Tuesday, December 1, 2015

तमाशा : एक मनोवैज्ञानिक पक्ष

तमाशा:
'कुछ एक्स्ट्रा शॉट्स' (एक मन ओ' वैज्ञानिक नजर से)

'तमाशा'फ़िल्म के कुछ सीन क्लासिक बन पड़े है इसे डायरेक्टर इम्तियाज़ अली की कलन्दरी ही कहा जाएगा कि उन्होंने फ़िल्म के एक्टर्स से बेहतरीन काम लिया है। शानदार एक्टिंग के दीपिका,रणबीर और पीयूष मिश्रा बधाई के पात्र है।
एक दर्शक की दृष्टि से कुछ सीन पर  मनोविश्लेषणात्मक दृष्टिकोण से कुछ कहना चाहता हूँ। कोरसिका टूर के दौरान दीपिका और रणवीर की मुलाक़ात होती है साथ खाते पीते घुमते है एक सीन में जंगल में बहती नदी तक पहूंचते है रणवीर औंधे मुंह लेट कर जानवरों की माफिक नदी से पानी पीते है ठीक ऐसा ही दीपिका भी करती है ये सीन अर्जित व्यवहार की मुक्ति और नैसर्गिक होने के सुख की लाजवाब अभिव्यक्ति है पानी के अंदर मुंह डालकर बुलबुले निकालना चित्त की बेफिक्र मनोदशा को बताती है जहां अर्जित व्यवहार की तार्किकता को छोड़कर अपने मन की बेवजह बातों को करने का सुख दिखता है जीवन दरअसल ऐसे ही जीवन्त लम्हों में सांस लेता है अन्यथा तो हम सब लोकाचार से दबा जीवन ही जीतें हैं।
एक दुसरे सीन जब दीपिका और रणवीर अपनी दैहिक सीमाओं का जिक्र कर 'टच'को डिफाइन करते है और मर्यादाओं के बीच में सांस लेती शुद्ध सम्वेदना को रेखांकित करते है वहां विश्वास और आंतरिक शुचिता सर्वोपरी और मुखर दिखाई देती है वहां एक दूसरे के गले लगना और आश्वस्ति से आँखें मूँद लेना मन के विस्तार और पारस्परिक स्नेह और विश्वास की यात्रा तय करता है वहां उन लम्हों को जीने की बैचेनी दोनों के अंदर साफ़ देखी जा सकती है। जब मन का सम्वाद सीधा मन से होता है तब वहां देह गौण हो जाती है और स्पर्श एक दुसरे की रूह पर मरहम लगाती है तथा लम्बी उड़ान के लिए हमारे हौसलें की गाल पर एक चिकोटी काट लेती है ताकि होश बरकरार रहें।
एक दुसरे सीन में जब दीपिका को अचानक भारत लौटनें होता है वो रणवीर से बिन मिलें लौटने का फैसला करती है मगर होटल की सीढ़ियों से वापिस रणवीर के रूम में जाती है फिर कभी न मिलनें की बात करके अपने साथ सुखद स्मृतियों का बोझ लेकर कार में बैठती है उस  समय उसकी आँखें ज़बां हो जाती है गीली आँखों और चेहरें के भाव से विलग होने की पीड़ा को इतनी ख़ूबसूरती से दीपिका ने बयां किया है कि वहां मौन अभिनय मुखर होकर सामने आता है अनुराग की दहलीज़ पर जब बिछड़न की सवारी आ खड़ी होती है तब अहसासों के छूटने और टूटने का एक बढ़िया कोलाज़ दीपिका के उस कार के सीन ने बनाया है।
भारत में लौटकर दीपिका का अनमना मन देखना निसन्देह सुखप्रद लगता है क्योंकि बतौर दर्शक हम चाहतें है कि वो रणबीर को कुछ इसी तरह से याद करें उसकी बैचेनियों में हमारे खोए किस्सों का आलाप भी शामिल हो जाता है।
दिल्ली एअरपोर्ट उतर कर दीपिका का चलनें अंदाज़ साफ़ बताता है कि उसके पास रणवीर को तलाश करने का आत्मविश्वास था। 'सोशल' पर जब वो रणबीर को देखती है और उससे मिलनें जाती है घुमावदार सीढ़ियों पर दो बार उतरना फिर वापिस चढ़ना ये एक क्लासिक शॉट उन पर फिल्माया गया है यह मन के द्वन्द और उत्साह की एक खूबसूरत प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति दिखाई देती है जहां दिल हां और ना की लड़ाई से गुजर रहा होता है क्योंकि रणबीर से मिलना जहां एक तरफ वादाखिलाफी है वही ये मुलाक़ात अनुराग की चासनी में डूबी एक रूह की जरूरत भी है।
और मैं उस क्लासिक सीन का जिक्र जरूर करूँगा जो इस फ़िल्म की सबसे बड़ी यूएसपी मुझे लगा।
इस सीन में दीपिका रणवीर से माफी मांगती है और अपनी अपेक्षा टूटने की बात को अप्रासंगिक बताती है वो रणवीर को एक प्रेमी के रूप में नही एक अस्तित्व के रूप में स्वीकार करती है उसे लगता है किसी भी अस्तित्व के 'काम्प्लेक्स' को टच करना उसे अस्त व्यस्त कर सकता है। यहां वो प्रेम का अनकंडीशनल होना भी समझती है प्रेम कभी इमेज़ से नही किया जा सकता है बल्कि प्रेम आपकी ग्राह्यता का विस्तार कर देता है मगर इस सीन में रणबीर के व्यक्तित्व की जटिलता का भी बड़ा खूबसूरत चित्रण किया गया है उसकी तात्कालिक 'स्प्लिट पर्सनेलिटी' और दीपिका के प्यार की जुम्बिश दोनों के अंतरद्वन्द का बेहद महीन चित्रण किया गया है। दोनों में मन में अथाह प्रेम भी है और गुस्सा भी दोनों ही आत्मदोष से पीड़ित है साथ रणवीर के मन दीपिका की अपेक्षाओं पर खरा न उतरने की खीझ भी शामिल है। दीपिका यहाँ ईगो के विस्तार का प्रतीक बनकर उभरी है व्यापक अर्थो में रणबीर का ही सुपर ईगो है दीपिका चाहती है कि अपने प्रेम की पुकार से वो रणवीर के मन पर इड (id) की पकड़ को थोड़ा ढीला कर सके। उसके पास अधिकार है करुणा है और विनय युक्त प्रेम यहां प्रेम एक रिहेबिलेसन का एक प्रमुख टूल बन जाता है वो माफी मांग रणवीर के इगो को सम्भालती है साथ उसे अपनी और खींच कर लगे लगा उसे अंतर्द्वन्द से मुक्त करने की एक ईमानदार कोशिश करती है उसकी आँखों में आँसू है मगर दिल में एक आत्मविश्वास भी है कि उसकी उपस्थिति रणबीर के बिखरे वजूद को इकट्ठा कर देगी। रणबीर के अंतर्द्वन्द कहीं अधिक गहरे है वो एक बार समर्पित होता तो दुसरे पल उसकी गिल्ट और ईगो विद्रोह करती है। मेज पर गाल टिका एक दुसरे को विपरीत कोण से देखना दो चेतनाओं के विस्मय का खूबसूरत चित्रण दिखता है। इसी सीन के विस्तार में रणबीर के जाने पर दीपिका उसको खोजती बिरहन सी जब गलियों में भटकती है और अंत में उसे देख स्ट्रीट में घुटनों के बल बैठ जाती है यह सीन अंतिम प्रयास या प्रार्थना के पलों में अंतिम स्वर के शामिल होने जैसा है जहां छूटते अतीत हो पकड़ने की जिजीविषा और प्रेम की गहराई में ईगोलेस कन्डीशन की उपस्थिति साफ़ दिखाई देती है वहां ऐसा लगता है कि  अनुराग चिंता और पीड़ा एक साथ घुटने के बल बैठ गई है मगर यहाँ यह बेबसी पराजय की नही बल्कि प्रेम के विस्तार की प्रतीक लगती है।
और अंत में कहानी सुनाने वाले बाबा (पीयूष मिश्रा) से जब रणबीर बड़ा होकर मिलता है तो उसका 'एनलाइटमेंट' होता है बाबा की एक झिड़क उसके मन की जड़ता को तोड़ती है कि बाहर क्या जवाब ढूंढ रहा है सब कुछ तेरे अंदर ही है सवाल भी और जवाब भी। इम्तियाज़ अली ने बाबा का किरदार बड़ा ही अबस्ट्रेक्ट गढ़ा है दरअसल बाबा हमारा ही इनर सेल्फ है उससे जब एक बढ़िया डायलॉग स्थापित हो जाता है तब समस्त शंकाओं के उत्तर हमें खुद ब खुद मिल जातें है फ़िल्म में कहानी बाहर की दुनिया का प्रतीक है और जिसका तमाशा खुद के अंदर चलता है। प्रेम के जरिए ये फ़िल्म खुद के अंदर चल रहे तमाशे को देखनें का एक बढ़िया अवसर हमें उपलब्ध कराती है।

(कुछ-कुछ सीन का जिक्र करके फ़िल्म की कुछ कहानी शेयर करने का दोषी हूँ उसके लिए अग्रिम माफी मगर इन सीन की छाप मेरे दिल ओ जेहन पर इतनी गहरी थी कि खुद को लिखने से रोक न सका। मैंने रणबीर और दीपिका का नाम इसलिए भी लिखा है क्योंकि दोनों असल जिंदगी में प्रेमी रह चुकें है बाकि दुनिया यहां उन्हें वेद और तारा ही समझें किरदार बदलतें है कहानी हमेशा एक ही रहती है। शुक्रिया !)

