Friday, November 25, 2016

डियर ज़िन्दगी

'डियर ज़िन्दगी' अच्छी फिल्म है। देखने लायक। खुद के डरों से मिलवाती अंदरूनी लड़ाईयों का इश्तेहार करती फिल्म है। दरअसल ये फिल्म ज़िन्दगी से दोस्ती करने का नुक्ता बताती है वो अतीत के द्वन्द के वर्तमान पर प्रभाव को रेखांकित करती है। प्यार करने के लिए निर्द्वन्द और बेख़ौफ़ ज़िन्दगी चाहिए और जिंदगी से दोस्ती वही कर सकता है जो अपने डरो को विदा कर सके।
अच्छी बात है  अब भारत में ऐसे साइकोलॉजिकल कल्ट विषयों पर मूवी बनी शुरू हो गई है। पेरेंटिंग के रोल और पर्सनलिटी डायनामिक्स पर एक बढ़िया सिनेमेटिक डायलॉग फिल्म शुरू करती है।
डियर जिंदगी देखने के लिए मैच्योर ऑडियंस होना जरूरी है वरना लोग फिल्म के बीच में बोल बोल कर मजा किरकिरा करने से बाज नही आते शायद छोटे शहरों की ही यह दिक्कत हो।
डियर ज़िन्दगी दरअसल जिंदगी के नाम लिखा एक खत है जिसे आप रोज़ अकेले में पढ़ते है फिल्म को देखते वक्त आपको अपनी लिखावट और धूमिल हुए पते को साफ़ साफ़ देखने का अवसर मिलेगा बीच बीच में जहां जहां आँखे नम होंगी समझ लीजिए वो टिकिट चिपकाने का ग्लो है। उम्मीद यह की जा सकती है फिल्म देखकर आप अपने खत ज़िन्दगी के नाम रवाना कर देंगे और दुआ यह है कि आपका कोई खत बैरंग न लौटे।
आलिया भट्ट का शानदार अभिनय है। शाहरुख खान साइकोलॉजिस्ट की भूमिका में अच्छे लगे है, चूंकि मनोविज्ञान मेरा विषय रहा है इसलिए उनको थेरेपिस्ट के रूप में देखकर मुझे और भी अच्छा लगा। रोशार्क (मनोवैज्ञानिक परीक्षण) को फिल्म में देखना अच्छा लगा।
ज़िन्दगी का फलक बहुत बड़ा है उससे आँख मिलाकर बात करने का जो हौसला चाहिए वो हम सब के अंदर मौजूद होता है बस उसे पहचानने की जरूरत भर होती है। डियर जिंदगी देख आप खुद से एक ईमानदार बातचीत कर सकते है एक बच्चे के रूप में खोई हुए चीजों को तलाश सकते है और एक पेरेंट के तौर खुद को प्रशिक्षित कर सकतें है।
गुस्सा,प्यार,डर, एकांत,महत्वकांक्षा इन सब जटिल चीजों को समझने के लिए यह एक फिल्म काफी है। सहज रहने के लिए खुद से मुलाक़ात जरूरी होती है डियर जिंदगी उसी मुलाकात का समन है जो हमें फिल्म देखतें देखतें तामील हो जाता है।
फिल्म में गाने के फिलर के तौर में मौजूद है मगर ठीक ठाक है।
कुल मिलाकर एक देखने लायक फिल्म।

