Thursday, July 27, 2017

डियर शैफाली

डियर शैफाली,
उम्मीदन तुम अच्छी ही होंगी इसलिए कुशल क्षेम की औपचारिकता में नही पड़ना चाहता हूँ. जमाने भर मे मैं फिलहाल थोड़ा चिट्ठीबाज़ के तौर पर बदनाम हो चुका हूँ. आज जब जमाने में हर कोई गति से प्यार कर रहा है मैं आज भी उस दौर में अटका हुआ हूँ जब ख़त, रोशनाई और इंतज़ार में एक गहरी दोस्ती हुआ करती थी. मैं पीछे देखता हूँ और मुस्कुराता हूँ. मेरे पास लिखावट की शक्ल में कुछ अच्छी यादें है. दिन ब दिन जटिल होती जिंदगी में मेरे पास ख़त और किताबों की एक छोटी सी दुनिया है इसी दुनिया के भरोसे मैं जीवन के बेहतर होने की उम्मीद को जिंदा रख पाता हूँ.
बहुत दिनों से मेरे ख्यालों में यह खत दस्तक दे रहा था मगर मेरे पास आपका कोई मुक्कमल पता नही था और ख्याल भी बेहद उलझे हुए थे इसलिए मैंने  कुछ दिन आपका पता और कुछ दिन ख्यालों के बाल संवारने में लगा दिए. आज सुबह वो ख्याल मुझे स्कूल जाती किसी लड़की के दो चोटियों जैसे मासूम खड़े मिले मैं उन्हें देख मुस्कुराया और फिर खुद को समेटकर यह खत लिखने बैठ गया.
मेरी  अब तक की बातों से यह साफ़ अनुमान लगाया जा सकता है कि मैं एक आत्ममुग्ध शख्स हूँ क्योंकि आपको चिट्ठी लिखते वक्त भी मैंने भूमिका के केंद्र में खुद को रखा है मगर यह मेरे वजूद का आधा सच है और जो बचा हुआ सच है उसमें कुछ किरदार मेरे इर्द-गिर्द जमा है जिनसे मेरे लगभग रोज़ ही बतकही हो जाती है यह किस स्वप्न में बडबडाने जैसा समझा जा सकता है.
जिन किरदारों के तसव्वुर के जले मेरे दिल ओ’ दिमाग में लगे है उनमें से एक मौजूं किरदार आप भी है. मैंने आपकी ज्यादा फ़िल्में नही देखी है मगर बड़ी या छोटी स्क्रीन पर जब भी आपको देखा है तो आपके वजूद में एक खास किस्म का सम्मोहक ऑरा मैंने महसूस किया है. यह एक बड़ा विस्मय से भरा सम्मोहन रहा है मेरे लिए  आपको देखते हुए हर बार ऐसा लगा कि जैसे कुछ सवाल जवाब की शक्ल में मेरे सामने खड़े है.
आपको आँखों में जज्बाती सरहदों में कुछ मसलें दफ्न है जिन्हें देख ऐसा लगता है कि जैसे खुद खुदा ने अपने चूल्हे से बुझी लकड़ी निकाल कर आपकी आँखों पर काज़ल की गिरहबंदी कर दी है ताकि कुछ दिन मनुष्य अपनी अपनी कामनाओं को प्रार्थना की शक्ल में रूपांतरित करने का हुनर सीख सकें. आपकी पलकों के झपकने का अंतराल मैं अपने मन के दस्तावेजों में कुछ इस तरह दर्ज करता हूँ जैसे कोई जलकर्मी नदी के बढ़ते हुए जलस्तर को घंटो के हिसाब से दर्ज करता है और फिर प्रमाणिकता से नदी के खतरे के निशान से ऊपर बहने की चेतावनी जारी करता है. मैं  आपकी आँखों को समंदर नही कहूंगा क्योंकि समंदर अथाह होता है और यह अंतिम प्राश्रय देता है. मेरे पास इतना प्रतिक्षा के धैर्य का अभाव है इसलिए मैं आपकी आँखों में देखता हूँ और अपने सफर के जरूरी सामानों की एक लिस्ट बनाने लग जाता हूँ इस तरह है मैं इन आँखों में देखते हुए अपने सफ़र की जरूरी तैयारी करता हूँ. मुझे उम्मीद है इनमें जो उदासीनता की चमक है उसके भरोसे मैं अँधेरे में अपनी गति से सुनसान जंगल पूरे उत्साह से गाना गुनाते हुए पार कर सकता हूँ.
