Friday, December 21, 2018

जीरो: गणित मन का


जीरो: गणित मन का
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जीरो का आविष्कार भारत में हुआ था और यह तथ्य हम हमेशा हम भारतीयों के लिए गर्व का विज्ञापन कराता रहता है. जीरो वैसे तो एक अंक है जो किसी अंक के आगे या पीछे लगने पर उसका मूल्य बदल देता है. मगर आप कल्पना कीजिए अगर किसी के जीवन के साथ जीरो लग जाए तो उसके  जीवन का अर्थ और ध्वनि दोनों बदल जातें है.
शाहरुख खान की फिल्म ‘जीरो’ हमारे मन के गणित को अस्त-व्यस्त करने में पर्याप्त समर्थ है. फिल्म देखतें हुए जीरो को आगे या पीछे लगाने की दुविधा कोई भी संवेदनशील दर्शक महसूस कर सकता है. फिल्म का नायक बउवा सिंह एक बौना इंसान है  और फिल्म की नायिका आफिया एक डिसेबल्ड पर्सन है. बउवा सिंह समाज की ‘परसेप्शन डिसेबिलिटी’ का शिकार है तो आफिया सफल वैज्ञानिक होने के बावजूद उसकी दुनिया व्हील चेयर तक सीमित है.
 बउवा सिंह की लड़ाई दोतरफा है एक लड़ाई वो खुद से लड़ रहा होता है और एक लड़ाई उसकी बाहर चल रही होती है.आफिया इस मामलें में थोड़ी सी सम्पन्न है उसके अन्दर ‘सेल्फ रिजेक्शन’ नही है क्योंकि वह एक कामयाब अन्तरिक्ष वैज्ञानिक है उसकी सीमाएं शारीरिक अधिक है मानसिक रूप से वह मजबूत है. आफिया का किरदार उस सामाजिक मान्यता की पुष्टि करता है जिसके अनुसार यदि कोई डिसेबल्ड व्यक्ति सफल हो जाए तो वह समाज में अपने स्तर पर सर्वाईव कर जाता है.
जीरो फिल्म मूलत: बउवा सिंह के व्यक्तित्व के जटिलता को समझने का एक  अवसर देती है मगर फिल्म के दौरान उसके व्यक्तित्व में प्राय: दर्शक हास्य तलाश रहे होते है यही बात सोसाइटी की पॉपुलर थिंकिंग को बताने में सक्षम है.
यह बात निर्विवाद रूप से सच है कि समाज हमेशा ताकतवर को आदर्श के रूप में देखता है ऐसे में जो किसी किस्म की शारीरिक हीनता या डिसेबिलिटी से पीड़ित होते है वो हमेशा समाज में हाशिए की जिंदगी जीते है. जीरो फिल्म का नायक बउवा सिंह केवल आर्थिक रूप से सम्पन्न है बाकि बौना होने के कारण वो हर किस्म का सोशल और फैमली रिजेक्शन झेलता है.
मनोवैज्ञानिक रूप से लम्बे समय से सोशल और पर्सनल रिजेक्शन झेलने के कारण आप खुद ही खुद को भी रिजेक्ट करने लगतें है इसका अलावा लम्बे समय से जब आप रिजेक्शन झेलतें हैं तो हमेशा उस रिजेक्शन को खारिज करके उससे बाहर आने की कोशिश करतें है. और ऐसी कोशिशें एक बड़े लक्ष्य या लगभग असम्भाव्य सपने का पीछा करने की होती है कि सामाजिक रूप से रिजेक्शन झेल रहा व्यक्ति खुद कि महत्ता सिद्ध कर सके.