Friday, September 23, 2016

पार्च्ड-2

कल पार्च्ड मूवी देखी। फिल्म देखकर फिल्म के सेंट्रल आईडिया पर एक लंबा क्रिएटिव नोट भी लिखा। आज फिल्म की प्रमुख पात्रों पर लिखने की कोशिश कर रहा हूँ इस उम्मीद के साथ कि आपको तस्वीर और साफ़ नज़र आएगी।
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पार्च्ड का कथानक राजस्थान/गुजरात के सीमांत गाँव पर बुना गया है। जहां रेत ही रेत है कच्चे मकान है बबूल के पेड़ है और उन सबके ऊपर पितृ सत्तात्मक समाज का आकाश है। वहां दकियानूसी और रूढ़ियों की कठिन धूप है जिसकी आंच में मनुष्यता जलती है वहां केवल पुरुषों को निर्णय लेने की आजादी है। स्त्री वहां भोग्या है और पुरुषों के लिए एक कार्मिक और दैहिक टूल भी।
गाँव की पंचायत में भले ही बूढ़े बुजुर्ग गाँव की समस्या सुनने के लिए बैठते है मगर उनके कान महिलाओं की समस्याओं के मामलें में बहरे है उनकी बोली भले ही राजस्थानी/गुजराती है मगर उसमें शोर कमोबेश खाप पंचायत जैसे तुगलकी फैसलों का ही है। उनके हिसाब से कुल और गांव की इज्जत बचाने की सारी जिम्मेदारी स्त्री की है पुरुष का काम केवल छद्म नैतिकता का डंडा चलाने के है और बड़ी चालाकी से गाँव का ये सिस्टम पुरुषों की सारी लम्पटई को सामाजिक स्वीकृति भी देता है। ये सिस्टम नियोजित ढंग से एक निःसहायता का बोध स्त्री के मन में भरता है जो खुद अपने वर्ग की मदद नही कर सकती है मानो मजबूरी उसकी नियति बना दी गई है। फिल्म के एक सीन एक माँ की मजबूर आँखें दिखती है जो जानती है उसकी बेटी के साथ ससुराल में देवर और ससुर द्वारा दैहिक शोषण होता मगर फिर भी वो मजबूर है और बलात उसे ससुराल भेजना चाहती है।
गाँव के अंदर का ये सिस्टम महज राजस्थान के अति पिछड़े गांव की कहानी नही बल्कि ये कमोबेश देश के हर गांव का स्याह सच है।
अब बात फिल्म के किरदारों की करता हूँ।
रानी:
रानी की शादी कम उम्र में हो जाती है। राजस्थान में बाल विवाह एक बड़ी सामाजिक समस्या आज भी है। फिर पति की उपेक्षा को झेलती है क्योंकि पति ने बाहर एक दूसरी महिला से रिश्तें रखे हुए है। सास कहती है एकदिन सब ठीक हो जाएगा मगर रानी की।ज़िंदगी रानी जैसी बल्कि गुलामों जैसी रही और ये सब ठीक होना कभी ठीक नही हुआ। पति एक दुर्घटना में मर जाता है फिर रानी काले बाने में विधवा का जीवन जीने की अभ्यस्त हो जाती है। उसका एक नालायक बेटा है गुलाब है बिन बाप की परवरिश और दोस्तों के कुसंग ने उसको बिगाड़ दिया है उम्र कम है मगर वो मर्द होने के अभिमान से ग्रसित है। रानी को लगता है उसका ब्याह करके वो चैन से सो सकेगी मगर ये चैन उसे आखिर तक नसीब नही होता है।
उसकी अपनी कामनाएं उसने हमेशा के लिए नेपथ्य में भेज दी है वो मेहनतकश है और थोड़ी बहुत हंसोड़ भी। गुलाब उसके जीवन का दूसरा स्थाई दुःख है जो पूरी फिल्म में उस पर तारी रहता है।
लज्जो:
रानी की दोस्त है। पति शराबी है और मारपीट करता है।लज्जो को बाँझ घोषित किया हुआ है। इसी कारण पति का शोषण चरम पर है। लज्जो के अंदर एक बाल सुलभ खिलंदड़पना भी है वो अपने सारे दुःखों को भूलकर रानी के साथ हंसती गाती है।उसकी देह पर चोट के निशान जरूर है मगर असल में उसका स्त्रीत्व जख्मी है वो आत्म सम्मान से जीना चाहती है। उसके वही छोटे छोटे सपनें है मगर पति के शोषण के समक्ष वो बंधुआ है। वो एक सवाल का केंद्र बनती है कि क्या पुरुष बाँझ नही हो सकता है? और जब उसका जवाब उसे मिलता है तो उसकी दुनिया बदल जाती है फिल्म के अंत में उसे शोषण से स्थाई मुक्ति मिलती है।