यह बात मुझे ठीक से पता है कि अभिनय की दुनिया अपने आप में एक बड़ी आभासी दुनिया है मगर मुझे मुद्दत से आभास को यथार्थ और यथार्थ मान कर जीने की एक खराब आदत हो गई है. जिन्दगी मगर हमेशा अच्छी आदतों के भरोसे कहां जी जाती है इसलिए इस खराब आदत के सहारे मैं आजकल अपने सपनों पर इस्त्री करके उनकी तह लगाकर उन्हें एक अज्ञात बक्शे में जमा कर रहा हूँ. आपको देखने के बाद मैं जीवन का यह सच जान गया हूँ कि जो सपने हम नींद में देखते है वो दरअसल केवल हमारी अतृप्त कामनाओं की छाया होती है.चूंकि आपसे मेरी किसी किस्म की कोई कामना नही जुडी है इसलिए आपसे कभी सपने में मुलाक़ात नही हुई है. मैं इसी कारण आपकी आभासी उपस्थति को वर्तमान का एक सच मानता हूँ.
आपके पास एक विस्मय से भरी दृष्टि है जिससे खुद को बचा पाना लगभग नामुकिन है यह नज़र ठीक वैसी है जैसे किसी पहाड़ी बागान में चाय की पत्तियां चुनती महिलाओं की होती है जो अपनी चाय की पत्तियाँ चुनती है और फिर विस्मय से उनके भार का अनुमान लगाती है. आपको देखकर खुद के अनुमान कौशल को आजमाने का दिल करता है मगर फिर मैं इसलिए ठहर जाता हूँ  शायद हमेशा खुद को सिद्ध करने वाले पुरुष आपको बेहद निर्धन लगतें होंगे. आप मनुष्य को उसके नैसर्गिक रूप में देखना पसंद करती हैं इसलिए मैंने खुद को संभावनाओं और विकल्पों से मुक्त रखने का अभ्यास विकसित किया है यद्यपि मैं इसमें पूर्णत: सफल नही हूँ मगर फिर भी मुझे लगता है जिनके पास कोई योजना न हो ऐसे लोगो को आप हिकारत की नजर से नही देखती होंगी.
पिछले दिनों मैं सौन्दर्य की टीकाओं पर किसी से बात कर रहा था उनका मत था कि सौन्दर्य स्वत: प्रकट नही होता है उसे प्रकाशित करना पड़ता है मैं उन सज्जन से सहमत होना चाहता था मगर तभी मेरे ध्यान में आप आ गई आपको देखकर साफ़ तौर पर सौन्दर्यशास्त्र के इस सिद्धांत की मैं साधिकार अवहेलना कर सकता हूँ कि सौन्दर्य स्वत: प्रकट नही होता है. अलबत्ता तो सौन्दर्य का  विश्लेषण करना खुद में सौन्दर्य का एक अपमान है मगर आपको देखकर मुझे हमेशा से ऐसा लगता है कि आपके पास ऐसा सौन्दर्य है जिसे हम शास्त्रीय मान अप्राप्य नही समझ सकते है जो बुनावट में इतना महीन है मगर वो हमारे आसपास के चेहरों से इतना मिलता जुलता है कि आपको देखकर कभी ऐसा नही लगता है कि आप ऐसी स्टार है जो हमसे इतनी दूर है कि जिस पर बात करते हुए भौतिक दूरी और सामाजिक स्थिति से हमें हीनता का बोध घेरता हो. इसलिए मैं आपको लौकिक तौर बेहद खूबसूरत घोषित करता हूँ क्योंकि मुझे यह बात साफ़ तौर पर पता है कि अलौकिक सुन्दरता का वर्णन करने वाले लोग खुद से झूठ बोलते है और अपरिमेय,अप्राप्य वस्तुओं के दूर होने पर खुद को एक बुद्धिवादी सांत्वना देते है.  
अंत में आपकी हंसी पर एक बात कहना चाहूंगा आपकी हंसी कुछ कुछ वैसी है जैसे कोई मल्लाह सुबह अकेला नाव लेकर समंदर में चला गया हो और जाल को सुलझाने के चक्कर में बिना जाल फेंके फिर से किनारे लौट आया हो. आपकी हंसी मुझे  थोड़ी कुलीनताबोध से भरी मगर थोड़ी जजमेंटल किस्म की लगती थी मगर बाद में मैंने अपने इस निष्कर्ष को अपने मन का एक पूर्वाग्रह पाया दरअसल आपकी हंसी में कोई एन्द्रिक अधीरता नही है यह किसी इंतज़ार के चरम को महसूस करके सीधे हृदय से प्रस्फुटित होती है इसलिए आपकी हंसी को देखते हुए मनुष्य कम से कम अपने दुखों की भावुक प्रस्तुति भूल जाता है. इसलिए भी दुःख आपको नापसंद करते है.