जीरो का बउवा सिंह भी अपनी ऐसी ही द्वंदात्मक महत्वकांक्षा का पीछा करता हुआ नजर आता है. बउवा सिंह ने बौने के किरदार निभाया है  जो खुद को कोयल कहता है. कोयल कहने का आशय है  उसने यह मान लिया होता है कि वह ‘गुड फॉर नथिंग’ है. फ़िल्में के पहले हाफ में बउवा सिंह खुद से भाग रहा होता है इसलिए दर्शकों को उसमें हास्य और मनोरंजन नजर आता है मगर इंटरवल के बाद बउवा सिंह की सारी कोशिशें खुद को स्वीकार करने की होती है.
बतौर मनुष्य यह लड़ाई बेहद जटिल होती है जब आप खुद को समाज की दृष्टि में एक विदूषक जैसा बना लेते है मगर अंतरमन से यह चाहतें है कि कोई तो हो जो आपको गंभीरता से लें. बउवा सिंह का किरदार फिल्म में बहुत अच्छा गढ़ा गया है  उसे उसकी स्वाभाविकता में दिखाया गया है.
एक लोकप्रिय कहावत है कि दो असफल लोग मिलकर कभी एक सफल काम नही कर सकते हैं. बउवा सिंह के जीवन में जब पहली दफा प्यार घटित होता है वो आफिया के द्वारा घटित होता है बउवा सिंह का अवचेतन यह बात स्वीकार ही नही कर पाता है कि कोई उससे प्यार भी कर सकता है जबकि आफिया का प्यार एकदम सच्चा था. दोनों एक दूसरे के जीवन की रिक्तताएं भरने की कोशिश कर रहें थे मगर बउवा सिंह का मानसिक धरातल सबसे बड़ी बाधा बनता है.
बहुधा मनुष्य खुद के सच से भागकर खुद को एक अज्ञात के आकर्षण में बाँधने की कोशिश करता है क्योंकि उसे लगता है कि जो अप्राप्य है उसको हासिल करके वो अपना खोया हुआ आत्म गौरव प्राप्त कर सकता है. ऐसी ही सारी कोशिशें बउवा सिंह की फिल्म जीरो में नजर आती हैं.
बहुसंख्यक सिनेप्रेमियों को जीरो फिल्म का इंटरवल से बाद का पार्ट खराब लगा मगर मुझे निजी तौर पर जो जरूरी लगा है. हाँ उसमें कुछ अतिशय नाटकीयता जरुर है मगर मैं फिल्म के पहले हाफ में बउवा सिंह के किरदार से इस कदर जुड़ गया था कि मुझे नाटकीयता में भी विरेचन के साधन नजर आने लगे थे.
बउवा सिंह और आरफा को मिलाने के लिए दिल से दुआएं निकलती है जबकि यह जानते हुए कि बउवा सिंह पलायनवादी रहा है. मनोविज्ञान की दृष्टि से पलायन कभी भी किसी मनुष्य का ऐच्छिक चुनाव नही होता है उसके पीछे वो तमाम वजहें होती है जो बतौर मनुष्य आपके अस्तित्त्व को लगातार खारिज करती हैं.
दैहिक हीनता और शारीरिक अक्षमता झेलते मनुष्य का  मनोविज्ञान समझने के लिए जीरो एक जरुरी फिल्म हैं. जीरो में फिल्म में औसत चेतना के दर्शकों के लिए हास्य है, बुद्धिवादी दर्शकों के लिए नाटकीयता से चिढ़ है और अति संवेदनशील दर्शकों के लिए मानव व्यवहार की जटिलताओं को समझने का एक अवसर है.
अंत में अभिनय की बात करूं तो मेरा ऑब्जरवेशन यही है कि बउवा सिंह  के किरदार में शाहरुख खान ने  और आफिया के किरदार में अनुष्का शर्मा ने बहुत शानदार काम किया है.
जीरो को देखतें समय आप इस अंक के मनोविज्ञान को महसूस कर पातें हैं जोकि आपके खुद के मन के किसी कोने में अपने स्थान बदलनें के लिए उत्सुक नजर आता है मेरे ख्याल से यही बात फिल्म के निर्देशक और एक्टर्स की सबसे बड़ी सफलता है. जीरो फिल्म में प्यार,दोस्ती. पलायन जैसे भावनात्मक तत्व मौजूद है.