बिजली:
बिजली रानी की दोस्त है वो नाचने गाने वाली वेैश्या है। रानी की पति शंकर कभी उसका ग्राहक हुआ करता था। एकदिन वो शंकर को उसके घर छोड़ने आई तो रानी ने उसको धन्यवाद कहा और खाना खिलाया। बिजली इस आत्मीयता की कायल होकर रानी की दोस्त बन जाती है। रानी,लज्जो और बिजली तीनों पक्की दोस्त है। बिजली पेशे से जरूर वेश्या है मगर उसकी चेतना रानी और लज्जो की अपेक्षा अधिक मुखर है। वो कड़वे सच को पूरी ईमानदारी से कहने की हिम्मत रखती है उसके समाज से दोगलेपन से घिन्न है। फिल्म के एक सीन में सारी गालियों के केंद्र में महिला होने पर बिजली कुछ नई गालियां ईजाद करती है जिसमें पुरुषों को गाली का केंद्र बनाया जाता है ये स्त्री सशक्तिकरण की नही स्त्री के मन में दबे हुए आक्रोश की अभिव्यक्ति के रूप में प्रकट होता है।
बिजली के पास सपनें है फंतासी है और एक सच्चे प्रेमी की कल्पना वो लज्जो और रानी को सपनें देखना सिखाती है उन्हें उनकी अंदरूनी दुनिया से मिलवाती है। वो उन दोनों की सारथी है उन्हें अंत में उनकी खुशियों तक ले जाती है।
जानकी:
गुलाब की पत्नी है जिसका बाल विवाह हुआ है। रानी एक सख्त सास है मगर उसके मन में वात्सल्य भी है। रानी को लगता है कि जानकी उसके बेटे को सुधार देगी (यह देहात की हर माँ की एक बेतुकी उपकल्पना रहती है) मगर बाद में जब गुलाब शराब पीकर उसके साथ मारपीट करता है तब रानी को जानकी में अपना अतीत साफ नजर आने लगता है। रानी अपनी गलती सुधरती है और जानकी के जीवन को एक सही दिशा देती है यहां वो सास से एक क्रांतिकारी माँ की भूमिका में तब्दील होती है।
गुलाब:
रानी का  बिगड़ैल बेटा है अभी किशोर है मगर उसमें पुरुष होने का दम्भ बेहद गहरा है। मोबाईल में अश्लील एमएमएस की क्लिप रखता है आवारा दोस्तों के साथ घूमता है शराब पीता है और पतन की पराकाष्ठा पर जाकर वेश्यावृत्ति भी करता है। इतनी कम उम्र में उसके ये तेवर देखकर दर्शक को पूरी फिल्म में उस पर गुस्सा बना रहता है।गुलाब के पतन का चरम यहां तक है कि वो अपनी माँ की दोस्त बिजली के पास तक पैसे लेकर वेश्यावृत्ति करने चले जाता है जिस पर उसको थप्पड़ पड़ता है। वो क्रूर पुरुष और शोषक की भूमिका में है बेहद दकियानूस है और गाँव में हर किसी नए किस्म के परिवर्तन का विरोधी है वो पढ़ाई लिखाई को गैर जरूरी समझता है। रानी अंत में उसका मोह छोड़कर एक मिसाल पैदा करती है।
किशन:
गाँव का प्रगतिशील युवा है। जिसने नॉर्थ ईस्ट की लड़की से प्रेम विवाह किया है गाँव में हस्त शिल्प का एक प्रोजेक्ट चलाता है। उसके जरिए गाँव की महिलाएं आत्मनिर्भर हो रही है। वो रूढ़ियों का विरोधी है इसलिए गाँव के पुरुषों की नजरों में खलनायक है। उसकी मदद से महिलाएं गांव में अपने पैसो से टीवी ला पाती है। वो वंचितों का सच्चा मददगार है। रानी की खूब मदद करता है मगर गुलाब उसके लिए जितना बुरा कर सकता है उतना करता है।

