Friday, November 17, 2017

शादी में जरुर आना

शादी में जरुर आना
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पहले मुझे लगा यह है बदरी की दुल्हनिया टाइप की मूवी होगी और शुरुवात में थोड़ी वैसी लगी भी मगर धीरे-धीरे शादी में जरुर आना फिल्म अपने उनवान पर चढ़ी और फिल्म का तेवर और कलेवर दोनों ही बदल गए. चूंकि मैं उत्तर प्रदेश का बाशिंदा हूँ इसलिए पीसीएस की पद प्रतिष्ठा को ठीक से समझता हूँ. फिल्म का कथानक इलाहाबाद को केंद्र में रखकर बुना गया है और यूपी में इलाहाबाद सिविल सर्विस की तैयारी करने वालों का मदीना रहा है.
शादी में जरुर आना मध्यमवर्गीय चेतना के जटिल बुनावट को सिनेमेटिक फॉर्म में दर्शको के समक्ष रखने की एक ईमानदार कोशिश करती है. सपनें,सिविल सर्विस, दहेज़, लिंग भेद, नैतिकता,प्रतिशोध और शो ऑफ़ आदि जैसे तत्वों ने फिल्म की कहानी के कहन को आसान और प्रभावी बनाया है.
सत्येन्द्र ऊर्फ सत्तू और आरती शुक्ला के प्रेम को समझने के लिए आपको अपनी स्टूडेंट लाइफ में बार-बार झांकना पड़ता है और फिल्म आपको अतीत में ले जाती है जहां किसी के लिए खुद को सिद्ध करना था या किसी के लिए खुद सिद्ध होना था. प्रेम मे विश्वास एक अनिवार्य तत्व है मगर जब सामने एक अप्रत्याशित सपना आकर खड़ा हो जाए तो फिर आपका विवेक भी साथ छोड़ देता है उसके बाद चीज़ें अपनी दिशा खुद करने लगती है फिल्म में सपना ऐसे ही अचानक सामने आता है और फिल्म की शुरुवात से चल रही एक गुदगुदी को तनाव में बदल जाता है.
प्रेम में रिजेक्शन किसे अच्छा लगता है मगर मुझे इस फिल्म में नायक का रिजेक्शन नही लगा वह दरअसल हालात का रिजेक्शन था जो अप्रत्याशित ढंग से घटित होकर चला गया. सत्तू की सादगी और आरती का चुलबुलापन फिल्म के पूर्वाद्ध में बहुत हंसाता है मगर बाद में दोनों को देखकर लगने लगता है क्या ये वही लव बर्ड है?
शादी में जरुर आना एक साफ़ सुथरी एक रेखीय फिल्म है हाँ फिल्म कुछ अति भी है जैसे डीएम बने सत्येन्द्र मिश्र का छापे के दौरान खुद तोड़-फोड़ करना मुझे नही लगता कोई आई ए एस अधिकारी खुद इस तरह से करता होगा भले ही उसकी निजी खुन्नस क्यों न रही हो फिल्म की कहानी में एक यह झोल मुझे  जरुर लगा इसके अलवा मेरा इंतकाम देखोगी..गाना भी प्रेम में अवांछित हिंसा का प्रतिनिधत्व करता है मगर रोचक बात है इस गाने पर फिल्म में खूब सीटियाँ बजी इसका मतलब है भारतीय पुरुष दर्शक अब भी दिल में गुबार लेकर जीता है जो नही मिल सका उसे एक बार सबक जरुर सिखाना है ये अमूमन एक मनोवृत्ति है हालांकि मैं इसे अनुचित मानता है.
फिल्म की कहानी कमल पांडे ने बहुत बढ़िया और गठन के साथ लिखी है फिल्म देखतें हुए आप फिल्म से बंधे रहते है और फिल्म आपको एक पल के लिए भी बोर नही करती है फिल्म में गाने भी अच्छे है.
शादी में जरुर आना आपको प्रेम की एक रेखीय दुनिया के आंतरिक उथल-पुथल और रिश्तों के संघर्षो की दुनिया से रूबरू कराती है और मनुष्य के अंदर उपेक्षा और तिरस्कार से उपजे प्रतिशोध को देखने का अवसर देती है मगर फिल्म देखकर आप अंत में तय कर पाते है कि वास्तव में कोई गलत या सही नही होता है बस वक्त और हालत आदमी को मजबूर कर देते है.
शादी में जरुर आना एक निमंत्रण है या धमकी ये आपको फिल्म देखकर ही पता चलेगा मेरे ख्याल से सर्दी के इस मौसम में ऐसी शादी में एक बार जरुर जाना चाहिए इसी बहाने आपको अपनी कहानी को रिमाइंड करने का मौक़ा मिलेगा जो भले ही ऐसी न हो मगर उसके कुछ तार इससे जरुर मिलते जुलते होंगे बशर्ते आपने किसी से सच्चा प्रेम किया हो.