फिल्म देखतें हुए हमें यह एहसास होता है कि हमारे जीवन में भी ऐसे शख्स मौजूद हैं जिनसे हम प्यार और नफरत एक साथ कर रहें होतें हैं.
© डॉ.अजित    

Saturday, October 6, 2018

पटाखा: एक मन ओ’ वैज्ञानिक पुनर्पाठ


पटाखा: एक मन ओ’ वैज्ञानिक पुनर्पाठ 
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भारतीय काव्य शास्त्र में ध्वनि और औचित्य दो बड़े सिद्धांत है. पटाखा शब्द लोक प्रहसन की दृष्टि से जुमला भले ही हो, मगर ध्वनि सिद्धांत की दृष्टि से इसके व्यापक अर्थ हैं. यह विस्फोट का प्रतीक है और विस्फोट जड़ता को तोड़ने के लिए एक अनिवार्य उपक्रम है. इसलिए मैं यहाँ पटाखा को मन की अमूर्त जड़ताओं को तोड़ने के एक साधन के तौर पर देख रहा हूँ. कला के विभिन्न माध्यमों का एक औचित्य होता है बिना औचित्य के सृजन अकारथ होता है ऐसा आचार्यों ने माना है. सिनेमा को कला का एक प्रभावशाली माध्यम मानते हुए इसके व्यापक औचित्य को समझा जा सकता है. मनोविज्ञान और दर्शन कला के माध्यमों को विरेचन का बड़ा साधन मानते है. कला के विभिन्न माध्यम मानवीय संवेदना के अमूर्त तत्त्वों का आम जन के साथ तादात्म्य स्थापित करने के ही साधन है इसलिए हम दृश्य-श्रृव्य माध्यम से जुड़कर भावुक होकर रोने लगते है या हंसने लगते है.
विशाल भारद्वाज की अधिकाँश फ़िल्में साहित्य का एक प्रभावशाली सिनेमेटिक क्रिएशन करने में समर्थ सिद्ध हुई है इसका कारण है वो खुद साहित्य के सजग पाठक है और उनके पास एक व्यापक सिनेमाई दृष्टि है.
वैसे तो सिनेमा देखने वाला अपने जीवन अनुभवों के साथ फिल्म को जोड़कर फिल्म का अर्थ विकसित करता है और इसी में वह मनोरंजन भी तलाशता है. पटाखा फिल्म के कई पाठ हो सकते है मगर चूंकि मैं मनोविज्ञान का विद्यार्थी रहा हूँ इसलिए मैं इस फिल्म एक मनोविश्लेष्णात्मक पाठ करने की एक छोटी सी कोशिश करता हूँ.
पटाखा फिल्म राजस्थान के कहानीकार  चरण सिंह पथिक की कहानी ‘दो बहनें’ पर आधारित है. इस कहानी को जब विशाल भारद्वाज अपनी सिनेमेटिक दृष्टि से बुनते है तो इसके आयाम बहुफलकीय हो जाते है. फिल्म के प्रमुख पात्रों की मनोवैज्ञानिक पड़ताल करने पर साफ़ पता चलता है मानव व्यवहार के निर्धारक तत्वों में परिवेश का एक महत्त्वपूर्ण योगदान होता है और इसी के आधार पर किसी का ‘सेल्फ’ विकसित होता है.
फिल्म की दो नायिका गेंदा देवी और चम्पा ( बड़की और छुटकी) आपस में इस कद्र लडती है कि उनकी लड़ाई को भारत-पाकिस्तान की संज्ञा दी गई है. मतलब एक ऐसी लड़ाई जिसका कोई अंत न हो. विशाल की इस स्थापना में भी एक गहरा व्यंग्य छुपा हुआ है. वैसे भी अगर देखा जाए तो अधिकाँश लड़ाईयां ईगो और वर्चस्व की ही लड़ाईयां होती है वो अलग बात है सबके भिन्न राजनीतिक पाठ हो सकते है.