फिल्म का मास्टरस्ट्रोक सीन:
फिल्म के एक सीन मेंलज्जो से प्रणय अनुमति लेता एक युवा सन्यासी जब लज्जो के पैर आदर से छूता है तब लज्जो की आँखों से आंसू इस तरह बहते है मानों अंदर बरसों से जमा दर्द का ग्लेशियर फूट पड़ा हो वो अपने जीवन में पहली बार एक पुरुष का यह रूप देखती है जो उसके स्त्रीत्व इस तरह से आदर देता है।पति की मार पिटाई से त्रस्त लज्जो के लिए यह अनुभव दिव्यतम श्रेणी का था। वहां अनुमति लेने की चाह संसर्ग को वासना से इतर एक कलात्मक और चैतन्य अनुभूति में बदल देती है। स्त्री पुरुष सम्बन्ध की पवित्रता और चैतन्यता की वो अद्भुत प्रस्तुति बन पड़ी है।

© डॉ.अजित


पार्च्ड

रेत शुष्क ही नही दरदरा भी होता है इसलिए चुभता भी है,उसे हवा उड़ाती है मगर वो एक जगह न ठहरने के लिए शापित भी होता है। देह और मन दो ध्रुव है जिस पर झूला डाल भरी दोपहरी की लू मे झूलने की कोशिश की जा सकती है भले इसमें देह का ताप बढ़ जाए।
समाज समूह से बनता है मगर समूह के भीतर एक वैयक्तिक नितांत हमेशा बचता चला आता है।जिस पर कभी रूढ़ियों की बेल चढ़ी होती है जो अपनी हरियाली में भी चुभने के स्तर तक जालिम होती है  तो कभी हम  लैंगिक भिन्नता की ओट लेकर खुद एक क्रूर रिवाजों की तिरपाल तान देते है जिसके अंदर वही दिखता है जो हम देखना चाहतें है।
पार्च्ड तीन महिलाओं की आंतरिक दासता की नही बल्कि देशकाल समाज की एक तरफा दुनिया की उपेक्षा से सूखी तीन नदियों की कहानी है। जिसके रेत में ठंडक नही है बल्कि एक किस्म की जलन है जिस पर नँगे पांव चलते हुए दिल और दिमाग दोनों एक साथ जलते महसूस होते है। जिसके किनारे खड़े वृक्ष शीतल छाया नही देते बल्कि बाँझ होकर भी वो हरे भरे दिखने की अति नाटकीयता और छद्म दुनिया का हिस्सा बने होते है।
पार्च्ड सम्भावना की एक यात्रा है जो स्याह सच की रोशनी में सबके हाथ में एक दर्पण थमा जाती है ताकि बंदिशों के कारोबार में हम मनुष्यता की दासता को देखकर अपनी मनोवृत्ति और कुत्सा की उम्र का सही सही अंदाजा लगा सके।
देह का भूगोल मन से जब बैर पाल लेता है तब किस्सों में खुद का वजूद मुखर होकर रूबरू होता है सखा भाव सह अस्तित्व का मूल है इसकी योगमाया स्त्री चेतना की आंतरिक अनुभूतियों के सबसे बड़े केंद्र के रूप में हमेशा सुषुप्त रहती है।
जब खुद से एक गहरी मुलाक़ात होती है तब आंतरिक जड़ता टूटती है और प्रतिशोध पैदा होता है। गाँव देहात की आत्मीयता के जंगल में स्त्री की उम्रकैद का दस्तावेज़ जब अनुवाद के लिए सिनेमेटिक फॉर्म में सामनें आता है तो हम फिल्म देखते हुएअवाक होकर अपने शब्द सामर्थ्य पर खेद प्रकट कर कुछ मोटे मोटे अनुमान विकसित करते पाए जाते है।
बिन बाप का एक बिगड़ैल बच्चा गोखरू की तरह तलवों में चुभता है और ये चुभन दिल ओ दिमाग में फिल्म के अंत तक बनी रहती है। उम्मीद कुछ कुछ हिस्सों में रेत को मिट्टी बनाने की कोशिश करती है ताकि उसके जरिए दासता की लिपि को पोतकर प्यार का नया शब्दकोश रचा जा सकें।
प्रेम,प्रणय और वेदना की युक्तियां जब रेत में सांरगी बजाती है तब आँखों में आंसू होते है और बदन पर अपवंचना के कसे हुए तारों की छायाप्रति। पार्च्ड में उंगलियों पर हल्दी का लेप लगा है जो देह की चीत्कार से बने भित्तिचित्रों को कुरेद कर पहले जख्म की शक्ल देते है फिर उनका उपचार भी आंसूओं से करते है।
वक्त की शह और स्त्री पुरुष सम्बन्धो की आंतरिक जटिलता पर एक गहरा काजल का टीका लगाकर उसको नजर लगाने की कोशिश इस फिल्म की गई है अब तक काले टीके से नजर उतारने की रवायत रही है।यह स्त्री के मनोविज्ञान का आख्यान भर नही है बल्कि उसकी देह के समाजशास्त्र की अटरिया पर सूखतें उसके मन की परतों का महीन लेप बनाती है जो मन के जख्म भरने की दवा भी है और दुआ भी।
फिल्म बहुत कुछ जलाती है और बहुत कुछ अधजला छोड़ जाती है ताकि हम उसे देख ये तय कर सकें कि सभ्यता का विकास असंगतता के साथ क्यों हुआ है और क्यों किसी के हिस्से की खुशी पर किसी और का पहरा है।
अगर पहरे और बंदिशों में खुशियों का एक तरफा कारोबार हमनें समाज की रीत बना दी है तो इसके नफे नुकसान के लिए गर्दन झुका कर अपने उत्पादक तंत्र की पुनर्समीक्षा करनी होगी क्योंकि इस ग्रह के कुछ कुछ हिस्सों में ये निजता और वैयक्तिक संदर्भ की भ्रूण हत्या करके एक ऐसी दुनिया बना रहा है जहां एक आदमी खुश है तो एक आदमी शोषित कम से कम ईश्वर ने मनुष्य को इसलिए नही बनाया था।
पार्च्ड ईश्वर की मनुष्यता से निराशा की दो घण्टे की कहानी है जो अंत में एक चौराहे पर लाकर खड़ा करती है अब ये चुनना हमें खुद होगा कि हम लेफ्ट जाए कि राईट हां ये फिल्म देखकर आप राइट जा सकते है बशर्ते आप दिशाबोध से मुक्त होकर पहले सही को सही और गलत को गलत कहने की हिम्मत विकसित कर लें,मेरे ख्याल से फिल्म का मकसद भी यही है।

