है। फिल्म उम्मीद, बेरुखी, इश्क और धोखे के जरिए कश्मीर की अवाम के एक जायज मसले पर बात करती नजर आती है। केके मेनन गजब के एक्टर हैं, तब्बु के देवर खुर्रम मियाँ के रूप में उनका काम पसंद आया। श्रद्धा कपूर भी फिल्म में काफी नेचुरल लगी है, वो काफी आगे तक जाएंगी। शाहिद कपूर फिल्म में एक अपने रोल का एक फ्लेवर मेंटन नही रख पाते हैं, कहीं बहुत भारी हो जाते तो कहीं थोड़े कमजोर। वे फिल्म में श्रीनगर के लाल चौक पर कश्मीर की हालात पर एक पॉलिटिकल स्टायर करने के सीन में बेहद गजब की परफोर्मेंस देते दिखे। ओवरआल ठीक ही है। फिल्म में इरफ़ान खान और नरेंद्र झा का रोल काफी छोटा है मगर इरफ़ान खान तो इरफ़ान खान हैं, वो गागर में सागर भर देते हैं। नरेंद्र झा का काम भी बहुत क्लासिक किस्म का है।

फिल्म के गीतों में गुलजार ने कश्मीर की खुशबू भर दी है। उनमें आंचलिकता का पुट है। फिल्म में फैज़ की शायरी फिल्म को असल मुद्दे से जोड़े रखती है। फिल्म का संदेश है इंतकाम से आजादी लिए बिना कोई भी आजादी अर्थहीन है। यह एक काफी गहरी दार्शनिक बात है, जो हमें अहिंसा की तरफ ले जाती है।फिल्म की कमजोरी स्लो होना है, जिन दर्शकों के पास सब्र नहीं है उन्हें फिल्म नहीं देखनी चाहिए। हैदर को महसूस करने के लिए दिमाग का खुला और दिल का जला होना जरूरी है। मौज मस्ती के लिए कोई और फिल्म देखी जा सकती है। विशाल भारद्वाज ने एक संवेदनशील मसले पर एक काफी प्रासंगिक फिल्म बनाई है इसके लिए वो बधाई के पात्र हैं।

-:- डॉ अजीत
मैं कोई समीक्षक नहीं एक आम दर्शक हूं।

‘बेबी’

‘नीरज पाण्डेय’ को बतौर निर्देशक मैं उन निर्देशकों में शामिल करता हूँ जिनकी व्यावसायिक फ़िल्में कभी निराश नही करती है. ‘बेबी’ देश की एक सीक्रेट सुरक्षा एजेंसी के काम करने और देशभक्ति के जुनून की कहानी है. इसकी कहानी की सबसे बड़ी खूबसूरती यही है कि ये काफी कसी हुई कहानी है इसमें आप पल भर के लिए भी फिल्म से बाहर नही निकल पातें हैं.फिल्म के दौरान खुद मैनें अपने व्हाट्स एप्प के मैसेज इग्नोर किए. बेबी देश के लिए जीने का जुनून रखने वाले अफसरों के काम करने की कहानी है. फिल्म के कथानक का केंद्र भले ही आतंकवाद हो परन्तु फिल्म में सामानांतर रूप से एक महीन संवेदना भी यात्रा करती है जिसमे चाहे सुरक्षा से जुड़े अफसर अजय (अक्षय कुमार) का अपनी पत्नी को ये न बता पाना कि वो काम क्या करता है या फिर खुद की बेटी के जन्मदिन पर भी सीक्रेट मिशन के चलते न आ पाना हो. फिल्म में गाने के रूप में एक छोटा सा अंतरा है मगर वो भी बेहद भावपूर्ण है वो पलके नम कर देता है. सारी फिल्म आतंकियों को पकड़ने और उनके मिशन को निष्फल करने की कहानी हैं मगर इतनी खूबसूरती से फिल्म को बुना गया है कि आप फिल्म देखते बेहद रोमांचित रहते है.फिल्म में अजय की पत्नी का फोन पर फोन रखने से पहले अधीर हो यह कहना कि ‘बस मरना मत’ अपने आप में बेहद मारक और भावपूर्ण डायलॉग है जो एक पत्नी की फ़िक्र को बताता है. बेबी में डैनी चीफ कमांडिंग अफसर की भूमिका में बेहद जंचे हैं उनकी बॉडी लैंग्वेज एक शार्प अफसर जैसी है. फिल्म का एक महत्वपूर्ण मैसेज यह भी है कि हम हिन्दू या मुसलमान होने से पहले इंडियन हैं.
फिल्म में सऊदी अरब में रात में रेत पर फिल्माएं गए कुछ सीन वास्तव में बहुत बेहतरीन हैं.बेबी के जरिये हम सीक्रेट मिशन पर काम कर रहे अफसरों की कार्यशैली को नजदीक से जान पाते हैं उनके हौसले जूनून और जोखिम को देखकर आपको फख्र होता है कि कुछ अफसर वास्तव में देश के लिए इस तरह से जीते है.
फिल्म में सभी एक्टर्स ने दमदार काम किया है मुझे फिल्म के कास्टिंग डायरेक्टर का काम विशेष पसंद आया एक एक किरदार के लिए एकदम परफेक्ट चेहरे लिए गए फिल्म में पाकिस्तानी मौलाना का रोल करने वाले का तकरीर और टीवी पर भारत के खिलाफ बोलना एकदम से जीवंत लगता है.अनुपम खेर के जरिए फिल्म में थोड़ा सा चुस्त हास्य भी है. दक्षिण के अभिनेता राणा भी बेहद जबरदस्त लगे है. इंटरवल के बाद थोड़ी सी फिल्म में अतिशय नाटकीयता है लेकिन वो कहानी के साथ घुल मिल जाती है. जब आप फिल्म का एक हिस्सा बन जाते है तब फिल्म का इंटरवल जरूर ऐसा लगता है कि ये बहुत जल्दी हो गया है.
कुल मिलकर मेरे हिसाब से बेबी एक पैसा वसुल फिल्म है जिसको मेरी सलाह से देखा जा सकता है और शायद आपको निराशा हाथ न लगे.