बडकी और छुटकी दो बहनें है जिनकी मां नही है और उनको उनके ‘बापू’ बड़ी लाड-प्यार से पाल रहे हैं. दोनों आपस में खूब लड़ती है. मनोवैज्ञानिक दृष्टि से देखा जाए दोनों के अंदर का मूल आक्रोश अवचेतन के स्तर पर सिंगल पेरेंट फैमली में रहने की परिवेशीय जटिलता से उपजा हुआ है. गाँव-देहात में आज भी सिंगल पेरेंटिंग के रेयर ही उदाहरण मिलेंगे. इसके अलावा दोनों के अंदर असुरक्षाबोध की बड़ी गहरी ग्रंथि है इसलिए दोनों एक दुसरे से गहरी ईर्ष्या रखती है. सामान्यत: भाई-बहन, भाई-भाई, बहन-बहन के मध्य एक स्वाभाविक स्तर की ईर्ष्या होती है मगर यदि यह सामान्य स्तर की है तो फिर यह एक मोटिवेशनल एलिमेंट बन जाती है मगर इस फिल्म दोनों बहनों के मध्य सामान्य से कई गुना बड़े स्तर की ईर्ष्या है.मेरी दृष्टि में जिसका एक बड़ा कारण देहात का उनका पेरेंटिंग पैटर्न है. गाँव में ऐसे उदाहरण साफ़ तौर पर देख सकतें है कि भावनात्मक अपवंचन और हीनता-असुरक्षाबोध के चलते सिंगल पेरेंट के बच्चे क्या तो अतिरिक्त रूप से भावुक होकर समय से पहले परिपक्व हो जाते है या फिर स्वयं के प्रति लापरवाही का बोध विकसित करके ‘कंडक्ट डिसऑर्डर ‘ के शिकार हो जाते है जिन्हें समाज बिगडैल बच्चें कहता है.
बड़की और छुटकी का बापू दोनों से भरपूर प्यार करता है मगर उनके जीवन में जिन शीलगुणों (कोमलता,वात्सल्य) आदि का परिचय माँ के कारण होता है वह बापू नही कर पाता है. इसके अलावा आम दर्शक फिल्म में दोनों बहनों के मध्य ईर्ष्या और उससे उपजा युद्ध देखता है मगर यदि मनोवैज्ञानिक दृष्टि से देखा जाए तो दोनों बहनों के मध्य एक अमूर्त और गहरा प्रेम भी है. जब मनुष्य अपने अंदर के प्रेम को सही आकार देने में समर्थ नही हो पाता है या उसे सही  समय पर अभिव्यक्त या पहचान नही कर पाता है तब वो बिना किसी आकार नेपथ्य में चला जाता है. दोनों बहनों के मध्य जो ईर्ष्या दिखाई देती है वो मूलत: उन दोनों बहनों के जीवन में अपने-अपने प्रेम से अजनबी रहने की एक मुखर बाह्य अभिव्यक्ति होती है. फिल्म में दोनों बहनों के सपनें भी एकदिम भिन्न है मगर उन सपनों के माध्यम से भी वे एक दुसरे से दूर ही भाग रही होती है.
पटाखा फिल्म के जरिए हम यह देख पाते है कि जीवन में महत्वकांक्षाओं या सपनों के पूरे होने के बाद उस स्थिति को मेंटेन करने के लिए हमें अपने कड़वे अतीत को छोड़ना होता है अन्यथा हम उसे सेलिब्रेट करना भूल जाते है फिल्म में यही बात बड़की और छुटकी के साथ घटित होती है. दोनों के मध्य की ईर्ष्या एक समय के बाद पैथोलोजिकल बन जाती है और जीवन की गति को अवरुद्ध कर देती है.