© डॉ.अजित

Friday, September 16, 2016

पिंक

शुजीत सरकार संवेदनशील विषयों पर फिल्म बनाने वाले निर्माता/निर्देशकों में से एक है। 'पिंक' ऐसे ही जॉनर की उनकी फिल्म है। इस फिल्म को निर्देशित किया अनिरुद्ध रॉय ने।
 उदारता,सहिष्णुता और ज्ञान परम्परा में विश्व के गुरु होने का दावा करने वाले भारत देश का समाज यथार्थ में कितने पूर्वाग्रहों और स्टीरियोटाइप्ड सोच के साथ जीता है पिंक यह बताती है।जेंडर सेंसेब्लिटी की ट्रेनिंग हमारी कितनी कमजोर है साथ स्यूडो और बायस्ड एथिक्स और मोराल के साथ हम किस तरह का समाज बना पाए पिंक उसी की तरफ हमारा ध्यान ले जाती है।
पिंक केवल कोई फेमिनिज़्म का नारा नही बनती बल्कि समाज के दोहरे मापदंड और हिप्पोक्रेसी को उजागर करती है।
देश की राजधानी दिल्ली में लड़कियां कितनी सुरक्षित है यह फिल्म का केंद्रीय विषय नही है मगर दिल्ली में वर्किंग और अकेली रहती
लड़कियों को लेकर जो सोशल परसेप्शन है फिल्म उसको जरूर उधेड़ती नजर आती है।
पिंक का मूल दर्शन यह है कि 'नो' (नही) का मतलब नही ही होता है ये एक कम्पलीट लॉजिक है इसे किसी व्याख्या की जरूर नही होती है। यदि किसी महिला ने 'नो' कहा है तो इसे नो ही समझना चाहिए न कि बलात उसके नो को सहमति में बदलने की जुर्रत की जाए चाहे वो गर्ल फ्रेंड हो,सेक्स वर्कर हो या फिर आपकी बीवी ही क्यों न हो।
'पिंक' स्त्री मन की महीन पड़ताल करती है देह को लेकर समाज की दृष्टि और उसकी सहजता को उसकी उपलब्धता मान लेने कि एक स्थापित मनोवृत्ति पर सवाल खड़े करती है। इसके अलावा फिल्म के जरिए देश की राजधानी दिल्ली को एक समाजशास्त्रीय संकट से गुजरते भी देख पातें है और वो समाजशास्त्रीय संकट यह है दिल्ली के आसपास के राज्यों जैसे हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सामंती किसान और रियल एस्टेट कारोबारी जब राजनीति में दखल बनाते है और दिल्ली में दबंगई करते है उसके बाद वो एक अलग लकीर दिल्ली के दिल में खींच देते है एक दिल्ली वो है जो महानगर है जिसे कायदे से खुला सुरक्षित और प्रगतिशील होना चाहिए साथ ही वह देश की राजधानी भी है और दुसरे इस प्रोपर्टी कारोबारियों से राजनीतिज्ञ बने लोगो के बिगड़ैल बेटे है जो ठीक से पढ़े लिखे होने के बावजूद भी वही पितृ सत्तात्मक और सामंती सोच के साथ शहर में अपने कद और पद का जमकर दुरूपयोग करते है इनकी जेंडर सेंसेब्लिटी एकदम से जीरो होती है। दिल्ली के अंदर बसता ऐसा देहात नई और ऐसी प्रगतिशील दिल्ली को स्वीकार नही कर पाता है जो ह्यूमन राइट्स और जेंडर सेंसिबल हो यह अंतर्विरोध महिलाओं को लेकर होने वाले अपराधों का एक बड़ा फैक्टर भी है।