© डॉ. अजित

Monday, November 30, 2015

तमाशा

तमाशा: एक यात्रा खुद का सच जाननें की।
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इम्तियाज़ अली इस पीढी के सबसे अधिक संभावनाशील और बेहतरीन निर्देशकों मे से एक है महज़ उनके भरोसे फिल्म देखी जा सकती है अभी तक वो खरे ही उतरे है। ‘तमाशा’ भी मानव मनोविज्ञान को समझनें की एक ईमानदार कोशिश है। तमाशा शब्द अपने आप में चमत्कृत करता है तमाशा में कौतुहल के साथ रहस्य का अनावरण करने की एक स्वाभाविक जिज्ञासा हमारे अन्दर होती है। फिल्म का मूल प्रश्न दार्शनिक है और उस प्रश्न के जवाब तलाशने की कोशिश विशुद्ध मनोवैज्ञानिक है। फिल्म देखतें हुए हम खुद के प्रति ईमानदार होते जाते है और उसी ईमानदारी से खुद से यह सवाल करने लगते है कि आखिर मेरा सच क्या है? फिल्म की यही सबसे बडी सफलता है। यह फिल्म कोई कोरा गल्प नही है बल्कि हमारे अस्तित्व की जटिलताओं की कहानी है जिसें हम खुद बाह्य दबावों के चलते बुनते चले जाते हैं।
वेद ( रणबीर कपूर) और तारा ( दीपिका पादुकोण) की प्रेम कहानी एक आम प्रेम कहानी नही है बल्कि ये कहानी खुद की तरफ लौटने के साहस और खुद के सच जानने की पडताल में घायल होते वजूद की कहानी है। फिल्म का ट्रीटमेंट थोडा अलग है यह पर्सनेलिटि डेवलेपमेंट में परिवेशीय हस्तक्षेप और पेरेंटिंग की भूमिका को भी अपने यूनीक ढंग से रेखांकित करती है। स्टोरी टेलर बाबा (पीयूष मिश्रा) हमारी कलेक्टिव कांशिएसनेस का प्रतीक बनें है जो कहानी हम सुनतें आएं है वो हमारे व्यक्तित्व को किस प्रकार से प्रभावित करती है फिल्म में यह बडी खूबसूरती से दिखाया गया है। देश,काल और परिस्थितियों में केवल कहानियां बदलती है मूल किरदार नही और हम उसी किरदार में नायकतत्व खोजते है जो हमारे अस्तित्व के सबसे करीब होता है।
‘तमाशा’ स्मृतियों का आख्यान है जिसमें प्रेम के बडे महीन प्रभाव दिखाए गए है जब आप प्रेम में होते है तो खुद के सबसे ज्यादा करीब होते है वो खुद को समझने के लिए प्रेम से बेहतर और कोई अवस्था हो भी नही सकती है। फिल्म दर्शकों के सामने एक बडा मासूम सवाल रखती है कि आप जो है क्या आप वो सच में है या फिर आपका परिवेश,परिवार आपको वैसा देखना चाहता है इसलिए आप वैसे है। इस सवाल के जवाब की तलाश में हमें खुद की तलाशी लेनी होती है जिसमें तमाशा अच्छी तरह से मददगार है।
वेद और तारा का प्रेम दो चेतनाओं का आंतरिक संवाद है जब जब उसमे बाह्य पक्ष इनवॉल्व होता है तब-तब असुविधा या बाधा उत्पन्न होती है। अपनी मूल प्रकृति के साथ जीने का सुख ही हमें जीवन को सहजता से जीने का अभ्यास सिखा सकता है यह फिल्म हमें बताती है।
बिना परिचय के मिलना ठीक ऐसा है जैसे दो अस्तित्व अपने मूल के साथ शुद्धतम रूप मे एक दूसरे से मुखातिब हो दूर देश में वेद और तारा कुछ इसी तरह से मिलते है जुडने का वादा करके भी आखिर जुडते है। फिल्म में प्रेम का एक डायनामिक्स ठहराव और धैर्य भी है वहाँ आरोपण नही है बल्कि एक दूसरे के जीवन में खुद की मुक्त अवस्था में बने रहने की एक ईमानदारी भरी कोशिश है। प्रेम कैसे आपको रुपातंरित कर देता है फिल्म इस पर एक नोट हमें पढाती है। वेद और तारा की प्री एंड पोस्ट कैमेस्ट्री देख आपके चेहरे पर मुस्कान और बैचेनी एक साथ पसरती जाती है।
यदि आप खुद से सवाल करने की हिम्मत रखते है और ईमानदारी से उसका जवाब भी देना चाहते है तो निसन्देह तमाशा आपकी मदद करती है। फिल्म का संगीत और लोकेशन दोनो बढिया है कुछ-कुछ हिस्सों में फिल्म कमजोर भी पडी है मगर जब आप एक बार तमाशा देखना शुरु कर देते है तो फिर वो आपको बांध भी लेती है। मुझे व्यक्तिगत रुप से फिल्म का वो सीन सबसे दमदार लगा जब तारा वेद को रोकने के लिए गले से लगाती है और रिंग वापिस मांगती है दीपिका के महस इस सीन के लिए तमाशा देखी जा सकती है बाकि फिल्म तो बढिया है ही।

Wednesday, July 1, 2015

हमारी अधूरी कहानी


हमारी अधूरी कहानी :

इस फिल्म को आधी अधूरी कहानी के सहारे प्रेम की पवित्रता को कहने समझने या दिखाने की एक कोशिस कहा जा सकता है. फिल्म कुछ कुछ टुकड़ो में अच्छी लगती है तो कुछ जगह जाकर उलझी हुई लगने लगती है.फिल्म को लेकर  मोहित सूरी खुद ही उलझे हुए लगते है ऐसे में बतौर निर्देशक वो ठीक ढंग से बता नही पाये कि प्यार को जीने के लिए दिल कि सुननी पड़ती है. अमूर्त रूप से प्रेम इतना व्यापक विषय है कि इस पर कोई एक टीका पूरी कही भी नही जा सकती है. फिल्म में वसुधा (विद्या बालन) केंद्रीय भूमिका है मगर उनके किरदार को इतना डिप्रेसिव गढ़ा गया है कि वो फिल्म में थकी हुई और बेहद निस्तेज नजर आई है हालांकि उनकी एक्टिंग बहुत बढ़िया है  मेरे हिसाब से दूसरी बड़ी भूल फिल्म में उनके अपोजिट इमरान हाशमी का होना है इमरान हाशमी इस तरह के किरदार के साथ न्याय नही कर पाते है उनका अलग किस्म का दर्शक वर्ग भले ही हो मगर इस फिल्म थोड़ा और गहरा अभिनेता चुनना चाहिए था फिल्म में मुझे उनका न रोना और न हंसना ही प्रभावशाली लगा उनकी डायलोग डिलिवरी भी बेहद कमजोर है. फिल्म में विद्या के पति का किरदार निभा रहे है राजकुमार  राव का काम जरूर बढ़िया लगा मुझे वो नेचुरल एक्टर है मगर इंटरवल तक दर्शक यह तय नही कर पाता है कि उनके चरित्र को किस रूप में एक्सेप्ट करें.
फिल्म में दो गाने जरूर दमदार है एक टाइटल सांग है तथा दूसरा एक कव्वाली कि टोन लिए एक सैड सांग है मेरे लिए ये दोनों गाने देखकर ही फिल्म के पैसे वसूल हो गए है.
हमारी अधूरी कहानी दरअसल खुद को  रूह कि रौशनी को महसूस करने और उसके मुताबिक अपनी ज़िंदगी जीने का फलसफा सिखाती फिल्म है साथ ही बड़ी साफगोई से यह भी बताती है कि सच्ची प्रेम कहानियाँ अक्सर अधूरी ही रहती है शायद उनकी पूर्णता लोक से परे की चीज़ है. पारिवारिक दबाव और थोपे गए संस्कारो कि जकड़न में खुद को स्वाहा करने से बेहतर कि जिंदगी को नई रोशनी से जीने की कोशिस की जाए. फिल्म का एक डायलोग बढ़िया है कि हम किसी दुसरे को तभी प्यार कर पाते है जब हम खुद से प्यार करना छोड देते है यही फिल्म का सेंट्रल आईडिया भी है. किसी का गम बाँट लीजिये उसके बाद आप अपने आसपास बिखरे प्यार को खुद महसूस करने लगेंगे.
हमारी अधूरी कहानी उन लोगो को जरूर देखनी चाहिए जो नियतिवादी होकर कथित रूप से  जीने का कौशल सीख गए है मगर फिर भी अक्सर शिकायत करते पाये जाते है इस फिल्म को देखकर दिल कि सुनने और दिल के मुताबिक़ जीने का हौसला जरूर हासिल होगा. अधूरापन मनुष्य के अस्तित्व का अनिवार्य हिस्सा है मगर यदि आप जिंदगी के किसी मोड़ पर खुशबु को देख ठहर जाए या किसी पल में जीने लगे तो समझिए कि उस अधूरेपन का एक टुकड़ा अपना एकांत भरने के लिए आपकी एक प्यार भरी नजर के इंतज़ार में है.
फिल्म का अंत दुखांत दिखता जरूर है मगर सच में अधूरी प्रेम कहानियों का वो सच्चा सुखान्त है.
बहुत नैतिकता सही गलत कि मुक़दमे में फंसे लोगो को यह फिल्म एक जिरह के बाद रिहाई के नुक्ते सीखा सकती है साथ ही कुछ लोग जानते समझते हुए भी इसे नजरअंदाज कर सकते है क्योंकि ये उस दुनिया का किस्सा सुनाती है जहां जाने का दिल तो सबका करता है मगर दिमाग अक्सर हाथ पकड़ रोक लेता है.
और अंत में फिल्म में पुलिस अफसर पाटिल के रूप में नरेंद्र झा के काम कि तारीफ़ भी बनती है उनका रोल छोटा है मगर बढ़िया काम किया है.