इस फिल्म के जरिए हम यह महसूस कर सकतें है कि सम्बन्धो में शेयरिंग या अभिव्यक्ति का कितना गहरा मनोवैज्ञानिक अर्थ होता है यदि हम अपने इमोशन को सही समय पर शेयर कर देते है तो हमारे मध्य के इमोशनल बांड को और अधिक मजबूत कर देते है. मन में बसे अमूर्त प्यार को जीवन में शब्द देने की बड़ी सख्त जरूरत होती है अन्यथा एक समय के बाद वो प्यार ‘प्रति प्यार’ की उपेक्षा से आहत होकर गलतफहमियों का एक बड़ा बड़ा पहाड़ खड़ा कर देता है और ईर्ष्या जैसे नकारात्मक संवेगों के लिए  मन में एक गहरी घाटी बन जाती है.
अब बात फिल्म के एक और रोचक पात्र डिप्पर की-
विशाल भारद्वाज ने इस फिल्म में डिप्पर के किरदार को बेहद महीनता से बुना है. मेरी नजर में डिप्पर के किरदार की दो व्याखाएं हो सकती है एक यह कि सामान्य दर्शक ने उसको दोस्त, विदूषक या दोनों बहनों के मध्य लड़ाई करा कर मजा लेने वाले व्यक्ति के रूप में देखा दूसरी मैं डिप्पर के किरदार को सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक दृष्टि से देखने की कोशिश करता हूँ तो मुझे डिप्पर मानवीय स्वभाव का प्रतिनिधि किरदार लगने लगता है. डिप्पर मूलत: मन की विद्रोही, वर्जनामुक्त और परपीड़ा में सुख पाने वाले स्वरूप का मानवीयकरण करता है. डिप्पर लिंग निरपेक्ष है इसलिए मैंने उसे मन का मानवीयकरण कहा. डिप्पर दोस्त भी और हीलिंग प्रोसेस का एक बाह्य प्रतीक है. डिप्पर एक आशा है जिसके पास हर मुश्किल वक्त का एक समाधान है. डिप्पर मनुष्य मन की स्थायी शंका का भी प्रतीक है जो हमारे विश्वास तन्त्र को क्षति-ग्रस्त करती रहती है.
कुल मिलाकर डिप्पर  का किरदार बाहर लोक से भले ही मिलता हो मगर उसके गहरे सूत्र मन के अंदर छिपे हुए है वो हर मुश्किल वक्त में ऑटो हीलिंग को प्रमोट करता है इसके अलावा वो ईर्ष्या को भी प्रमोट करता है क्योंकि उसे इसमें भी खुद की प्रासंगिकता लगती है. डिप्पर की दृष्टि एक रेखीय नही है वो अपने तमाम गलत कामों के बावजूद भी आपकी घृणा का पात्र नही बनता है बल्कि आप खुद को उसके साथ खड़ा महसूस करते है. गौर से देखिएगा ये सब आपके मन के ही गुण है.
सारांश यही है पटाखा एक विस्फोट है जो मन की जड़ता को तोड़ता है और हम अपने मन पर ज़मी मैल-मालिन्य की परत को टूटता हुआ देख पाते हैं. यह फिल्म हमारे मन के लिए एक छिपा हुआ सन्देश देती है कि किसी से कितना प्यार करते हो उसको सही समय पर जता दो अन्यथा एक समय के बाद आप न प्यार देख पातें है और न प्यार सुन पातें हैं.
ऐसी फ़िल्में बनती रहनी चाहिए ताकि हम अपने आसपास की दुनिया से गहरी और सच्ची मुलाकातें कर सकें.
और अन्त में फिल्म के मूल कहानीकार चरण सिंह पथिक जी को बधाई वो यह कहानी न लिखतें तो हम अपने मन की  प्रतिध्वनि ढंग से न सुन पातें.

© डॉ. अजित