© डॉ. अजित 

Monday, November 13, 2017

करीब-करीब सिंगल

करीब-करीब सिंगल
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करीब-करीब को जोड़कर मैं तकरीबन शब्द बनाता हूँ. यह मेरी कोई मौलिक खोज नही है प्रचलन के लिहाज़ भाषा वैज्ञानिक इस पर बढ़िया प्रकाश डाल सकते है, मगर तकरीबन शब्द मुझे यहाँ अनुमान की आखिरी दहलीज़ पर छोड़ आता है जहां मैं मान लेने की स्थिति में खुद को पाता हूँ. मान लेना वैसे गणित के सवाल हल करने में मदद करता है, मगर जिंदगी का भी अपना एक गणित है और उस गणित में हमें बहुत कुछ वो मान लेना होता है जो असल में होता नही है या होता है तो हमें हासिल नही होता है या हासिल होकर भी हमारा नही होता है. मैं बातों को अधिक उलझाने की कोशिश नही करूंगा ये काम असल में जिंदगी का है. मैं तकरीबन सिंगल होने को इस फिल्म के जरिए समझने की एक ईमानदार कोशिश जरुर करूंगा शायद मैं फिल्म के उतना करीब पहुँच पाऊं जहां से सिंगल और मिंगल दुनिया का महीन भेद साफ-साफ़ दिखाई पड़ता है.
करीब-करीब सिंगल देखने के पीछे जाहिरी तौर पर इरफ़ान खान का ऑरा मुझे सिनेमा हाल तक ले गया था मगर फिल्म देखते हुए मैंने महसूस किया कि यह केवल इरफ़ान खान की फिल्म नही है बल्कि इस फिल्म एक करीब का सिरा इरफ़ान के हाथ में और दुसरे करीब का सिरा पार्वती थामे हुए है और इन दोनों के मध्य सिंगल होने और न होने का एक महाभाष्य टंगा हुआ है जिसका अलग-अलग पाठ हो सकता है.
योगी और जयश्री टीके मनुष्य के एकांत के दो गहरे प्रतीक है उनका जीवन एकरस से भरा दिखता जरुर है मगर असल में उनके आंतरिक जीवन में एक अमूर्त निर्वात भी पसरा हुआ है. यह फिल्म हमें यह बताती है कि स्त्री और पुरुष दोनों स्वतंत्र अस्तित्व होते हुए भी चेतना और संवेदना के स्तर पर एक दुसरे में किस कदर गुंथे हुए भी है.
सिंगल या अकेला होना आपका चुनाव हो सकता है मगर यह त्रासद बिलकुल नही होता है, यह त्रासद जब लगने लगता है जब समाज के मानको पर आपको जज किया जाने लगता है.
दरअसल मनोवैज्ञानिक तौर पर प्रत्येक मनुष्य की दो ज्ञात दुनिया होती है एक वह जो बाहर की दुनिया को दिखती है और एक वह जिसके बारें में केवल आप जानते है. आपकी नितांत ही निजी दुनिया में निजी दुःख,छूटे सपनें और अपने, छोटे-छोटे सुख दुबके रहते है. अंदर और बाहर की दुनिया के संघर्ष मनुष्य के सुख और दुःख का मानकीकरण करते है.