डॉ. अजित
[ मैं  कोई फिल्म समीक्षक नहीं हूँ, क्योंकि समीक्षा करनी मुझे आती नहीं. मै तो सिनेमा का एक ईमानदार दर्शक भर हूँ. ]

‘हाईवे’

संडे मे दोपहर तक एक अकादमिक काम किया उसके बाद फिर अचानक से फिल्म देखने का मूड बन गया समानांतर रुप से दो मित्रो को साथ चलने का निमंत्रण एसएमएस से भेजा लेकिन संयोग से दोनों की ही अपनी-अपनी वाजिब मजबूरी थी उसके बाद अपने एक और दूसरे मित्र डॉ अनिल सैनी को उनके घर के बाहर पहूंच कर सूचना दी कि फिल्म देखने चलना है ताकि वहाँ ना की गुंजाईश न बचे वो बेचारे दोपहर की खाने के बाद की नींद के आगोश में थे लेकिन मै साधिकार आग्रह को ठुकरा न सके उन्होने पन्द्रह मिनट का समय लिया और तैयार होकर मेरे साथ हो लिए हरिद्वार में अधिकांश फिल्में हम साथ ही देखते है।
बहरहाल, ‘हाईवे’ दो भिन्न परिस्थितियों से निकल कर जाए लोगो का एक दिलचस्प सफर की कहानी है उनमे से एक पेशेवर अपराधी है और दूसरी अमीर बाप की बेटी। दो अलग-अलग पृष्टभूमि के लोगो का क्या बेहतरीन रिश्ता विकसित हो जाता है यही फिल्म का मूल कथानक है यह परिस्थिति से सफर पर निकले दो लोगो की कहानी है जिनका जितना सफर उनके साथ चलता है उतना ही उनके अतीत का सफर वो करके आए होते है फिल्म के नायक रणदीप हुड्डा( महावीर भाटी) एनसीआर के आसपास के गांव के एक गुर्जर युवा है जो अपराधी है और फिल्म की नायिका आलिया भट्ट (वीरा त्रिपाठी) एक अमीर बाप की बेटी है जिसका अपहरण महावीर भाटी कर लेता है फिर शुरु होता है उनके साथ का सफर और यह सफर निसन्देह मुझे तो बेहद रोचक लगा।
एक अमीरियत तो दूसरा गरीबी की जद में अपना अपना भोगा हुआ यथार्थ इतनी खुबसूरती से परदे पर जीवंत कर देते है कि मन द्रवित हुए बिना नही रह पाता है फिल्म में बाल यौन शोषण जैसे गंभीर और सम्वेदनशील विषयों को छुआ है इसके लिए इम्तियाज़ अली बधाई के पात्र है। विभिन्न संचार माध्यमों में फिल्म की समीक्षा तो कोई खास अच्छी नही थी लेकिन फिर भी मै इम्तियाज़ अली की वजह से ही फिल्म देखने गया कई बार आपका विश्वास किसी दूसरे के मत से बडा हो जाता है और मुझे खुशी है कि मै निराश नही हुआ।