Thursday, June 11, 2015

दिल धड़कनें दो

'दिल धड़कनें दो'
: एक दर्शकीय टिप्पणी

दिल तो वैसे चौबीसों घंटे धड़कता ही रहता है मगर निर्देशक जोया अख़्तर की यह फ़िल्म देखकर दिल की धड़कनों को गिनने का हुनर मिलता है बशर्ते आप मुहब्बत और आजादी की बेचैनियों को जाननें के सच्चे तलबगार हो।
यह फ़िल्म अभिजात्य/कुलीन वर्ग के लोगों की जिन्दगी में पसरें खामोश सन्नाटे और रिश्तों के बुनावट की महीन पड़ताल करती है फ़िल्म का मूल कथानक मानवीय सम्बन्धों की जटिलता और उसमें सम्वाद स्नेह की आवश्यकता को केंद्र में रखकर बुना गया है। फ़िल्म हमें बताती है कि जब दिल से हम कोई फैसला कर लेते है तो दिमाग उसको पूरा करनें की तरकीब निकाल ही लेता है।
एक हाई प्रोफाइल बिजनेस मैन की जिंदगी बाहर से जितनी हसीन और रंगीन नजर आती है अंदर से वो कितने स्तर के द्वन्द और शून्यता से भरी हो सकती है फ़िल्म को देखकर पता चलता है। पति-पत्नी,भाई-बहन, दोस्त-प्रेमी जैसे रिश्तों अपने आदर्श रूप में कैसा होना चाहिए फ़िल्म इसी की स्थापना करती नजर आती है।
प्यार मनुष्य की बुनियादी जरूरत है और इस प्यार को जीने या महसूस करने के लिए एक कान अपने दिल के हवाले करना पड़ता है। रिश्तों में नयापन बचाकर रखनें के लिए सम्वाद कितना अनिवार्य सूत्र होता है यह फ़िल्म देखते हुए अहसास होता है।
दिल धड़कने दो मूलतः मनुष्य के स्वतन्त्र अस्तित्व को जीने अनुभूत करनें तथा अपने सच को स्वीकर कर उसके अनुरूप जीने का कौशल सिखाने वाली फ़िल्म है। जोया अख़्तर ने फ़िल्म में क्रूज़ की यात्रा को कहानी बढ़ाने के लिए एक प्रतीक के रूप में बेहतर चुना है क्योंकि इस फ़िल्म मानवीय सम्बंधों में प्रेम के मूल्य और वैयक्तिक स्वतन्त्रता की यात्रा को देखनें समझनें का नजरिया देती है।
फ़िल्म कही पर कभी अनकहे गाम्भीर्यता का शिकार नही होती है किरदारों के जिंदगी में पसरें तनाव के बीच हास्य के हलके फुलके पल भी गूंथे हुए है इसलिए फ़िल्म समानांतर रूप से हंसाती भी है और आपको किरदारों को समझनें का मौका भी देती है।
सभी कलाकारों का अभिनय बेहद बढ़िया है अनुष्का शर्मा और फरहान अख़्तर की भूमिका अपेक्षाकृत छोटी है मगर दोनों का काम दमदार है। रणवीर सिंह और प्रियंका चोपड़ा फ़िल्म के केंद्र में है। अनिल कपूर का नया आउटलुक प्रभावित करता है अभिनेता तो वो मंझे हुए है इसमें दो राय नही है।
रणवीर की मम्मी की भूमिका में शैफाली शाह आउटस्टैंडिंग लगी है। फ़िल्म में शैफाली मुझे व्यक्तिगत रूप से काफी खूबसूरत और प्रभावी नजर आई।
और अंत में प्लूटो का जिक्र जरूर करूँगा उसके बिना फ़िल्म अधूरी वो फ़िल्म का नैरेटर ही नही बल्कि मानव व्यवहार की जटिलता की व्याख्या करनें वाला दार्शनिक भी है। उसका नाम फ़िल्म के लिहाज़ से एकदम उपयुक्त है। यदि आप चाहतें है कि अपने दिल को यूं ही बेतरतीब धड़कनें दिया जाए और उसकी बेचैनियों की गिरह को थोड़ा ढीला करना चाहतें है तो यह फ़िल्म जरूर देखिए शायद अपनी धड़कनों का सुगम संगीत आप भी सुन सकें।

© डॉ.अजित 

Friday, May 8, 2015

पीकू

'पीकू' :भविष्य से बात करती एक संवेदनशील फ़िल्म
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सिनेमाई दर्शकों का कस्बाई या शहरी चरित्र भलें ही फंतासी को अधिक पसन्द करता हो उसके लिए मनोरंजन का खालिस अर्थ एक्शन,थ्रिल,कॉमेडी हो मगर फिर भी पीकू जैसी संवेदनशील फ़िल्म का बनना इस बात का संकेत है कि भले ही जोखिम हो मगर आज भी सिनेमा के जरिए अर्थपूर्ण विषयों पर संवाद करने का हौसला कुछ निर्माता निर्देशक रखते है।
'पीकू' कहानी है पिता-पुत्री के सम्वेदनशील रिश्तें की जहां बेटी की भूमिका के इतनें शेड्स है कि पिता पुत्री के रिश्तें की गहराई और संवेदना अंतर्मन को छू जाती है।
भास्कर बैनर्जी (अमिताभ बच्चन) और पीकू ( दीपिका पादुकोण) की कहानी धीरे धीरे गति पकड़ती है मगर जब एक बार आप फ़िल्म से कनेक्ट हो जाते है फिर उसके बाद आप फ़िल्म के पात्रों में खुद को तलाशनें लगतें है।
क्रोनिक कब्ज़ से पीड़ित पिता की मनोवैज्ञानिक स्थिति और उसके साथ समायोजन की समस्या का बड़ी सूक्ष्मता से फ़िल्म में चित्रण किया गया है। इस बंगाली फैमली के जरिए हम बंगाली परिवारों में स्त्री के लोकतांत्रिक अधिकारों और जीवनशैली में कुलीनता को भी देख समझ पातें हैं।
फ़िल्म का मूल कथानक भले ही उम्रदराज़ पिता के रहनें वाली बेटी के रोजमर्रा के संघर्ष के इर्द गिर्द बुना गया है मगर यह फ़िल्म सिंगल पेरेंट फैमली में पली पीकू के एकांत का एक अनकहा आख्यान भी है। पीकू इस फ़िल्म में दोस्त,बेटी,मां,प्रेमिका जैसी कई ज़िंदगियाँ जीने वाली नायिका है।
पीकू के लिए बूढ़ा और बीमार पिता (कब्ज को लेकर काफी हद तक मनोवैज्ञानिक भी) महज एक जिम्मेदारी नही है बल्कि एक जीवन के साथ घुली हुई कहानी है जिसकी खीझ भरी बातों पर जितना वो चिल्लाती है उतना ही उसके गहरे पिता प्रेम का भी पता चलता है।
पीकू में इरफ़ान खान (राणा चौधरी) का करेक्टर भी बेहद सुलझा हुआ है टैक्सी सर्विस ऑनर होने के बावजूद वो एक लम्बी यात्रा पर बतौर ड्राईवर पीकू और भास्कर बैनर्जी के साथ निकलता है उसकी बातें,सलाह और इमोशन्स सब बेहद गज़ब और महीन किस्म की है।
पीकू के पिता भास्कर बैनर्जी को मोशन की प्रॉब्लम है और मोशन इमोशन से जुड़ा होता है यह बात फ़िल्म का सेंट्रल आईडिया है मनोवैज्ञानिक लिहाज़ से फ़िल्म में कब्ज़ एक प्रतीक भर है कब्ज़ का अर्थ है एक पिता के ढलती उम्र के साथ की असुरक्षाऐं है जो अपनी तयशुदा मौत का इन्तजार करते हर एक बुजुर्ग की असुरक्षाएं है जिस दिन भास्कर उस ग्रंथि से मुक्त हो जाता है उस दिन उसका मोशन भी क्लियर हो जाता है और उसकी यात्रा भी पूर्ण हो जाती है।
फ़िल्म के अपने सूक्ष्म समाजशास्त्रीय और मनोवैज्ञानिक अर्थ है जिसके जरिए वो सिंगल पेरेंट फैमली के बुजुर्ग की मनस्थिति का बेहद भावपूर्ण चित्रण करती नजर आती है। पीकू का फ़िल्म में यह डायलॉग कि एक ख़ास उम्र के बाद पेरेंट्स खुद जिन्दा नही रह पातें है उन्हें जिन्दा रखना पड़ता है फ़िल्म का सारतत्व बयां करता है।
इरफ़ान खान,दीपिका,अमिताभ तीनों की एक्टिंग बेहतरीन है कई क्लोज़ कैमरा सीन में एक्सप्रेशन के मामलें में दीपिका बेहद क्लासिक लगी है। इरफ़ान और दीपिका की बड़ी एब्सट्रैक्ट किस्म की केमेस्ट्री फ़िल्म में दिखाई गई है।
डॉ श्रीवास्तव के रोल में रघुवीर यादव और मौसी के रोल में मौसमी चैटर्जी ने भी बढ़िया काम किया है। फ़िल्म में एक दो बढ़िया सोलो सांग भी है जो सुकून देते है।
पेरेंट्स की केयर और उनकी आदतों के साथ जीने की कला सिखनें के लिए यह एक बेहद जरूरी फ़िल्म है।यदि आपके साथ पेरेंट्स रहतें है या भविष्य में कभी रहेंगे तो आपको यह फ़िल्म एक बार जरूर देखनी चाहिए। यह फ़िल्म बेहद काम आएगी यह मेरी समझ कहती है।