योगी शायर है और रूह की बेचैनी उसे नियामत के तौर पर हासिल है जयश्री हेल्थ सेक्टर की प्रोफेशनल है, विडो होने के कारण सिंगल है. देखा जाए तो दोनो एकदम विपरीत ध्रुव है मगर विज्ञान भी मानता है कि असंगतता के मध्य एक गहरा आकर्षण भी छिपा होता है रिश्तों का यह चुम्बकीय क्षेत्र फिल्म में उन्हें कभी नजदीक तो कभी दूर करता रहता है.
करीब-करीब सिंगल की सबसे बड़ी यूएसपी यह है कि फिल्म का बड़ा हिस्सा एक यात्रा में घटित होता है इसी कारण हम सिंगल और मिंगल दोनों की यात्रा के साक्षी बन पाते है. योगी का किरदार बहुत अच्छे ढंग से स्थापित किया गया है वो फक्कड़,फकीर,मनमौजी है दिल से जैसा महसूस करता है वैसा उसका बयान भी कर देता है. जयश्री के व्यक्तित्व पर सोशल कंडीशनिंग पर प्रभाव साफ़ तौर पर दिखते है. एक उम्र अकेले बिताने के बाद उसके अपने डर,असुरक्षाएं और सीमाएं है जो प्रेम के प्रवाह में कभी आड़े आती है तो कभी उसे सावधान भी करती है.
योगी और जयश्री दोनों का एक अतीत है मगर दोनों के अतीत का ट्रीटमेंट एकदम अलग है योगी के अतीत ने उसको मुक्त किया है जबकि जयश्री का अतीत उसके इर्द-गिर्द एक स्मृतियों का घेरा हमेशा तैयार रखता है. जयश्री की यात्रा खुद और खुद के अतीत से भागने से आरम्भ होकर अपने डर और संशयों की मुक्ति पर जाकर खत्म होती है और योगी की यात्रा जैसे अचानक से खत्म हो जाती है और ये अचानक से खत्म होना उसके जीवन का सबसे गहरा बोध बन जाता है.
करीब-करीब सिंगल देखकर हम यह जान पातें है कि प्रेम के लिए सहमत होना अनिवार्य नही होता है और प्रेम की शुरूवात गल्प से आरम्भ होकर जादुई यथार्थ पर खत्म हो जाए तो फिर हम कह सकते है कि एक सफ़र मुक्कमल हुआ.
यह फिल्म गुदगुदाती है और हमें समझाती भी है फिल्म देखते हुए आप फिल्म के दर्शक से अधिक सहयात्री अधिक होते है इसलिए इसके अलग अलग पड़ाव पर आपके अनुभव भी अलग होते है मसलन ऋषिकेश में आप सोच रहे होते है अब क्या होगा और सिक्किम में आपको पता नही होता है कि अब क्या होगा.
मनुष्य के निजी दुःख,डर,स्मृतियाँ और उनसे निर्मित आदतें मनुष्य की एक अलग दुनिया का सृजन करती है जहां की नीरवता में आप तभी दखल बरदाश्त करना पसंद करते है जब कोई ऐसा मिल जाए जिसे आप बिना किसी ज्ञात कारण के भी पसंद करने लगे हो. करीब-करीब सिंगल देखते वक्त अपने अपने आसपास ऐसे किरदारों की गिनती शुरू कर देते है जिनके शक्ल और अक्ल योगी और जयश्री से मिलती हो. यही फिल्म की सबसे बड़ी ख़ूबसूरती है.
इरफ़ान की आँखों और पार्वती की नाक के लिए करीब-करीब सिंगल जरुर देखी जानी चाहिए भले ही आप सिंगल है या मिंगल.

