Saturday, October 6, 2018

पटाखा: एक मन ओ’ वैज्ञानिक पुनर्पाठ


पटाखा: एक मन ओ’ वैज्ञानिक पुनर्पाठ 
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भारतीय काव्य शास्त्र में ध्वनि और औचित्य दो बड़े सिद्धांत है. पटाखा शब्द लोक प्रहसन की दृष्टि से जुमला भले ही हो, मगर ध्वनि सिद्धांत की दृष्टि से इसके व्यापक अर्थ हैं. यह विस्फोट का प्रतीक है और विस्फोट जड़ता को तोड़ने के लिए एक अनिवार्य उपक्रम है. इसलिए मैं यहाँ पटाखा को मन की अमूर्त जड़ताओं को तोड़ने के एक साधन के तौर पर देख रहा हूँ. कला के विभिन्न माध्यमों का एक औचित्य होता है बिना औचित्य के सृजन अकारथ होता है ऐसा आचार्यों ने माना है. सिनेमा को कला का एक प्रभावशाली माध्यम मानते हुए इसके व्यापक औचित्य को समझा जा सकता है. मनोविज्ञान और दर्शन कला के माध्यमों को विरेचन का बड़ा साधन मानते है. कला के विभिन्न माध्यम मानवीय संवेदना के अमूर्त तत्त्वों का आम जन के साथ तादात्म्य स्थापित करने के ही साधन है इसलिए हम दृश्य-श्रृव्य माध्यम से जुड़कर भावुक होकर रोने लगते है या हंसने लगते है.
विशाल भारद्वाज की अधिकाँश फ़िल्में साहित्य का एक प्रभावशाली सिनेमेटिक क्रिएशन करने में समर्थ सिद्ध हुई है इसका कारण है वो खुद साहित्य के सजग पाठक है और उनके पास एक व्यापक सिनेमाई दृष्टि है.
वैसे तो सिनेमा देखने वाला अपने जीवन अनुभवों के साथ फिल्म को जोड़कर फिल्म का अर्थ विकसित करता है और इसी में वह मनोरंजन भी तलाशता है. पटाखा फिल्म के कई पाठ हो सकते है मगर चूंकि मैं मनोविज्ञान का विद्यार्थी रहा हूँ इसलिए मैं इस फिल्म एक मनोविश्लेष्णात्मक पाठ करने की एक छोटी सी कोशिश करता हूँ.
पटाखा फिल्म राजस्थान के कहानीकार  चरण सिंह पथिक की कहानी ‘दो बहनें’ पर आधारित है. इस कहानी को जब विशाल भारद्वाज अपनी सिनेमेटिक दृष्टि से बुनते है तो इसके आयाम बहुफलकीय हो जाते है. फिल्म के प्रमुख पात्रों की मनोवैज्ञानिक पड़ताल करने पर साफ़ पता चलता है मानव व्यवहार के निर्धारक तत्वों में परिवेश का एक महत्त्वपूर्ण योगदान होता है और इसी के आधार पर किसी का ‘सेल्फ’ विकसित होता है.
फिल्म की दो नायिका गेंदा देवी और चम्पा ( बड़की और छुटकी) आपस में इस कद्र लडती है कि उनकी लड़ाई को भारत-पाकिस्तान की संज्ञा दी गई है. मतलब एक ऐसी लड़ाई जिसका कोई अंत न हो. विशाल की इस स्थापना में भी एक गहरा व्यंग्य छुपा हुआ है. वैसे भी अगर देखा जाए तो अधिकाँश लड़ाईयां ईगो और वर्चस्व की ही लड़ाईयां होती है वो अलग बात है सबके भिन्न राजनीतिक पाठ हो सकते है.
बडकी और छुटकी दो बहनें है जिनकी मां नही है और उनको उनके ‘बापू’ बड़ी लाड-प्यार से पाल रहे हैं. दोनों आपस में खूब लड़ती है. मनोवैज्ञानिक दृष्टि से देखा जाए दोनों के अंदर का मूल आक्रोश अवचेतन के स्तर पर सिंगल पेरेंट फैमली में रहने की परिवेशीय जटिलता से उपजा हुआ है. गाँव-देहात में आज भी सिंगल पेरेंटिंग के रेयर ही उदाहरण मिलेंगे. इसके अलावा दोनों के अंदर असुरक्षाबोध की बड़ी गहरी ग्रंथि है इसलिए दोनों एक दुसरे से गहरी ईर्ष्या रखती है. सामान्यत: भाई-बहन, भाई-भाई, बहन-बहन के मध्य एक स्वाभाविक स्तर की ईर्ष्या होती है मगर यदि यह सामान्य स्तर की है तो फिर यह एक मोटिवेशनल एलिमेंट बन जाती है मगर इस फिल्म दोनों बहनों के मध्य सामान्य से कई गुना बड़े स्तर की ईर्ष्या है.मेरी दृष्टि में जिसका एक बड़ा कारण देहात का उनका पेरेंटिंग पैटर्न है. गाँव में ऐसे उदाहरण साफ़ तौर पर देख सकतें है कि भावनात्मक अपवंचन और हीनता-असुरक्षाबोध के चलते सिंगल पेरेंट के बच्चे क्या तो अतिरिक्त रूप से भावुक होकर समय से पहले परिपक्व हो जाते है या फिर स्वयं के प्रति लापरवाही का बोध विकसित करके ‘कंडक्ट डिसऑर्डर ‘ के शिकार हो जाते है जिन्हें समाज बिगडैल बच्चें कहता है.