फिल्म एक पार्टी नाईट के किस्से पर आधारित है शुरू में स्लो है मगर कोर्ट की कार्यवाही के सीन फिल्म को गति प्रदान करते है।
जब आप मुश्किल वक्त में होते है जब बुद्धिवादी और परिवक्व प्रेमी भी साथ छोड़ देते है उनके लिए इमेज के लिए पलायन अनिवार्य हो जाता है इसलिए उन्हें प्रेमी नही कायर ही कहा जाता है ये फिल्म देखकर पता चलता है।
मीनल अरोड़ा फिल्म की केंद्रीय पात्र है कहानी उन्ही के इर्द गिर्द घूमती है। कहानी आपको फिल्म देखकर ही पता चलेगी। पिंक लड़कियों के संघर्ष और दोस्ती एक भावुक दस्तावेज़ बन पड़ी है।
अमिताभ बच्चन फिल्म में एक ऐसे वकील की भूमिका में है जो वकालत छोड़ चुका है जिसकी बीमार पत्नी है और जो खुद अस्थमा से लड़ रहा है मगर उसकी चेतना जागती है और वो लिंग भेद और उत्पीड़न के संघर्ष में मीनल का साथ देता है। उनका अभिनय अच्छा है मगर वो तभी अच्छे लगे जब कोर्ट में बहस करते है।
फिल्म में कोर्ट रूप में उनका मेक अप थोड़ा जवान दिखाता है और बाहर उन्हें अपेक्षाकृत ज्यादा बूढ़ा दिखाया गया है जहां उनकी सांसे उखड़ी हुई और बोलते वक्त सांस की धौकनी चलती है फिल्म में उनका पहला डायलॉग उनके अस्थमा की आवाज़ के कारण मै सुन ही नही पाया।
कुछ पात्र अनावश्यक फिल्म में रखे गए है अमिताभ की पत्नी की भूमिका भी इसी श्रेणी की है जिनके एक दो अस्पताल के सीन है बाद में उनकी तस्वीर पर फूल ही चढ़ते दिखाई दिए।
पिंक में पुलिस का रवैया भी देखने लायक है वो कैसे राजनीतिक दबाव में किसी केस को कैसे बदलती है। हालांकि मीनल की पहली शिकायत वाले सीन को दीपक सिंहल(अमिताभ बच्चन) ने बतौर वकील केस में क्यों इस्तेमाल नही किया ये बात मुझे समझ नही आई आपको आए तो जरूर बताइएगा।
इसके अलावा फिल्म के शुरुवाती कुछ सीन्स में न जाने क्यों अमिताभ बच्चन मास्क लगे स्पाई बने रहते है इसका भी कोई लॉजिक समझ नही आता।
पिंक तकनीकी रूप से एक स्लो फिल्म है जो धीरे धीरे गति पकड़ती है। वकील की भूमिका में  पीयूष मिश्रा ने भी कमाल की एक्टिंग की है।
पिंक महिलाओं से अधिक पुरुषों के देखने लायक फिल्म है बशर्ते वो इससे एक मैसेज़ ग्रहण करें और अपनी लैंगिक सम्वेदनशीलता में इजाफा करें।
देख आइए आप भी। पिंक का रंग हमारी आँखों पर पुते पूवाग्रहों के काले चश्में से मिलाता है चश्मा उतरेगा तो पिंक की खूबसूरती उसके अस्तित्व की सम्पूर्णता और सह अस्तित्व के दर्शन को जीने में साफ़ साफ़ नज़र आएगी।
© डॉ.अजित