©डॉ.अजित


Monday, September 25, 2017

अंजलि पाटिल: खत

अंजलि पाटिल,
तुम्हें पहले चक्रव्यूह में देखा था और अब न्यूटन में देखा। नक्सलवाद से मुझे कोई सैद्धांतिक लगाव नही है और न ही मैं हिंसा का मार्ग उचित मानता हूँ।मगर तुम जब वंचितों की दुनिया का आंतरिक सच डायलॉग डिलीवरी के माध्यम से सिनेमा में रचती हो तो मेरा कवि हृदय नागरिक शास्त्र और लोक प्रशासन का विद्यार्थी बन वास्तव में इस जन और जंगल की समस्या को समझने के लिए आतुर हो जाता है।

मैं जानता हूँ तुम एक मॉडल हो मगर व्यवस्था से पीड़ित किरदार को निभाते वक्त तुम्हारी अभिनय क्षमता बहुत निखर कर सामने आती है। मैं तुम्हें किसी खास रोल में टाइप्ड नही कर रहा हूँ क्योंकि तुम्हारा काम है एक्टिंग करना फिर भी तुम्हारे जरिए एक ज्वलंत समस्या का बेहद वास्तविक चित्र बनता है।
न्यूटन फ़िल्म में तुम मलका नाम की बीएलओ बनी हो और तुम्हारी आँखों मे उम्मीद का जो आकाश दिखाई देता है उसके समक्ष यथार्थ की जमीन थोड़ी पड़ जाती है।

दरअसल, न जाने कब से मनुष्य की एक लड़ाई खुद से चल रही है और उसके टूल बहुत सी चीजें बनती है धर्म,अर्थ,राजनीति और सत्ता के केंद्र मिलकर मनुष्य को मनुष्यता के खिलाफ खड़ा करते है ये लड़ाई अभी और लंबी चलेगी मनुष्य की हताशा की अभी अतिरेक रूप से परीक्षा ली जानी बाकि है।

दंडकारण्य के जंगल मे तुम्हारे जरिए मैं मनुष्य की उस हताशा को पढ़ने की कोशिश करता हूँ जो आदिवासियों के चेहरों पर पुती है मैं पैरा मिलिट्री फोर्स के जवानों के चेहरों से भी गुजरता हूँ वे भी दरअसल सिस्टम का एक टूल भर बन गए है मनुष्य अपनी नस्ल से लड़ रहा है और क्यों लड़ रहा है इसका जवाब वे जरूर जानते है जिनके पास सवालों के जवाब देने की कोई बाध्यता नही है।

फिलहाल, तुम्हारी हंसी में कंकर सी पिसी उदासी को देखकर मैं एक अंतहीन इंतजार के कमरे में पसर गया हूँ जहां मुझे लगता है कि एकदिन सब ठीक हो जाएगा। हालांकि सब ठीक होना अक्सर ठीक होना नही होता है मगर मैं चाहता हूँ जल,नदी,जंगल, झरने,हवा आदि पर मनुष्य अपनी दावेदारी समाप्त कर दें और उन्हें अपने नैसर्गिक रूप से रहने दिया जाए। यदि मनुष्य किसी दूसरे मनुष्य का भला करना चाहता है तो उसके पीछे नीति की दासता शामिल न हो वो उनके उत्थान के नाम पर जड़ो से काटने का षडयंत्र न हो।

ये सब मेरे मन के सन्ताप है जो मैं तुम्हारे जरिए कह पा रहा हूँ न्यूटन फ़िल्म में तुम एक जगह कहती हो कि आप हमसे कुछ घण्टे की दूरी पर रहते है मगर हमारे बारें में कुछ नही जानते है। यह डायलॉग इस सदी का सच है हम घण्टे ही मिनटों की दूरी पर रहने के बावजूद किसी के बारे में कुछ नही जानते है।