Tuesday, April 21, 2015

डेढ़ इश्किया

शुरुवात में डेढ इश्किया देखने का तजरबा किसी मुशायरे में शिरकत करने से जैसा है यह विशाल भारद्वाज की ही कलंदरी है कि विशुद्ध व्यवसायिक फिल्म में भी वें ऊर्दू अदब की खुशबू इतने से करीने से रखते है कि दिल बाग-बाग हो जाता है मल्टी प्लेक्स में फिल्म शुरु होने के थोडी ही देर बाद शेर औ शायरी का ऐसा शमां बंधता है कि दर्शको की वाह-वाह से ऐसा लगने लगता है कि हम सिनेमा हॉल मे न होकर किसी मुशायरे में शिरकत फरमा है। फिल्म के कई सीन्स में हमारे दौर के हकीकत के शायर जैसे अनवर जलालपुरी साहब,डॉ नवाज़ देवबन्दी साहब को देखना मेरे जैसे ऊर्दू अदब के मुरीद के लिए बेहद सुकून भरा रहा है...डॉ.नवाज़ देवबन्दी साहब का शेर हो या डॉ बशीर बद्र के शेर से अनवर जलालपुरी साहब का महफिल का आगाज हो एकदम से फिल्म में ऊर्दू अदब का अहसास दिल को राहत देता है हाँ हो सकता है फिल्म का ऐसा कलेवर कुछ कम ही लोगो को पसन्द आये लेकिन मुझे बेहद पसन्द आया है जिस तरह से विशाल भारद्वाज़ ने असल के शायर को फिल्म मे शामिल किया है वह काबिल-ए-तारीफ है और अभी तक मैने और किसी फिल्म में अभी तक देखा भी नही है। फिल्म से मेरे जुडने की एक वजह यह भी हो सकती है कि फिल्म के डायलॉग पर पश्चिमी यूपी की बोली का प्रभाव है अरशद वारसी का खालिस बिजनौरी लहज़े में डायलॉग बोलना खुद ब खुद फिल्म से जोड देता है फिल्म में लखनवी अदब और ऊर्दू जबान का वकार भी है साथ दो ठग/चोर के रुप में अरशद वारसी और नसीरुद्दीन साहब का बिजनौरी स्टाईल भी...। विशाल भारद्वाज़ के चुस्त डायलॉग निसन्देह मुझे बेहद पसन्द आये मै उनके इस फन का मुरीद हो गया हूँ। फिल्म में दो हसीन अभिनेत्रियां दोनो ही मुझे बेहद पसंद है और बेगम पारा के रोल में तो माधुरी दीक्षित का हुस्न गजब का रुहानी अहसास लिए है उनकी अदा,हरकते,भाव भंगिमाएं और अभिनय सबके सब कमाल के है वो बेगम पारा के रोल को जिस उरुज तक ले गई यह उन्ही के बस की बात थी कोई और अभिनेत्री शायद ऐसा न कर पाती। हुमा कुरेशी मुझे निजि तौर पर दो वजह से पसन्द है एक तो उनकी लम्बाई और दूसरी उनकी बेइंतेहा खुबसूरती उनके चेहरे मे कस्बाई लुक है वह अपने मुहल्ले की सबसे खुबसूरत लडकी जैसी लगती है इसलिए हुमा कुरेशी का फिल्म में मुनिया का रोल फिल्म की जरुरत बनता चला जाता है। नसीर साहब के अभिनय पर मै क्या तब्सरा करुँ इतनी मेरी हैसियत नही है वो लिविंग लीजेंड है लेकिन उनके अलावा अरशद वारसी की एक्टिंग की भी तारीफ बनती है और सबसे अधिक मुझे प्रभावित किया नकली नवाब की भूमिका में विजय राज साहब नें नसीरुद्दीन साहब के साथ कई सीन्स में उनका नैचुरल एक्टिंग और कम्फर्ट उनका भी मुरीद बना देता है।
फिल्म के दो बडी कमजोरी मुझे नजर आई एक तो फिल्म का अंत जरुरत से अधिक नाटकीयता लिए है और जल्दी से हजम होने वाला नही है दूसरा हमरी अटरिया पे आजा सांवरिया गीत फिल्म के अंत के बाद शुरु होता है जब तक दर्शक उठकर चलने लगते है मै इस गीत में माधुरी के डांस और नाट्यशास्त्र के लिहाज़ मुद्राएं देखने के लिए भी प्रेरित होकर फिल्म देखने गया था जो आधे-अधूरे मन से ही पूरा हो पाया हालांकि मै अंत तक सीट पर जमा रहा शायद एक दो और माधुरी के ऐसे मुरीद थे जो बैठे थे लेकिन दर्शको के जाने के क्रम मे गीत का मजा किरकिरा हो जाता है।
फिल्म समीक्षकों और सिनेमा के जानकार बुद्धिवादी दर्शको के लिहाज से डेढ इश्किया को भले ही डेढ स्टार भी न मिलें मै बिना इसकी परवाह इस फिल्म को विशाल भारद्वाव की एक उम्दा फिल्म करार देता हूँ और हाँ पिछली इश्किया से मुझे यह डेढ इश्किया ज्यादा पसन्द आयी...कोई आग्रह नही है ना ही मै कोई फिल्म समीक्षक हूँ सिनेमा का दर्शक होने के नाते फिल्म देखने के बाद जैसा मैने महसूस किया लिख दिया इसे फिल्म देखने की अनुशंसा जैसा भी न समझा जाए कहीं फिर आप बाद मे उलाहना दें क्योंकि डेढ इश्किया को महसूस करने के लिए दिल का डेढ होना बेहद जरुरी है।