Wednesday, August 17, 2016

बर्फी

'बर्फी' महज़ एक फिल्म नही है बल्कि ये एक जज़्बाती दस्तावेज़ है जिसे दिल बार बार पढ़ना चाहता है। बेहद कम संवादों के मध्य फिल्म मन के अंदर इतना कोलाहल भर देती है कि कई बार पलकें भीग जाती है।
झिलमिल और बर्फी का प्यार हो या बर्फी और मिसेज़ सेनगुप्ता का प्यार दोनों में एक चीज़ कॉमन है वो रिश्तों और जज्बातों की पाकीज़गी। कहीं ये शेर पढ़ा था ' ये सदियों की इबादत का सिला होता है,हर किसी की किस्मत में कहां इश्क लिखा होता है' बर्फी की दोनों नायिका इस मामलें में खुशकिस्मत थी कि उन्हें बर्फी का प्यार हासिल हुआ ये अलग बात है कि बर्फी को हासिल करने की हिम्मत झिलमिल के अंदर ज्यादा थी।
'बर्फी' फिल्म की अंदर की दुनिया जितनी खामोश दिखती है दरअसल वो उतनी ही मुखर है और प्रेम की मौन भाषा को समझने के लिए बर्फी एक उम्दा फिल्म है। बर्फी को देखते हुए साँसों से भी खलल पड़ता है ये दर्शक से इस किस्म की नीरवता चाहती है धड़कनों की हलचल से आँख की नमी बहने की जुर्रत रखती है।
रणबीर कपूर और प्रियंका चोपड़ा की आउटस्टैंडिंग परफॉर्मेन्स है एक्टिंग के मामले में प्रियंका सब पर भारी पड़ी है ऑटिज़्म से पीड़ित लड़की का किरदार क्या कमाल का निभाया है।
बर्फी और झिलमिल दो पतवार की तरह फिल्म में है जो कहीं भी नाव चलाकर उस पार हो जाते है। मिसेज़ सेनगुप्ता का बर्फी को लेकर अनुराग भी अपने आपस एक डिवाइन प्लीजर देता है उनके अंदर की हिम्मत देर से जागती है मगर जब जागती है तो बेपरवाह हो जाती है। यकीनन इश्क ऐसी ही बेपरवाही और जुनून की मांग भी करता है तभी आप इसमें कामिल हो सकते है।
बर्फी का जूता उछाल कर झिलमिल को पुकारना हो या फिर आखिर में झिलमिल का बर्फी को अपने पीछे छिपाना हो दोनों की सीन इश्क की इंतेहा के बेहद जीवंत उदारहण है। फिल्म की एक खासियत यह भी है प्रेम त्रिकोण होने के बावजूद भी फिल्म में तनाव नही है सब कुछ सहज है।
इश्क में साथ जीना और साथ मरना इंसान को वली बना देता है और बर्फी और झिलमिल यकीनन इसके लिए काबिल थे। जो पीछे छूट जाता है वो यादो का कारवां होता है और जो याद करने वाले बच जाते है ये उनकी नियत त्रासदी होती है।
मूक बधिर किरदारों के जरिए बुनी एक क्लासिक प्रेम कथा है बर्फी जब भाषा गौण हो जाती है तब अस्तित्व मुखर हो जाता है फिर वही सहजता भी बसने लगती है। प्यार आदमी को कितना खूबसूरत बना देता है ये बात बर्फी देखकर पता चलती है। इश्क के हिस्से में हमेशा अधूरेपन के किस्से आते है इसलिए मिसेज़ सेनगुप्ता एक अधूरे किस्से की नायिका बन जाती है मगर मेरे ख्याल से उनका अधूरापन भी अपने आप में एक पूर्णता लिए है उनके मन में अंत तक बर्फी के लिए प्रेम उसी संपूर्णता में बना रहता है और वो घर छोड़ते वक्त पल भर के लिए भी नही सोचती कि अब यहां वापसी नही होगी कभी।
हाथ की सबसे छोटी उंगलियों की दोस्ती के जरिए झिलमिल और बर्फी हमें सिखा जाते है कि सबसे गहरे और मजबूत बॉन्ड छोटी छोटी चीज़ों के आपस में अधिकार से जुड़ने से बनतें है। मामूली सी ज़िंदगी की खुशियां आसमां जैसी बड़ी हो सकती है बशर्ते आपके पास सच्चे प्यार करने वाले दोस्त हो ये बात बर्फी देखतें हुए बार बार दिल पर दस्तक देती है।
एक बढ़िया फिल्म जिसको बार बार देखा जा सकता है।

Friday, April 1, 2016

की एंड का

की एंड का : निर्देशक आर बाल्की का एक और मास्टर स्ट्रॉक
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जेंडर की कंडीशनिंग और स्टीरियोटाइप सोच के बीच खुद के अस्तित्व को ईमानदारी से समझनें के लिए की एंड का फ़िल्म मददगार साबित होती है। रिवर्स रोल के विषय पर एक बढ़िया हल्की फुलकी फ़िल्म आर बाल्की ने बनाई हैं।
मेल फीमेल ईगो को जॉब और होम के कॉन्टेक्स्ट में समझनें के लिए फ़िल्म रास्ते सुझाती है। वर्किंग वाइफ और हाउस केयर टेकर हस्बैंड के रिश्ते की महीन बुनावट फ़िल्म की बड़ी यूएसपी है।
जेंडर इक्वेलिटी जैसे सम्वेदनशील विषय को समझनें के लिए ट्रू लव का फ़िल्म में सहारा लिया गया है मगर ह्यूमन बिहेवियर की एक डायनामिक्स के रूप में ईगो और अटेंशन को भी बहुत बढ़िया सिनेमेटिक फॉर्म में दिखाया गया हैं।
फ़िल्म का एक अपना फ्लेवर है बहुत टेंश फ़िल्म कहीं नही होती है हंसाती भी है और खुद की तरफ सवाल करने का हौसला भी दे जाती है। की यानि किया और का यानि कबीर की केमेस्ट्री देख अच्छा लगता है।
की एंड का में टॉय ट्रेन का बढ़िया प्रतीकात्मक प्रयोग किया गया है दो पटरी और एक रेल घर की भावनात्मक संरचना भी लगभग ऐसी ही होती है।
मेल फीमेल की रोल आइडेंटिटी और ईगो फ्रिक्शन को फ़िल्म के जरिए आर पार देखा जा सकता है हालांकि फ़िल्म की केंद्रीय ऊर्जा अंकण्डीशनल लव है इसलिए की और का के लव की रेलगाड़ी कुछ सुनसान स्टेशनों से गुजरती हुई फाइनली अपने डेस्टिशन तक पहुँच ही जाती है।
फ़िल्म का संगीत भी बढ़िया ख्वाहिश है मजबूरी नही गाना मुझे बेहद पसन्द आया उम्मीद है आपको भी आएगा।
यदि थोड़ी फुरसत है तो देख आइए की एंड का अच्छा लगेगा खुद को भी और खुद के अंदर बैठे वाइस वर्सा करेक्टर को भी।