आदतन चिट्ठी लम्बी हो गई है दरअसल मैं जब कुछ कहना चाहता हूँ तो फिर मैं एक नदी की तरह बहना चाहता हूँ हो सकता है मेरे किनारे मेरी बात ध्यान न सुनतें हो मगर मुझे भरोसा है  मेरी गति और यात्रा एकदिन मेरी तमाम बातें ठीक ढंग से संप्रेषित करने में सफल सिद्ध होगी. ये खत भी उसी यात्रा का एक हिस्सा भर है मुझे उम्मीद है देर सबेर यह आपके सही पते तक जरुर तामील होगा.
फिलहाल के लिए इतना ही...शेष फिर !
आपका एक दर्शक

डॉ.अजित  

Tuesday, July 25, 2017

लिपस्टिक अंडर माय बुर्का

लिपस्टिक अंडर माय बुर्का
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हिज़ाब में रोज़ी के महकतें सपनों की दास्तान
कामनाओं का अपना एक तिलिस्मी संसार होता है. आदमीयत की अंदरुनी दुनिया अमूर्तन के सहारे बड़ा विचित्र सा संसार बुनती है और जब हम एक औरत की अंदरुनी दुनिया देखने की कोशिश करतें है तो उसकी पेचीदगियां हमें विस्मय से भरती है. मगर ये विस्मय विशुद्ध रूप से एक पुरुष का विस्मय हो ऐसा भी नही है. जब एक स्त्री खुद से गहरी मुलाक़ात करने अपने मन के तहखाने में उतरती है फिर वहां मन और देह कुछ समय अक्लांत हो जीना चाहते हैं. वो हर किस्म की कन्डीशनिंग से मुक्ति चाहते है. ये चाहतें जब बाहरी दुनिया में आकार लेती है तो हम इन्हें तथाकथित वर्जनाओं से अतिक्रमण के रूप में देखतें है. ऐसा देखने का हमारा एक तयशुदा सामाजिक प्रशिक्षण है.
यह फिल्म स्त्री मुक्ति का कोई वोकल नारा नही देती है और ना ही इस फिल्म के जरिए समाधान की शक्ल में कोई निष्कर्ष तय कर सकतें है मगर यह फिल्म चार महिला किरदारों में माध्यम से उनके जीवन में बसे आंतरिक आकर्षणों और उसको पाने के लिए की गई जद्दोजहद का एक बढ़िया रूपक प्रस्तुत करती है.
जेंडर के संदर्भ में समाज का एक अपना ज्ञात सच है और इसी ज्ञात सच को हमें अंतिम रूप से मानने के लिए समाज तैयार करता है इसमें कोई दो राय नही कि लैंगिक पूर्वाग्रह और भेदभाव के चलते पुरुष ने खुद को एक सत्ता के रूप में स्थापित किया है समाज की अंदरूनी लोकतंत्र बेहद कमजोर और डरा हुआ है इसलिए सवाल करती हर स्त्री को वो एक सांस्कृतिक खतरे के तौर पर प्रोजेक्ट करता है.
रोज़ी एक औपन्यासिक नाम है जो फिल्म की सूत्रधार है प्रतीकात्मक रूप से देखा जाए तो यह मन के बीहड़ में उगा कामनाओं का गुलाब है जो मुरझाना नही चाहता है और अपने लिए हवा खाद पानी का प्रबंध करने के लिए हर स्त्री को अपने अपने ढंग से उकसाता है उसे सपने देखने की हिम्मत देता है.
लिपस्टिक अंडर माय बुर्का फिल्म में कायदे में हमें केवल एक लड़की और एक महिला बुर्के में नजर आती है मगर ये बुर्का स्त्री के अस्तित्व पर पड़ा वर्जनाओं और रूढ़ियो का सदियों पुराना पर्दा है जिसके अन्दर का अन्धेरा देखने की कभी कोई कोशिश नही होती है. यह फिल्म व्यक्तिवादी चेतना के जरिए स्त्री के आंतरिक संघर्षों को सेक्सुअलिटी के संदर्भ में रेखांकित करने की एक अच्छी कोशिश है.