अभिनय के लिहाज़ से रणदीप हुड्डा ने क्लासिक अभिनय किया एनसीआर मे गुर्जरों की बोली में डॉयलाग बेहद स्वाभाविक और जानदार लगे है वो महावीर भाटी के किरदार मे घुस गए है ठीक इसी तरह वीरा के किरदार मे आलिया भट्ट ने गजब का अभिनय किया है आलिया की यूएसपी उनकी मासूमियत है वो पूरी फिल्म में बेहद मासूम नजर आयी आलिया नें रोने और चीखने के कई दृश्यों में चमत्कारिक परफ़ॉरमेंस दी है निजि तौर पर थियेटर मे मै एक बात को लेकर असहज़ रहा है आलिया भट्ट कें रोने के इंटेस सीन में उनके नाक के दोनो नथुने तेजी से सिकुड और फैल रहे थे जिनका वास्तविक प्रभाव बेहद गजब का था लेकिन कुछ शहरी लोग उसमे भी हास्य निकाल कर फूहडता से हंस रहे थे एक बार मन हुआ कि उन्हे टोक दूं लेकिन थियेटर में एक दर्जन भर लोग होंगे ऐसे मे किस-किस से भिडता लेकिन समूह का ऐसा व्यवहार यह बताता है कि हम कितने संवेदनहीन हो गए है एक घनीभूत पीडा और रोने के दृश्य में लोग उस भाव को ग्रहण करने की बजाए नाक के नथुनों के खुलने-बंद होने पर ठहाके मार कर हंस रहे थे। आलिया के रोने के सीन वास्तव में बेहद मार्मिक है लेकिन शायद लोग सिनेमा हॉल में अपना भावनात्मक विरेचन करने की बजाए पैसा वसूलने की वजह से अधिक जाते है इसलिए उनका कुछ भी करना जायज़ है यह अपनी अपनी संवेदना का मसला है।
कुल मिलाकर हाईवे एक मध्यम गति की फिल्म है जिन्हे जल्दबाजी नही है और जो अच्छी लोकेशनस देखकर आंखो से लेकर दिल तक अच्छा महसूस करते है जो इमोशन को समझना और जीना  चाहते है उनके लिए यह फिल्म देखने लायक है फिल्म की स्टोरी दो अलग-अलग पृष्टभूमि के लोगो के साथ सफर पर निकलने,दिल मिलनें और बिछडने की कहानी है फिल्म का अंत थोडा असहज़ करने वाला है लेकिन इसके अलावा और अंत भी क्या हो सकता था। हाईवे में सहायक कलाकारों का भी अच्छा अभिनय है नाम याद नही आ रहा है लेकिन महावीर के हेल्पर बने ‘आडू’ नें फिल्म में अच्छा काम किया है खासकर उसका आलिया भट्ट के साथ अंग्रेजी गाने पर ठुमके लगाने का सीन अच्छा बन पडा है।
हाईवे आपको तभी पसन्द आएगी यदि आप खुद से लडते हुए किसी अंजान सफर पर कभी निकले है या निकलना चाहते है सफर आपकी आंतरिक जडता को तोडता है साथ ही यह आपकी निर्णय लेने की क्षमता को भी मजबूत करता है जिसमे ह्र्दय परिवर्तन से लेकर जिन्दगी जीने का मकसद सब शामिल है। फिल्म का संगीत ठीक है ए आर रहमान का एक ही गीत जबान पर चढने वाला है बोल फिलहाल याद नही आ रहे है।  

रॉकस्टार: ‘जो हमारे अंदर कहीं रहता है’