Monday, January 11, 2016

बाजीराव मस्तानी

'बाजीराव मस्तानी' दिल के तहखाने में एक ऐसी सुलगती चिंगारी रख देती है जिसका धुंआ बहुत धीरे धीरे रिसता है मगर जब एक बार इश्क का लोबान जल उठता है तो दिल की हर दीवार सवाली हो जाती है।
इश्क मुरीद और मुराद के बीच बहता एक सूखा दरिया है जहां दीवानगी को साहिल पर खड़े हो देखा नही जा सकता है इश्क के जुनून को जीने के नंगे पाँव उस तपती रेत पर चलना पड़ता है जिसे दिल की सदा के नाम से जाना जाता है।
मस्तानी की धड़कने एक बार बगावत पर क्या आई उसने इश्क को आयत की तरह पढ़ लिया और इबादत की तरह जिया। बाजीराव सच में असली लड़ाका का था वो दो जंग एक साथ हार गया एक अपने दिल की और दूसरी अपनों की।
काशी की कसक मस्तानी की इश्किया ठसक और बाजीराव का किरदार फ़िल्म में इश्क की ऐसी जुगलबंदी सजाती है कि हम अहा, आह और वाह को बारी बारी दोहरातें है।
बाजीराव मस्तानी इश्क में हिम्मत जूनून और पाकीजगी  का एक ऐतिहासिक दस्तावेज है रूढ़ियों, पूर्वाग्रहों और धर्म के आग्रहों के बीच एक योद्धा के इश्क की बड़ी सीधी सपाट कहानी है।
दिल के हाथों जब रूह मजबूर हो जाती है तब मस्तानी कमली हो बाजीराव की पनाह में आती है जिल्लत के बाद भी उसका यकीन इश्क के पुख्ता होने का ऐसा तावीज़ बनता है जिससे लाख बलाएँ टल सकती है।
बहादुरी और इश्क का जो रिश्ता होता है वही बाजीराव और मस्तानी का है।
संजय लीला भंसाली ने फ़िल्म के कलात्मक पक्ष को इतनी महीनता से गढ़ा कि फ़िल्म देखतें समय हम खुद को मराठा साम्राज्य का एक हिस्सा मानने लगती है। फ़िल्म का फिल्मांकन गजब का मस्तानी दीवानी हो गई गाने में जो सुनहरा पर्दा उन्होंने रचा उसे देख सच में दर्शक मन्त्र मुग्ध हो जाता है। देवदास में पारों और चन्द्रमुखी को तथा बाजीराव मस्तानी में काशी और मस्तानी को एकसाथ नचाने का हुनर केवल भंसाली को ही अता है ये काम केवल वही कर सकते है वो भी बाकमाल।
फ़िल्म का अंत इश्क में मिलनें के लिए तबाह होने का मन्त्र हमारे कान में फूंकता है। इश्क इबादत होने के बावजूद टूटकर जब बिखरता है तब ये बर्दाश्त करना मुश्किल हो जाता है।
बाजीराव और मस्तानी फ़िल्म के अंत में कुछ इस तरह से मिलें कि आँखों में धुंधलका छा गया मगर अफ़सोस नही हुआ क्योंकि इससे बेहतर दो इश्कजादों का मिलन हो भी नही सकता था।
काशी का किरदार भी बहुत उम्दा है उसकी आँखों में सतत् बैचेनी देखते हुए भी उसके लिए दुआ और हमदर्दी नही निकलती क्योंकि उस पर हक इश्क में सजदा किए मस्तानी ने बना लिया था।
बाजीराव मस्तानी एक बढ़िया कलात्मक मूल्यों से  भरा हुआ गहरा प्रेम आख्यान है जिसका अंत त्रासद होते हुए भी इश्क के मुरीदों की आँख में पाकीज़ा सूरमा लगा जाता है।