यदि हमें इसे एक सामाजिक यथार्थ के रूप में देखें तो यह आधी आबादी का एक संगठित सच है मगर चूंकि फिल्म कोई आन्दोलन या नारा नही है इसलिए फिल्म का नेरेशन इस द्वंद से लडती स्त्री को कोई रास्ता नही दिखाती है. यह फिल्म मध्यमवर्गीय स्त्री की मन और देह के स्तर पर एक शुष्क मनोवैज्ञानिक रिपोर्टिंग करती है सिनेमा यदि दिशा का बोध कराए तो उसका कोलाज़ बड़ा हो जाता है. यहाँ फिल्म थोड़ी कमजोर पड़ गई है.
एक अधेड़ स्त्री जो जंत्री में रखकर कामुक साहित्य पढ़ती है, एक ब्यूटी पार्लर चलाने वाले लड़की जो सेक्स को ही प्रेम और आजादी का प्रतीक मानती है जबकि उसकी खुद की मां न्यूड पेंटिंग्स के लिए मजबूरीवश मॉडलिंग का काम करती है, एक लड़की जो कालेज गोइंग है मगर बुर्का और परवरिश के धार्मिक संस्कारों के बोझ के तले दबी है वो खुल कर जीना चाहती है. जींस,शराब,सिगरेट, बूट, परफ्यूम, नेलपेंट उसके आयुजन्य और परिवेशजन्य आकर्षण है जिसके लिए शोपिंग माल में चोरी तक करती है,एक मुस्लिम महिला जिसका पति प्यार और सेक्स में भेद नही जानता है जो मेल ईगो से भरा हुआ है और जिसे औरत का काम करना खुद के वजूद की तौहीन लगता है जो संसर्ग के नाम पर हमेशा बलात्कार करता है.
ये चार महिलाओं का किरदार इस फिल्म में स्त्री समाज का वर्ग प्रतिनिधित्व करने के लिए गढ़े गये है निसंदेह चारों ही समाज का अपने-अपने किस्म का सच भी है . इन चारों स्त्रियों के पास एक अपरिभाषित किस्म का सपना है और रोज़ उसके पीछे भागने की एक जुगत भी है मगर कामनाओं के दिशाहीन संसार में जब आप अकेले दौड़तें है तो एक दिन थककर बैठना आपका निजी सच बन जाता है. यही सच स्त्री के आंतरिक एकांत का भी सच फिल्म के जरिए हमें देखने को मिलता है.
आजादी और बराबरी के डिस्कोर्स में फिल्म देह की तरफ झुकती है तो कभी कभी उत्तर आधुनिकता यथा सेक्स, शराब,सिगरेट के जारी प्रतीकात्मक रूप बराबरी के मनोवैज्ञानिक दावें को भी प्रस्तुत करती है मगर फिल्म का अंत कोई एक स्टेटमेंट नही बन पाता है. सपने देखना जरूरी है और अपनी खुशी की चाबी खुद के अंदर होती है मौटे तौर पर फिल्म यह उद्घोषणा करके खत्म हो जाती है.
लिपस्टिक अंडर माय बुर्का के जरिए हम आधी दुनिया का आधा सच जान पाते है और यदि फिल्म देखकर हम मात्र यह धारणा बना लें कि स्त्री मुक्ति का रास्ता देह की आजदी से जाता है तो यह भी एक किस्म की जल्दबाजी होगी दरअसल आजादी और बराबरी को एक फिनोमिना के स्तर पर समझाना इतना आसान काम भी नही है यह फिल्म जीवन के उस पक्ष पर एक सार्थक बातचीत करती है हम जिसका शोर रोज़ सुनते है मगर सुनकर भी जिसे हम अनसुना कर देते है मेरे ख्याल से फिल्म की यही सबसे बड़ी सफलता है.
लिपस्टिक अंडर माय बुर्का के जरिए हम मध्यमवर्गीय चेतना के नैतिकता और यौनिकता से जुड़े ओढ़े हुए समाज के पाखंड को देख सकते हैं यह फिल्म हमें उस दुनिया में ले जाती है जहां एक स्त्री अपने एकांत से भागकर अपनी कामनाओं का पीछा कर रही है उसे थकता हुआ देखकर पुरुषवादी मन को संतोष मिलता है और फिल्म इस लिहाज़ से अपना काम बेहतरी से कर गयी है क्योंकि इस फिल्म में कोई कोलाहल नही है मगर फिर भी द्वंदों की एक मधुमक्खी वाली सतत भिनभिनाहट जरुर है जिसे छूने पर डंक का खतरा महसूस होता है मगर स्त्री उसे छूती है और अंत में अपने दर्द पर उत्सव की शक्ल में रोते-रोते हंसने लगती है.
© डॉ. अजित