Sunday, April 19, 2015

धर्मसंकट में

धर्मसंकट में : इस दौर की एक बेहद जरूरी फ़िल्म
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धर्म के नाम पर फैले अतिवाद और गलतफ़हमियों के कारोबार के बीच ओह मॉय गॉड,पीके और अब धर्मसंकट में जैसी फ़िल्म का आना एक सुखद बयार के आने के जैसा है। इस दौर में धर्म ने जिस तरह से बहुसंख्यक लोगों की सोच और विवेक पर   कब्जा किया है उसनें बहुत से सवाल खड़े कर दिए है मसलन इंसान का होना महत्वपूर्ण है या धर्म अधिक महत्वपूर्ण है।
निर्देशक फवाद खान की फ़िल्म धर्मसंकट में हिन्दू और मुसलमान के बीच पिसते आदमी के द्वन्द को बहुत ही बारीकी से उकेरा है। फ़िल्म का कथानक बेहद रोचक किस्म का है। धर्मपाल त्रिवेदी (परेश रावल) को पचास की उम्र के पार अपनी माँ के लॉकर से मिले एडेप्सन सर्टिफिकेट से यह पता चलता है कि उसे गोद लिया गया था और वो एक मुसलमान का बेटा है। परवरिश के हिन्दू संस्कार और जन्म के मुसलमान होनें के दबाव के बीच धर्मपाल की जिंदगी पिसती है। फ़िल्म के पात्र गुजरात के है इसलिए भी हिन्दू मुसलमान के सम्बन्धों को सामाजिक दृष्टी से देखना और भी रुचिकर लगता है। एक स्टीरियोटाइप सोच के चलतें धर्मपाल भी मुसलमानों से नफरत करता है उन्हें देश में आतंकवाद की जड़ समझता है मगर जब उसे खुद के बारें में पता चलता है कि वो खुद एक मुसलमान है तो उसके द्वन्द और भी गहरें हो जातें हैं।
धर्मसंकट में दरअसल धर्म की वजह से मनुष्य के संकट में होने की कहानी है जिसमें धर्म के उस स्वरूप पर चोट की गई है जो मनुष्य को तोड़ता है जोड़ता नही है। फ़िल्म में अन्नू कपूर एक मुसलमान वकील की भूमिका में है जो धर्मपाल का पड़ौसी है जिससे धर्मपाल इसलिए चिढ़ता है क्योंकि वो मुसलमान है। बाद में यही मुसलमान मित्र उसका सच्चा दोस्त साबित होता है। फ़िल्म का सबसे कारुणिक प्रसंग है धर्मपाल का अपना बायोलॉजिकल पिता को तलाशना और उससे मिलनें के इस्लाम के तौर तरीकें सीखना। बतौर हिन्दू जीए शख्स के लिए नमाज़ और कलमा सीखना कितना चुनौतीपूर्ण हो सकता है फ़िल्म देखकर पता चलता है। हिन्दूओं की संस्कृतनिष्ठ हिंदी और मुसलमानों की उर्दू ज़बान को लेकर भी फ़िल्म में बढ़िया व्यंग्य किया गया है जब भाषा अभिव्यक्ति की बजाए धर्म विशेष से जुड़ जाती है तब उसकी ग्राह्यता में क्या क्या दिक्कतें पेश आती है फ़िल्म देखकर जान पातें है।
धर्मसंकट में नीलानंद बाबा (नसीरुद्दीन शाह) के जरिए हिन्दू धर्म के फैले धर्म के कारोबारी सच के बारें बढ़िया सवाल खड़ा किया है हिन्दुओं में नीलानन्द बाबा तो मुसलमानों में इमाम साहब दोनों के पहनावें जरूर अलग है मगर धर्म को लेकर सोच एक सी है। इमाम साहब धर्मपाल को उसके पिता से मिलनें के लिए जिस तरह से इस्लाम की दीवार खड़ी करतें है उसे देख बरबस ही आँखें नम हो जाती है। जिस तरह लगभग सभी बाबाओं का एक अतीत होता है उसी तरह नीलानन्द बाबा का भी एक अतीत है और यही अतीत फ़िल्म के सुखान्त की वजह भी बनता है। फ़िल्म में एक समानांतर प्रेम कहानी भी चलती है उसकों भी धार्मिक अंधभक्ति की बाधाओं से गुजरना पड़ता है।
धर्मसंकट के तीनों प्रमुख अभिनेता (परेश रावल,नसीरुद्दीन शाह,अन्नू कपूर) मंझे हुए कलाकर है इसलिए एक्टिंग तो तीनों की ही कमाल की है हाँ नसीरुद्दीन शाह का रोल जरूर काफी छोटा है। मुझे फिर भी तीनों में अन्नू कपूर सब पर भारी दिखे मुसलमान वकील के रोल में उन्होंने गजब की जान फूंक दी है फ़िल्म के एक सीन में जब वो अल्पसंख्यक होनें का दर्द बयां करतें है तो सच में रोंगटे खड़े हो जाते है। फ़िल्म का एक डायलॉग मुझे सबसे क्लासिक किस्म का लगा धर्मपाल को जब पता चलता है कि वो पैदाइशी मुसलमान है तब वो गहरे द्वन्द और अवसाद का शिकार हो जाता है ये बात वो वकील साहब (अन्नू कपूर)को बताता है जबकि उसे तब तक नापसन्द भी करता है तब वकील साहब उसे अपनी कार में बैठने के लिए बोलतें है इस पर धर्मपाल उनको कहता है क्या मुझे बैठने के लिए इसलिए बोल रहे हो कि मैं एक मुसलमान हूँ तब वकील साहब कहतें है नही इसलिए क्योंकि तुम परेशान हो।
धर्मसंकट में अल्पसंख्यक होने के दर्द अति धार्मिक होने की मुसीबतें और धर्म के नाम पर मनुष्य के विवेक को दास बनानें की कहानी है जिसको हास्य के पुट के साथ बहुत ही बेहतरीन ढंग से प्रस्तुत किया गया है। फ़िल्म के दो गीत भी बढ़िया हैं। मेरे हिसाब से ऐसी फ़िल्में सपरिवार देखनी चाहिए ताकि हम अपनें बच्चों को सच्ची धर्मनिरपेक्षता और मानवता का पाठ पढ़ा सकें। यह फ़िल्म किसी धर्म के खिलाफ नही है बस फ़िल्म यह समझानें की एक ईमानदार कोशिस जरूर करती है कि सबसे बड़ा धर्म मानवता का धर्म है। कुल मिलाकर एक बढ़िया देखनें लायक फ़िल्म है यह आपको धर्म के धर्मसंकट से निकालनें में जरूर मददगार है।

Monday, March 23, 2015

NH 10

एन एच 10

:एक सफर जो खत्म नही होता

हाई वे बड़े शहरों को आपस में जोड़तें है ऐसा कहते है सब मगर ये फ़िल्म हाई वे और महानगरों के बीच बसे देहात के बीहड़ और उसके टूटे बिखरे हुए समाजशास्त्रीय सच की कहानी हैं। टेबलॉयड और गूगल के सहारे हिन्दुस्तान को जानने के एक महानगरीय सांस्थानिक सच का बेहद अस्त व्यस्त कर देने वाला दस्तावेज है यह फ़िल्म है।
फ़िल्म रात में शुरू होती है और रात में ही खत्म। यहां रात महज़ दिन के छिपने का प्रतीक नही है बल्कि यहाँ रात उस कड़वे यथार्थ का प्रतीक है जो हमारे आसपास बिखरा पड़ा है। वैसे तो फ़िल्म ऑनर किलिंग की घटना से गति पकड़ती है परन्तु इसके बाद की कहानी में जो बदलाव आतें है वो दिल की धड़कनों को बढ़ा देते है। इंटरवल तक फ़िल्म आपके द्वन्द और तनाव को उस शिखर तक ले जाती है कि आप कभी नाख़ून कुतर कर तो कभी सीट पर पसर खुद को सामान्य करने की कवायद करने लगते है।
फ़िल्म महानगरों के अवैध सन्तान के रूप में जीते देहात के कड़वे सामाजिक यथार्थ की कहानी है और इसका कथानक इतना कसा हुआ है कि आप थोड़ी ही देर में फ़िल्म का हिस्सा बन मीरा और अर्जुन के लिए प्रार्थना करना शुरू कर देतें हैं।
ऑनर किलिंग जितनी समाजशास्त्रीय समस्या है उतनी ही मनोवैज्ञानिक भी। फ़िल्म में कुछ दृश्य विचलित करने वाले है। लॉ एंड आर्डर के बीच बेख़ौफ़ सांस लेते एक कड़वें सामाजिक सच को फ़िल्म बेहद प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत करती हैं।
दिल्ली गुड़गाँव की महानगरीय जीवनशैली जीनें वाला एक युगल जब इस बर्बर दुनिया से रूबरू होता है तब उसको यथार्थ और कल्पना के अंतर का पता चलता है। मीरा का बर्थ डे सेलीब्रेट करने के लिए एक प्राइवेट विला को बुक कर अर्जुन दिल्ली के आउटर एरिया में क्या निकलता है उसकी दुनिया ही बदल जाती है एक बाईपास उन दोनों की दुनिया को उस रास्ते पर खड़ा कर देता है जहां जीने के लिए भागना और भागने के लिए जीना जरूरी हो जाता है।
यह कहानी महज हरियाणा के गाँव से ही नही जुडी है बल्कि इस कहानी में खाप पंचायत के सिस्टम में जीते उस हर गाँव की कहानी है जहां जाति और गोत्र सबसे बड़ा सामाजिक सच हैं। जहां प्रेम विवाह आज भी गुनाह है इसलिए भौगोलिक रूप से ये दिल्ली से सटे हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के देहात की कहानी कहा जाए तो अतियुक्ति न होगी।
फ़िल्म बताती है कि ऑनर किलिंग समाजशास्त्रीय और मनोवैज्ञानिक रूप से इतना जटिल मुद्दा है कि इसमें स्त्री के स्वाभाविक वात्सल्य की भी हत्या हो जाती है फ़िल्म में दीप्ति नवल को देख मुझे गाँव की चौधरन याद आई जो इस मसलें पर पुरुषों के साथ ही खड़ी होती है।
एन एच 10 एक त्रासद सच की कथा है इसमें एक शहरी युगल उस परिवेश से रूबरू होने की कहानी है जहां प्रतिष्ठा के नाम पर लॉ एंड आर्डर की कोई हैसियत नही बच जाती हैं। फ़िल्म एक दृश्य में पुलिस अधिकारी मीरा (अनुष्का शर्मा) को जाति व्यवस्था का पाठ पढ़ाता है मनु और अम्बेडकर का उदाहरण देता है साथ ही यह भी पता चलता है कि जाति का मनोवैज्ञानिक सच वर्दी के पीछे भी वैसे ही ज़िंदा रहता है जैसे गाँव के अंदर ये एक गर्व से भरी व्यवस्था जीवित है।
अनुष्का की एक्टिंग आउटस्टैंडिंग है। वो फ़िल्म की प्रोड्यूसर भी है इस फ़िल्म को बनाकर उन्होंने एक बढ़िया काम किया है उद्देश्य भले ही व्यावसायिक हो मगर इसके पीछे एक सोशल कन्सर्न भी जुड़ा नजर आता है।
फ़िल्म के सम्वाद में देशज और भदेस पुट है जो फ़िल्म की सम्प्रेषणशीलता को बढ़ा देती है। सभी का अभिनय काबिल ए तारीफ़ है। फ़िल्म में देहात के मनोरंजन का साधन रहें सांग का भी एक दृश्य है जो बेहद जीवन्त किस्म का है जिससे पता चलता है कि फ़िल्म की पटकथा पर पर्याप्त शोध किया गया है।
एक ज्वलंत विषय पर बनाई गई एक बेहतरीन फ़िल्म है एन एच 10 आप एक बार इस हाई वे पर जब रात को सफर पर निकलतें है सुबह होने के इन्तजार में पलक झपकना भूल जातें है फ़िल्म सवाल खड़े करती है जिसके जवाब हमें खुद तय करने होंगे जिसके लिए यह सफर बेहद जरूरी हो जाता है।