बड़की और छुटकी का बापू दोनों से भरपूर प्यार करता है मगर उनके जीवन में जिन शीलगुणों (कोमलता,वात्सल्य) आदि का परिचय माँ के कारण होता है वह बापू नही कर पाता है. इसके अलावा आम दर्शक फिल्म में दोनों बहनों के मध्य ईर्ष्या और उससे उपजा युद्ध देखता है मगर यदि मनोवैज्ञानिक दृष्टि से देखा जाए तो दोनों बहनों के मध्य एक अमूर्त और गहरा प्रेम भी है. जब मनुष्य अपने अंदर के प्रेम को सही आकार देने में समर्थ नही हो पाता है या उसे सही  समय पर अभिव्यक्त या पहचान नही कर पाता है तब वो बिना किसी आकार नेपथ्य में चला जाता है. दोनों बहनों के मध्य जो ईर्ष्या दिखाई देती है वो मूलत: उन दोनों बहनों के जीवन में अपने-अपने प्रेम से अजनबी रहने की एक मुखर बाह्य अभिव्यक्ति होती है. फिल्म में दोनों बहनों के सपनें भी एकदिम भिन्न है मगर उन सपनों के माध्यम से भी वे एक दुसरे से दूर ही भाग रही होती है.
पटाखा फिल्म के जरिए हम यह देख पाते है कि जीवन में महत्वकांक्षाओं या सपनों के पूरे होने के बाद उस स्थिति को मेंटेन करने के लिए हमें अपने कड़वे अतीत को छोड़ना होता है अन्यथा हम उसे सेलिब्रेट करना भूल जाते है फिल्म में यही बात बड़की और छुटकी के साथ घटित होती है. दोनों के मध्य की ईर्ष्या एक समय के बाद पैथोलोजिकल बन जाती है और जीवन की गति को अवरुद्ध कर देती है.
इस फिल्म के जरिए हम यह महसूस कर सकतें है कि सम्बन्धो में शेयरिंग या अभिव्यक्ति का कितना गहरा मनोवैज्ञानिक अर्थ होता है यदि हम अपने इमोशन को सही समय पर शेयर कर देते है तो हमारे मध्य के इमोशनल बांड को और अधिक मजबूत कर देते है. मन में बसे अमूर्त प्यार को जीवन में शब्द देने की बड़ी सख्त जरूरत होती है अन्यथा एक समय के बाद वो प्यार ‘प्रति प्यार’ की उपेक्षा से आहत होकर गलतफहमियों का एक बड़ा बड़ा पहाड़ खड़ा कर देता है और ईर्ष्या जैसे नकारात्मक संवेगों के लिए  मन में एक गहरी घाटी बन जाती है.
अब बात फिल्म के एक और रोचक पात्र डिप्पर की-
विशाल भारद्वाज ने इस फिल्म में डिप्पर के किरदार को बेहद महीनता से बुना है. मेरी नजर में डिप्पर के किरदार की दो व्याखाएं हो सकती है एक यह कि सामान्य दर्शक ने उसको दोस्त, विदूषक या दोनों बहनों के मध्य लड़ाई करा कर मजा लेने वाले व्यक्ति के रूप में देखा दूसरी मैं डिप्पर के किरदार को सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक दृष्टि से देखने की कोशिश करता हूँ तो मुझे डिप्पर मानवीय स्वभाव का प्रतिनिधि किरदार लगने लगता है. डिप्पर मूलत: मन की विद्रोही, वर्जनामुक्त और परपीड़ा में सुख पाने वाले स्वरूप का मानवीयकरण करता है. डिप्पर लिंग निरपेक्ष है इसलिए मैंने उसे मन का मानवीयकरण कहा. डिप्पर दोस्त भी और हीलिंग प्रोसेस का एक बाह्य प्रतीक है. डिप्पर एक आशा है जिसके पास हर मुश्किल वक्त का एक समाधान है. डिप्पर मनुष्य मन की स्थायी शंका का भी प्रतीक है जो हमारे विश्वास तन्त्र को क्षति-ग्रस्त करती रहती है.
कुल मिलाकर डिप्पर  का किरदार बाहर लोक से भले ही मिलता हो मगर उसके गहरे सूत्र मन के अंदर छिपे हुए है वो हर मुश्किल वक्त में ऑटो हीलिंग को प्रमोट करता है इसके अलावा वो ईर्ष्या को भी प्रमोट करता है क्योंकि उसे इसमें भी खुद की प्रासंगिकता लगती है. डिप्पर की दृष्टि एक रेखीय नही है वो अपने तमाम गलत कामों के बावजूद भी आपकी घृणा का पात्र नही बनता है बल्कि आप खुद को उसके साथ खड़ा महसूस करते है. गौर से देखिएगा ये सब आपके मन के ही गुण है.
सारांश यही है पटाखा एक विस्फोट है जो मन की जड़ता को तोड़ता है और हम अपने मन पर ज़मी मैल-मालिन्य की परत को टूटता हुआ देख पाते हैं. यह फिल्म हमारे मन के लिए एक छिपा हुआ सन्देश देती है कि किसी से कितना प्यार करते हो उसको सही समय पर जता दो अन्यथा एक समय के बाद आप न प्यार देख पातें है और न प्यार सुन पातें हैं.
ऐसी फ़िल्में बनती रहनी चाहिए ताकि हम अपने आसपास की दुनिया से गहरी और सच्ची मुलाकातें कर सकें.
और अन्त में फिल्म के मूल कहानीकार चरण सिंह पथिक जी को बधाई वो यह कहानी न लिखतें तो हम अपने मन की  प्रतिध्वनि ढंग से न सुन पातें.

© डॉ. अजित