रॉकस्टार: ‘जो हमारे अंदर कहीं रहता है’
आज रॉकस्टार फिल्म देखी। फिल्म पुरानी है मगर एक मित्र ने अनुशंसा की तो देखने की वाजिब वजह मिल गई। सबसे पहले तो उस दोस्त का आभार जिसनें एक खूबसूरत फिल्म का हिस्सा बनने के लिए मुझे प्रेरित किया। यह फिल्म मुझसे छूट गई थी इसका अब मुझे मलाल हुआ है। आज फिल्म पर समीक्षा जैसा कुछ नही लिखूंगा बस फिल्म के जरिए खुद के अहसास के खुले पोस्टकार्ड बेनामी पतों पर लिखने और भेजने का मन है। रॉकस्टार एक ऐसे रुहानी किरदार की कहानी है जो हमारे अन्दर ही बसता है खुद से खुद की रिहाई और खुद को खुद के अक्स से देखने की फुरसत ये कमबख्त दुनिया कब देती है और फिल्म इसी ही हिमायत करती है। निजी तौर पर मेरी जो संगीत की समझ कहती है रॉक बैचेनियों का संगीत है। रॉक म्यूजिक रुह की बैचेनियों का लाउड साउंड के जरिए कैथारसिस है वो हमारी बंदिशों को तोडकर हमे आजाद होने की ख्वाहिश का आसमान देता है। रॉकस्टार दरअसल एक ऐसी ही दुनिया की कहानी है जो हम सबके अन्दर एक अमूर्त रुप में बनती बिगडी रहती है। ये भी सच बात है कि कम ही लोग जेजे ( जॉर्डन) की तरह उस अहसास को पहचान पाते है जो दर्द के लिफाफे में अक्सर बैरंग खत की शक्ल में हमारे तकिए के नीचे सिरहारने रखा मिलता है और हम अक्सर करवट बदल सो जाते है। जॉर्डन और हीर दरअसल दो किरदार नही है बल्कि मै उनको किरदार से आगे बढकर दो उन्मुक्त चेतनाएं कहूंगा जो एक दूसरे पर आश्रित भी है और एकदूसरे को जानने समझने की यात्रा पर भी है।फिल्म में नायक और नायिका का आपसी भरोसे का मेआर भी बहुत ऊंचा है जिससे हौसला मिलता है। फिल्म का एक अपना महीन सूक्ष्म मनोविज्ञान है रॉकस्टार फिल्म एक ‘विचित्र अहसास’ को परिभाषित करती है उसके जिन्दगी मे देर सबेर दस्तक होने पर उसके बाद के जिन्दगी मे आये बदलाव को एक नए नजरिए से देखने का जज्बा देती है। फिल्म में मैत्री और प्रेम से इतर भी एक अपरिभाषित रिश्तें की व्यापकता और उसको स्वीकार कर जीने की कहानी भी है। जॉर्डन ( रणवीर कपूर) और हीर ( नरगिस फाखरी) दोनो की सहजता प्रभावित करती है दोनो की प्रयोगधर्मिता आरम्भ मानवीय सम्बंधो को देहातीत होने की सम्भावना को भी पल्लवित करती है। निसन्देह स्त्री पुरुष सम्बंधों मे देह एक मनोवैज्ञानिक सच है यह एक लौकिक तत्व है इसके अलावा पूरी फिल्म में इशक में दरगाह की रुहानियत है बैचेनियों के आलाप है। फिल्म में म्यूजिक लोबान की तरह जलता है और रुह को सुकून अता करता है पूरी फिल्म में एक खास किस्म का अधूरापन भी प्रोजेक्ट किया है जो एक Abstract Emotion के रुप में उपस्थित रहता है।
दरअसल,फिल्म इश्क के जरिए खुद के रुह की बैचेनियों को रफू करने की एक ईमानदार कोशिस है जो इसकी फिक्र नही करती है कि क्या दुनियावी लिहाज़ से ठीक है और क्या गलत है। एक पाक इश्क के ज़ज़्बात को फिल्म एक बिखरी हुई कहानी में पिरोती है और उसी के जरिए दिल की बीमारी का ईलाज़ करती है। फिल्म को देखते हुए खुद का दिल कई बार बेहद तेज धडकने लगता है जिसका एक ही मतलब है कि बात सीधे तक दस्तक दे रही है। दिल का टूटना और दर्द को महसूस करना किसी भी फनकार के लिए जरुरी है फिल्म इसी के सहारे आगे बढती है मगर इस दर्द की कीमत सच में बहुत बडी है यकीनन इश्क का मरहम उसकी मरहम पट्टी जरुर कर सकता है मगर कमबख्त ! इस मतलबी दुनिया न हीर जैसी माशूका मिलती है और न जॉर्डन जैसा आशिक।रॉकस्टार हम सबके अन्दर दबे एक ऐसे वजूद को से हमें मिलवाती है जो सही गलत के भेद मे नही पडना चाहता बस मुक्त हो जीना चाहता है कुछ मासूम अहसासो के जरिए दुनियादारी के लिहाज़ से वो गंद मचाना चाहता है मगर ये गंद मासूम बदमाशियों से शुरु हो रुहों के मिलन पर जाकर खत्म होती है। इतनी हिम्मत जब रब अता करता है तब एक ऐसी दुनिया का हिस्सा हम खुद ब खुद बन जाते है जो इश्क के वलियों की दुनिया है जहां हमारी रुह अपने बिछडे अहसासों से मिलकर थोडी देर के लिए एक रुहानी जश्न मे खो जाती है। ये फिल्म सच में सूफियाना फिल्म है जो हमे खुद के करीब ले आती है भले घंटे दो घंटे के लिए ही सही।