© डॉ.अजीत

(लिखना और भी व्यापक सन्दर्भों के साथ चाहता था मगर मोबाइल से टाइप करने की अपनी सीमाएं है उम्मीद करता हूँ आप तक बात सही पहूंच गई होगी ध्यान रहें मैं कोई फ़िल्म समीक्षक नही हूँ बस सिनेमा का एक ईमानदार दर्शक भर हूँ)


Sunday, March 1, 2015

हैदर

हैदर रिश्तों की सच्चाई और कश्मीर वादी की स्याह हकीकत की महीन पड़ताल करती फिल्म है। फिल्म में दो यात्राएं समानांतर रूप से चलती हैं। एक कश्मीर में पूछताछ के नाम पर उठाए गए लोगो के परिवार की दारुण कथा है, दूसरी रिश्तों की महीन बुनावट में उलझे प्यार की पैमाइश की कोशिश फिल्म करती दिखती है। फिल्म की गति थोड़ी धीमी है मगर एक बार जुड़ने के बाद आप फिल्म के सिरे जोड़ पाते हैं। विशाल भारद्वाज की फिल्मों में स्त्री किरदार को काफी रहस्यमयी ढंग से विकसित किया जाता है। हैदर में भी तब्बु के मिजाज़ को पढ़ने के लिए मन को जीने से नीचे तहखाने में उतरना पड़ता है।
फिल्म में मां-बेटे और भाभी-देवर के रिश्तों को काफी अलग एंगल से दिखाया गया है। हैदर और उसकी मां यानि तब्बु के रिश्तें में एक अलग किस्म की टोन भी है, जो कभी-कभी विस्मय से भरती है। फिल्म उम्मीद, बेरुखी, इश्क और धोखे के जरिए कश्मीर की अवाम के एक जायज मसले पर बात करती नजर आती है। केके मेनन गजब के एक्टर हैं, तब्बु के देवर खुर्रम मियाँ के रूप में उनका काम पसंद आया। श्रद्धा कपूर भी फिल्म में काफी नेचुरल लगी है, वो काफी आगे तक जाएंगी। शाहिद कपूर फिल्म में एक अपने रोल का एक फ्लेवर मेंटन नही रख पाते हैं, कहीं बहुत भारी हो जाते तो कहीं थोड़े कमजोर। वे फिल्म में श्रीनगर के लाल चौक पर कश्मीर की हालात पर एक पॉलिटिकल स्टायर करने के सीन में बेहद गजब की परफोर्मेंस देते दिखे। ओवरआल ठीक ही है। फिल्म में इरफ़ान खान और नरेंद्र झा का रोल काफी छोटा है मगर इरफ़ान खान तो इरफ़ान खान हैं, वो गागर में सागर भर देते हैं। नरेंद्र झा का काम भी बहुत क्लासिक किस्म का है।

फिल्म के गीतों में गुलजार ने कश्मीर की खुशबू भर दी है। उनमें आंचलिकता का पुट है। फिल्म में फैज़ की शायरी फिल्म को असल मुद्दे से जोड़े रखती है। फिल्म का संदेश है इंतकाम से आजादी लिए बिना कोई भी आजादी अर्थहीन है। यह एक काफी गहरी दार्शनिक बात है, जो हमें अहिंसा की तरफ ले जाती है।फिल्म की कमजोरी स्लो होना है, जिन दर्शकों के पास सब्र नहीं है उन्हें फिल्म नहीं देखनी चाहिए। हैदर को महसूस करने के लिए दिमाग का खुला और दिल का जला होना जरूरी है। मौज मस्ती के लिए कोई और फिल्म देखी जा सकती है। विशाल भारद्वाज ने एक संवेदनशील मसले पर एक काफी प्रासंगिक फिल्म बनाई है इसके लिए वो बधाई के पात्र हैं।

-:- डॉ अजीत
मैं कोई समीक्षक नहीं एक आम दर्शक हूं।

‘बेबी’

‘नीरज पाण्डेय’ को बतौर निर्देशक मैं उन निर्देशकों में शामिल करता हूँ जिनकी व्यावसायिक फ़िल्में कभी निराश नही करती है. ‘बेबी’ देश की एक सीक्रेट सुरक्षा एजेंसी के काम करने और देशभक्ति के जुनून की कहानी है. इसकी कहानी की सबसे बड़ी खूबसूरती यही है कि ये काफी कसी हुई कहानी है इसमें आप पल भर के लिए भी फिल्म से बाहर नही निकल पातें हैं.फिल्म के दौरान खुद मैनें अपने व्हाट्स एप्प के मैसेज इग्नोर किए. बेबी देश के लिए जीने का जुनून रखने वाले अफसरों के काम करने की कहानी है. फिल्म के कथानक का केंद्र भले ही आतंकवाद हो परन्तु फिल्म में सामानांतर रूप से एक महीन संवेदना भी यात्रा करती है जिसमे चाहे सुरक्षा से जुड़े अफसर अजय (अक्षय कुमार) का अपनी पत्नी को ये न बता पाना कि वो काम क्या करता है या फिर खुद की बेटी के जन्मदिन पर भी सीक्रेट मिशन के चलते न आ पाना हो. फिल्म में गाने के रूप में एक छोटा सा अंतरा है मगर वो भी बेहद भावपूर्ण है वो पलके नम कर देता है. सारी फिल्म आतंकियों को पकड़ने और उनके मिशन को निष्फल करने की कहानी हैं मगर इतनी खूबसूरती से फिल्म को बुना गया है कि आप फिल्म देखते बेहद रोमांचित रहते है.फिल्म में अजय की पत्नी का फोन पर फोन रखने से पहले अधीर हो यह कहना कि ‘बस मरना मत’ अपने आप में बेहद मारक और भावपूर्ण डायलॉग है जो एक पत्नी की फ़िक्र को बताता है. बेबी में डैनी चीफ कमांडिंग अफसर की भूमिका में बेहद जंचे हैं उनकी बॉडी लैंग्वेज एक शार्प अफसर जैसी है. फिल्म का एक महत्वपूर्ण मैसेज यह भी है कि हम हिन्दू या मुसलमान होने से पहले इंडियन हैं.
फिल्म में सऊदी अरब में रात में रेत पर फिल्माएं गए कुछ सीन वास्तव में बहुत बेहतरीन हैं.बेबी के जरिये हम सीक्रेट मिशन पर काम कर रहे अफसरों की कार्यशैली को नजदीक से जान पाते हैं उनके हौसले जूनून और जोखिम को देखकर आपको फख्र होता है कि कुछ अफसर वास्तव में देश के लिए इस तरह से जीते है.
फिल्म में सभी एक्टर्स ने दमदार काम किया है मुझे फिल्म के कास्टिंग डायरेक्टर का काम विशेष पसंद आया एक एक किरदार के लिए एकदम परफेक्ट चेहरे लिए गए फिल्म में पाकिस्तानी मौलाना का रोल करने वाले का तकरीर और टीवी पर भारत के खिलाफ बोलना एकदम से जीवंत लगता है.अनुपम खेर के जरिए फिल्म में थोड़ा सा चुस्त हास्य भी है. दक्षिण के अभिनेता राणा भी बेहद जबरदस्त लगे है. इंटरवल के बाद थोड़ी सी फिल्म में अतिशय नाटकीयता है लेकिन वो कहानी के साथ घुल मिल जाती है. जब आप फिल्म का एक हिस्सा बन जाते है तब फिल्म का इंटरवल जरूर ऐसा लगता है कि ये बहुत जल्दी हो गया है.
कुल मिलकर मेरे हिसाब से बेबी एक पैसा वसुल फिल्म है जिसको मेरी सलाह से देखा जा सकता है और शायद आपको निराशा हाथ न लगे.