दरअसल हम खुद को भी पूरी तरह नही जानना चाहते है क्योंकि फिर हमें अपने मनुष्य होने पर कुछ कुछ अंशो में शर्मिंदगी जरूर होने लगेगी।
खैर, मैं विषयांतर करके असंगत बातें करने के लिए जाना जाता हूँ इसलिए मैं ताप के प्रलाप की तरह बात तुम्हारी हंसी से शुरू करता हुआ मनुष्य की धूर्तताओं पर आ खड़ा होता हूँ।

अंजलि, हो सकता है भविष्य में हम तुम्हें और ग्लैमरस रोल में देखें मगर फिलहाल तुम्हारी कुछ छोटी-छोटी भूमिकाओं ने बतौर मनुष्य मेरी भूमिका में जरूर इजाफा किया है अब मैं अपने देह पर रेंगती चींटी के प्रति कृतज्ञता का कौशल सीख गया हूँ इसलिए इस बात के लिए मैं तुम्हें थैंक यू जरूर कहूँगा।
खूब आगे बढ़ो और अपनी सहजता से यूं ही हमे यह अहसास कराती रहो कि ये अभिनेत्री कोई करिश्माई किरदार नही है ये हमारे बीच की एक लड़की है जो हमें हमसे बेहतर जानती है।

तुम्हारा एक नूतन दर्शक
जो न्यूटन बिल्कुल नही
डॉ. अजित

Friday, August 4, 2017

जब हैरी मेट सेजल

जब हैरी मेट सेजल
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‘ जिस मुलाकत में कोई किसी से नही मिलता’