दम लगा के हईशा

दम लगा के हईशा
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यह फ़िल्म मध्यमवर्गीय चेतना के द्वन्द को दिखाने का एक बढ़िया प्रयास है। बेमेल विवाह से उपजे द्वन्द और पारिवारिक परिवेश में ज्ञात से अनभिज्ञता का अभिनय फ़िल्म का केंद्रीय मुद्दा है। प्रेम और संध्या दोनों की यात्रा कल्पना से यथार्थ की यात्रा है। आदर्श पार्टनर का सपना देखना मानव व्यवहार का एक स्वाभाविक पक्ष है और अपेक्षाएं टूटने पर होने वाला द्वन्द भी गहरा होता जाता है मगर यदि आपकी दृष्टि खुद पर आ टिकती है तब आप कल्पना और यथार्थ का भेद समझने लगते है।
फ़िल्म देखते लगता है कि ये अपने मुहल्ले अपने पड़ौस की कहानी है सारे पात्र जाने पहचाने है फ़िल्म में कलात्मक सहजता है और सभी पात्रों को बहुत बढ़िया ढंग से गढ़ा भी गया है। मुझे ऐसी लो बजट की फ़िल्म पसन्द है इनको देखते हुए धारावाहिक और फ़िल्म का मिला जुला आनन्द मिलता है।
सफल सुखद दाम्पत्य के लिए फ़िल्म एक सूत्र भी देती है कि यदि मन का मेल हो जाए तो फिर देह का बेमेल होना खुद ब खुद हवा हो जाता है। फ़िल्म की नायिका संध्या का मोटा होना मुझे तो पसन्द आया और फ़िल्म के मध्यांतर के बाद नायक प्रेम को भी पसन्द आने लगता है।
फ़िल्म कुमार शानु के दौर की याद दिलाती है और कापी के पर्चे पर लिखकर कैसेट रिकॉर्डिंग के दिन याद आते जाते है जिन्हें अतीत का व्यसन है उनको फ़िल्म उसी दुनिया का हिस्सा भी बना देती है। फ़िल्म के अंत में रिश्तों का वजन उठाने के लिए जिस इच्छाशक्ति की आवश्यकता होती है उसे एक रोचक खेल के जरिए दिखाया है यदि आप एक बार यह गुर सीख लेते है तो फिर रिश्तें बोझ नही ताकत बन जाते है।
प्रेम और संध्या का बेमेल विवाह से लेकर प्रेम से मिलन तक की कहानी बहुत छोटे छोटे अहसास बुनती है एक दसवी फेल व्यक्ति की लाचारगी देखते हुए दिल पसीजता भी है।
फ़िल्म में एक गहरा व्यंग्य 'शाखा' और शाखा बाबु पर भी है फ़िल्म का यह प्रयोग बहुत प्रभावित करता हूँ अभिव्यक्ति के खतरे के इस दौर में यह दिखाना साहस का काम है।
फ़िल्म में संजय मिश्रा जैसे मंझे हुए कलाकर भी है उनके रहते फ़िल्म की एक अपनी गति बनी रहती है फ़िल्म में एक किरदार है बुआ का उसने भी बहुत प्रभावित किया है।
कुला मिलाकर एक बढ़िया फ़िल्म है संगीत भी ठीक है बस कुमार शानु की आवाज़ में 90 के दशक को याद करने वाला एक गीत फ़िल्म के अंत में दिया गया है तब तक लोग उठकर चलने लगते है और ये गाना देख नही पाया मैं ये एक गलत बात भी है।
फ़िल्म हरिद्वार ऋषिकेश की कहानी है इसलिए लोकलाइट होने वजह से मुझे और भी जुड़ाव महसूस हुआ फ़िल्म में दो लोगो का एक एक सीन है और ये दोनों लोकल हरिद्वार के ही रहने वाले है जिन्हें मैं व्यक्तिगत रूप से जानता भी हूँ उनकी बड़ी स्क्रीन पर देखना सुखद लगा। यह एक व्यक्तिगत बात भी है।
फ़िल्म में एक महीन सम्वेदना है जिसे समझने के लिए थोड़ा संवेदनशील दर्शक होना एक अनिवार्य शर्त है मसलन मेरे पीछे की सीट पर घटिया हास्यबोध के दर्शक थे जो अपनी स्तरहीन टिप्पणीयों से मेरा मजा जरूर किरकिरा करते रहें ऐसे लोगो के लिए यह फ़िल्म नही है जो पुरुषोचित्त अभिमान में जीते है और देह को एक्स रे की तरह स्कैन कर स्त्री पुरुष के सम्बन्धों को देखने के आदी है।