डॉ. अजित
[ मैं  कोई फिल्म समीक्षक नहीं हूँ, क्योंकि समीक्षा करनी मुझे आती नहीं. मै तो सिनेमा का एक ईमानदार दर्शक भर हूँ. ]

‘हाईवे’

संडे मे दोपहर तक एक अकादमिक काम किया उसके बाद फिर अचानक से फिल्म देखने का मूड बन गया समानांतर रुप से दो मित्रो को साथ चलने का निमंत्रण एसएमएस से भेजा लेकिन संयोग से दोनों की ही अपनी-अपनी वाजिब मजबूरी थी उसके बाद अपने एक और दूसरे मित्र डॉ अनिल सैनी को उनके घर के बाहर पहूंच कर सूचना दी कि फिल्म देखने चलना है ताकि वहाँ ना की गुंजाईश न बचे वो बेचारे दोपहर की खाने के बाद की नींद के आगोश में थे लेकिन मै साधिकार आग्रह को ठुकरा न सके उन्होने पन्द्रह मिनट का समय लिया और तैयार होकर मेरे साथ हो लिए हरिद्वार में अधिकांश फिल्में हम साथ ही देखते है।
बहरहाल, ‘हाईवे’ दो भिन्न परिस्थितियों से निकल कर जाए लोगो का एक दिलचस्प सफर की कहानी है उनमे से एक पेशेवर अपराधी है और दूसरी अमीर बाप की बेटी। दो अलग-अलग पृष्टभूमि के लोगो का क्या बेहतरीन रिश्ता विकसित हो जाता है यही फिल्म का मूल कथानक है यह परिस्थिति से सफर पर निकले दो लोगो की कहानी है जिनका जितना सफर उनके साथ चलता है उतना ही उनके अतीत का सफर वो करके आए होते है फिल्म के नायक रणदीप हुड्डा( महावीर भाटी) एनसीआर के आसपास के गांव के एक गुर्जर युवा है जो अपराधी है और फिल्म की नायिका आलिया भट्ट (वीरा त्रिपाठी) एक अमीर बाप की बेटी है जिसका अपहरण महावीर भाटी कर लेता है फिर शुरु होता है उनके साथ का सफर और यह सफर निसन्देह मुझे तो बेहद रोचक लगा।
एक अमीरियत तो दूसरा गरीबी की जद में अपना अपना भोगा हुआ यथार्थ इतनी खुबसूरती से परदे पर जीवंत कर देते है कि मन द्रवित हुए बिना नही रह पाता है फिल्म में बाल यौन शोषण जैसे गंभीर और सम्वेदनशील विषयों को छुआ है इसके लिए इम्तियाज़ अली बधाई के पात्र है। विभिन्न संचार माध्यमों में फिल्म की समीक्षा तो कोई खास अच्छी नही थी लेकिन फिर भी मै इम्तियाज़ अली की वजह से ही फिल्म देखने गया कई बार आपका विश्वास किसी दूसरे के मत से बडा हो जाता है और मुझे खुशी है कि मै निराश नही हुआ।
अभिनय के लिहाज़ से रणदीप हुड्डा ने क्लासिक अभिनय किया एनसीआर मे गुर्जरों की बोली में डॉयलाग बेहद स्वाभाविक और जानदार लगे है वो महावीर भाटी के किरदार मे घुस गए है ठीक इसी तरह वीरा के किरदार मे आलिया भट्ट ने गजब का अभिनय किया है आलिया की यूएसपी उनकी मासूमियत है वो पूरी फिल्म में बेहद मासूम नजर आयी आलिया नें रोने और चीखने के कई दृश्यों में चमत्कारिक परफ़ॉरमेंस दी है निजि तौर पर थियेटर मे मै एक बात को लेकर असहज़ रहा है आलिया भट्ट कें रोने के इंटेस सीन में उनके नाक के दोनो नथुने तेजी से सिकुड और फैल रहे थे जिनका वास्तविक प्रभाव बेहद गजब का था लेकिन कुछ शहरी लोग उसमे भी हास्य निकाल कर फूहडता से हंस रहे थे एक बार मन हुआ कि उन्हे टोक दूं लेकिन थियेटर में एक दर्जन भर लोग होंगे ऐसे मे किस-किस से भिडता लेकिन समूह का ऐसा व्यवहार यह बताता है कि हम कितने संवेदनहीन हो गए है एक घनीभूत पीडा और रोने के दृश्य में लोग उस भाव को ग्रहण करने की बजाए नाक के नथुनों के खुलने-बंद होने पर ठहाके मार कर हंस रहे थे। आलिया के रोने के सीन वास्तव में बेहद मार्मिक है लेकिन शायद लोग सिनेमा हॉल में अपना भावनात्मक विरेचन करने की बजाए पैसा वसूलने की वजह से अधिक जाते है इसलिए उनका कुछ भी करना जायज़ है यह अपनी अपनी संवेदना का मसला है।
कुल मिलाकर हाईवे एक मध्यम गति की फिल्म है जिन्हे जल्दबाजी नही है और जो अच्छी लोकेशनस देखकर आंखो से लेकर दिल तक अच्छा महसूस करते है जो इमोशन को समझना और जीना  चाहते है उनके लिए यह फिल्म देखने लायक है फिल्म की स्टोरी दो अलग-अलग पृष्टभूमि के लोगो के साथ सफर पर निकलने,दिल मिलनें और बिछडने की कहानी है फिल्म का अंत थोडा असहज़ करने वाला है लेकिन इसके अलावा और अंत भी क्या हो सकता था। हाईवे में सहायक कलाकारों का भी अच्छा अभिनय है नाम याद नही आ रहा है लेकिन महावीर के हेल्पर बने ‘आडू’ नें फिल्म में अच्छा काम किया है खासकर उसका आलिया भट्ट के साथ अंग्रेजी गाने पर ठुमके लगाने का सीन अच्छा बन पडा है।
हाईवे आपको तभी पसन्द आएगी यदि आप खुद से लडते हुए किसी अंजान सफर पर कभी निकले है या निकलना चाहते है सफर आपकी आंतरिक जडता को तोडता है साथ ही यह आपकी निर्णय लेने की क्षमता को भी मजबूत करता है जिसमे ह्र्दय परिवर्तन से लेकर जिन्दगी जीने का मकसद सब शामिल है। फिल्म का संगीत ठीक है ए आर रहमान का एक ही गीत जबान पर चढने वाला है बोल फिलहाल याद नही आ रहे है।  

रॉकस्टार: ‘जो हमारे अंदर कहीं रहता है’

रॉकस्टार: ‘जो हमारे अंदर कहीं रहता है’
आज रॉकस्टार फिल्म देखी। फिल्म पुरानी है मगर एक मित्र ने अनुशंसा की तो देखने की वाजिब वजह मिल गई। सबसे पहले तो उस दोस्त का आभार जिसनें एक खूबसूरत फिल्म का हिस्सा बनने के लिए मुझे प्रेरित किया। यह फिल्म मुझसे छूट गई थी इसका अब मुझे मलाल हुआ है। आज फिल्म पर समीक्षा जैसा कुछ नही लिखूंगा बस फिल्म के जरिए खुद के अहसास के खुले पोस्टकार्ड बेनामी पतों पर लिखने और भेजने का मन है। रॉकस्टार एक ऐसे रुहानी किरदार की कहानी है जो हमारे अन्दर ही बसता है खुद से खुद की रिहाई और खुद को खुद के अक्स से देखने की फुरसत ये कमबख्त दुनिया कब देती है और फिल्म इसी ही हिमायत करती है। निजी तौर पर मेरी जो संगीत की समझ कहती है रॉक बैचेनियों का संगीत है। रॉक म्यूजिक रुह की बैचेनियों का लाउड साउंड के जरिए कैथारसिस है वो हमारी बंदिशों को तोडकर हमे आजाद होने की ख्वाहिश का आसमान देता है। रॉकस्टार दरअसल एक ऐसी ही दुनिया की कहानी है जो हम सबके अन्दर एक अमूर्त रुप में बनती बिगडी रहती है। ये भी सच बात है कि कम ही लोग जेजे ( जॉर्डन) की तरह उस अहसास को पहचान पाते है जो दर्द के लिफाफे में अक्सर बैरंग खत की शक्ल में हमारे तकिए के नीचे सिरहारने रखा मिलता है और हम अक्सर करवट बदल सो जाते है। जॉर्डन और हीर दरअसल दो किरदार नही है बल्कि मै उनको किरदार से आगे बढकर दो उन्मुक्त चेतनाएं कहूंगा जो एक दूसरे पर आश्रित भी है और एकदूसरे को जानने समझने की यात्रा पर भी है।फिल्म में नायक और नायिका का आपसी भरोसे का मेआर भी बहुत ऊंचा है जिससे हौसला मिलता है। फिल्म का एक अपना महीन सूक्ष्म मनोविज्ञान है रॉकस्टार फिल्म एक ‘विचित्र अहसास’ को परिभाषित करती है उसके जिन्दगी मे देर सबेर दस्तक होने पर उसके बाद के जिन्दगी मे आये बदलाव को एक नए नजरिए से देखने का जज्बा देती है। फिल्म में मैत्री और प्रेम से इतर भी एक अपरिभाषित रिश्तें की व्यापकता और उसको स्वीकार कर जीने की कहानी भी है। जॉर्डन ( रणवीर कपूर) और हीर ( नरगिस फाखरी) दोनो की सहजता प्रभावित करती है दोनो की प्रयोगधर्मिता आरम्भ मानवीय सम्बंधो को देहातीत होने की सम्भावना को भी पल्लवित करती है। निसन्देह स्त्री पुरुष सम्बंधों मे देह एक मनोवैज्ञानिक सच है यह एक लौकिक तत्व है इसके अलावा पूरी फिल्म में इशक में दरगाह की रुहानियत है बैचेनियों के आलाप है। फिल्म में म्यूजिक लोबान की तरह जलता है और रुह को सुकून अता करता है पूरी फिल्म में एक खास किस्म का अधूरापन भी प्रोजेक्ट किया है जो एक Abstract Emotion के रुप में उपस्थित रहता है।
दरअसल,फिल्म इश्क के जरिए खुद के रुह की बैचेनियों को रफू करने की एक ईमानदार कोशिस है जो इसकी फिक्र नही करती है कि क्या दुनियावी लिहाज़ से ठीक है और क्या गलत है। एक पाक इश्क के ज़ज़्बात को फिल्म एक बिखरी हुई कहानी में पिरोती है और उसी के जरिए दिल की बीमारी का ईलाज़ करती है। फिल्म को देखते हुए खुद का दिल कई बार बेहद तेज धडकने लगता है जिसका एक ही मतलब है कि बात सीधे तक दस्तक दे रही है। दिल का टूटना और दर्द को महसूस करना किसी भी फनकार के लिए जरुरी है फिल्म इसी के सहारे आगे बढती है मगर इस दर्द की कीमत सच में बहुत बडी है यकीनन इश्क का मरहम उसकी मरहम पट्टी जरुर कर सकता है मगर कमबख्त ! इस मतलबी दुनिया न हीर जैसी माशूका मिलती है और न जॉर्डन जैसा आशिक।रॉकस्टार हम सबके अन्दर दबे एक ऐसे वजूद को से हमें मिलवाती है जो सही गलत के भेद मे नही पडना चाहता बस मुक्त हो जीना चाहता है कुछ मासूम अहसासो के जरिए दुनियादारी के लिहाज़ से वो गंद मचाना चाहता है मगर ये गंद मासूम बदमाशियों से शुरु हो रुहों के मिलन पर जाकर खत्म होती है। इतनी हिम्मत जब रब अता करता है तब एक ऐसी दुनिया का हिस्सा हम खुद ब खुद बन जाते है जो इश्क के वलियों की दुनिया है जहां हमारी रुह अपने बिछडे अहसासों से मिलकर थोडी देर के लिए एक रुहानी जश्न मे खो जाती है। ये फिल्म सच में सूफियाना फिल्म है जो हमे खुद के करीब ले आती है भले घंटे दो घंटे के लिए ही सही।

दम लगा के हईशा

दम लगा के हईशा
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यह फ़िल्म मध्यमवर्गीय चेतना के द्वन्द को दिखाने का एक बढ़िया प्रयास है। बेमेल विवाह से उपजे द्वन्द और पारिवारिक परिवेश में ज्ञात से अनभिज्ञता का अभिनय फ़िल्म का केंद्रीय मुद्दा है। प्रेम और संध्या दोनों की यात्रा कल्पना से यथार्थ की यात्रा है। आदर्श पार्टनर का सपना देखना मानव व्यवहार का एक स्वाभाविक पक्ष है और अपेक्षाएं टूटने पर होने वाला द्वन्द भी गहरा होता जाता है मगर यदि आपकी दृष्टि खुद पर आ टिकती है तब आप कल्पना और यथार्थ का भेद समझने लगते है।
फ़िल्म देखते लगता है कि ये अपने मुहल्ले अपने पड़ौस की कहानी है सारे पात्र जाने पहचाने है फ़िल्म में कलात्मक सहजता है और सभी पात्रों को बहुत बढ़िया ढंग से गढ़ा भी गया है। मुझे ऐसी लो बजट की फ़िल्म पसन्द है इनको देखते हुए धारावाहिक और फ़िल्म का मिला जुला आनन्द मिलता है।
सफल सुखद दाम्पत्य के लिए फ़िल्म एक सूत्र भी देती है कि यदि मन का मेल हो जाए तो फिर देह का बेमेल होना खुद ब खुद हवा हो जाता है। फ़िल्म की नायिका संध्या का मोटा होना मुझे तो पसन्द आया और फ़िल्म के मध्यांतर के बाद नायक प्रेम को भी पसन्द आने लगता है।
फ़िल्म कुमार शानु के दौर की याद दिलाती है और कापी के पर्चे पर लिखकर कैसेट रिकॉर्डिंग के दिन याद आते जाते है जिन्हें अतीत का व्यसन है उनको फ़िल्म उसी दुनिया का हिस्सा भी बना देती है। फ़िल्म के अंत में रिश्तों का वजन उठाने के लिए जिस इच्छाशक्ति की आवश्यकता होती है उसे एक रोचक खेल के जरिए दिखाया है यदि आप एक बार यह गुर सीख लेते है तो फिर रिश्तें बोझ नही ताकत बन जाते है।
प्रेम और संध्या का बेमेल विवाह से लेकर प्रेम से मिलन तक की कहानी बहुत छोटे छोटे अहसास बुनती है एक दसवी फेल व्यक्ति की लाचारगी देखते हुए दिल पसीजता भी है।
फ़िल्म में एक गहरा व्यंग्य 'शाखा' और शाखा बाबु पर भी है फ़िल्म का यह प्रयोग बहुत प्रभावित करता हूँ अभिव्यक्ति के खतरे के इस दौर में यह दिखाना साहस का काम है।
फ़िल्म में संजय मिश्रा जैसे मंझे हुए कलाकर भी है उनके रहते फ़िल्म की एक अपनी गति बनी रहती है फ़िल्म में एक किरदार है बुआ का उसने भी बहुत प्रभावित किया है।
कुला मिलाकर एक बढ़िया फ़िल्म है संगीत भी ठीक है बस कुमार शानु की आवाज़ में 90 के दशक को याद करने वाला एक गीत फ़िल्म के अंत में दिया गया है तब तक लोग उठकर चलने लगते है और ये गाना देख नही पाया मैं ये एक गलत बात भी है।
फ़िल्म हरिद्वार ऋषिकेश की कहानी है इसलिए लोकलाइट होने वजह से मुझे और भी जुड़ाव महसूस हुआ फ़िल्म में दो लोगो का एक एक सीन है और ये दोनों लोकल हरिद्वार के ही रहने वाले है जिन्हें मैं व्यक्तिगत रूप से जानता भी हूँ उनकी बड़ी स्क्रीन पर देखना सुखद लगा। यह एक व्यक्तिगत बात भी है।
फ़िल्म में एक महीन सम्वेदना है जिसे समझने के लिए थोड़ा संवेदनशील दर्शक होना एक अनिवार्य शर्त है मसलन मेरे पीछे की सीट पर घटिया हास्यबोध के दर्शक थे जो अपनी स्तरहीन टिप्पणीयों से मेरा मजा जरूर किरकिरा करते रहें ऐसे लोगो के लिए यह फ़िल्म नही है जो पुरुषोचित्त अभिमान में जीते है और देह को एक्स रे की तरह स्कैन कर स्त्री पुरुष के सम्बन्धों को देखने के आदी है।