इम्तियाज़ अली मेरे प्रिय निर्देशकों में से एक है अभी तक उनकी फिल्मों ने निराश नही किया था, मगर जब हैरी मेट सजल को देखकर मुझे थोड़ी निराशा हुई है. थोड़ी इसलिए कह रहा हूँ कि इम्तियाज़ की पुरानी फ़िल्में मुझे अधिक निर्मम होने की छूट नही दे रही है. इसे एक दर्शक और बढिया निर्देशक का रिश्ता समझा जा सकता है. आज यह फिल्म  देखने के लिए  दो सौ बीस रुपए का टिकिट लिया मगर पूरी फिल्म के दौरान मुझे ऐसा लगता रहा कि यह फिल्म क्यों देख रहा हूँ मैं.
जिंदगी में इमोशंस बहुत आम से चीज़ है मगर  इमोशंस का सिनेमेटिक प्रजेंटेशन बेहद मुश्किल काम है इस फिल्म में यह तय करना मुश्किल है कि कौन किस चीज़ से भाग रहा है.  हैरी और सजल की मुलाक़ात और गहरी और मीठी हो सकती थी उनका सफर और रोमाचंक हो सकता था मगर दोनों की मुलाक़ात बतौर दर्शक मेरे मन में कोई कौतूहल नही जगा पायी.
शाहरुख को अब यह मान लेना चाहिए कि उनकी उम्र हैरी बनने की नही है वो लाख फिट दिखतें हो मगर उनके चेहरे से उम्र के अपने तकाजे नज़र आने लगे है. मैं उन्हें अब डियर जिंदगी के साइकोथेरेपिस्ट जैसे रोल में देखना चाहता हूँ. इस फिल्म में अनुष्का उन पर थोड़ी भारी पडी है मगर अनुष्का के लिए भी बहुत ज्यादा काम फिल्म में बचा नही था.
फिल्म में बढ़िया लोकेशंस है यूरोप का नक्शा है और वहां की गलियां है मगर उस नक़्शे के सहारे उन गलियों में घुमते हुए हैरी और सजल मुझे बेमेल नजर आए. शाहरुख  पंजाबी एक्सेंट में कभी कभी कुछ  डायलोग बोलते है मगर उसके लिए एक्सेंट रियल करने की उनकी वोकल मेहनत कुछ ऐसी साउंड निकालती है कि हमें समझ ही नही आता है कि वो क्या कह रहें है.
दिल और वजूद की जद्दोजहद में अक्सर आदमी दिल की ही सुनता है और ताउम्र खुद से भागता रहता है इसी भागदौड़ में उसकी मुलाक़ात कुछ ऐसे लोगो से होती है  जिनके साथ अपने लम्हें शेयर करने का अफ़सोस नही  होता है बल्कि खुशी मिलती है ये लम्हें हमारी पकड से छूटे हुए कुछ पवित्र किस्म के अहसास होते है जिसको जीने के लिए आदमी खुद को दांव पर लगाने से भी नही चूकता है. प्यार इसी दांव की छाँव में पलता है . यह फिल्म हमें एक अनजानी मुलाकात के सुखद अहसास दिखाने के लिए बुनी गयी थी मगर इस बुनावट में कसावट की अच्छी खासी कमी है इसलिए जब आप इस मुलाक़ात के सहारे अपने अतीत या भविष्य में झूलना चाहते है तो आपको लगता है ये झूला तो एक कमजोर शाख पर डाला गया है चूंकि मुझे इम्तियाज़ से मुहब्बत थी इसलिए मैं इस झूले को अकेले ही खींच कर झूलने के लिए छोड़ आया इसके बदलें मुझे कुछ अच्छी लोकेशन के हवा और एकाध गाने नसीब हुए जिन्हें मैं गुनगुना तो नही सकता मगर तब मैं उनको सुनते हुए थियेटर में अपने व्हाट्स एप्प के मैसेज जरुर चेक कर सकता था.
 जब हैरी मेट सेजल  में  शाहरुख की फाइटिंग और वोकल होने के कुछ सीन अवांछित है इसके अलावा पुर्तगाल के एक सीन में मुझे वो गाना गाता हुआ भी अजीब लगा. अनुष्का इस फिल्म में एक गुजराती लड़की बनी है गुजराती एक्सेंट में उसको सुनना एक अच्छा अनुभव हुआ और फिल्म देखकर मुझे लगा गुजराती लडकियां शायद ज्यादा खुले दिमाग की होती है हालाँकि फिल्म से राय क्या बनानी.
जब हैरी मेट सेजल में सजल की एक अंगूठी खो गयी है उसको तलाशने में फिल्म अपनी यात्रा पूरी करती है मगर मूलत: फिल्म अपने अन्दर की सच्ची खोज और उससे मिलने ख़ुशी से हमें मिलवाना चाहती है हम खुद से भागते हुए खुद की असली चाहत हो भूल जाते है और जिस दिन हमारी चाहत हमारे सामने होती है हम यह तय नही कर पातें कि उसे किस तरह से सहज सकें. जब हैरी मेट सेजल  देखतें हुए यह बात आपको खुद सीखनी पड़ती है क्योंकि फिल्म खुद ही खुद के अन्दर उलझ कर रह गई है.
और अंत में, मुझे फिल्म का एक सीन और डायलोग जरुर पसंद आया जब सेजल हैरी से कहती है कि क्या तुम कल के टिकिट बुक कर सकते हो इस पर हैरी जवाब देता है यस मैंम !
सामान्य  सा डायलोग है मगर मुझे क्यों पसंद आया इसके लिए आपको फिल्म देखनी होगी. इम्तियाज़ की इतनी बढ़िया फिल्में हमने देखी है उसी उधार के बदले उनकी यह एक औसत फिल्म भी देखा जा सकती है.

© डॉ. अजित 

Thursday, July 27, 2017

डियर शैफाली

डियर शैफाली,
उम्मीदन तुम अच्छी ही होंगी इसलिए कुशल क्षेम की औपचारिकता में नही पड़ना चाहता हूँ. जमाने भर मे मैं फिलहाल थोड़ा चिट्ठीबाज़ के तौर पर बदनाम हो चुका हूँ. आज जब जमाने में हर कोई गति से प्यार कर रहा है मैं आज भी उस दौर में अटका हुआ हूँ जब ख़त, रोशनाई और इंतज़ार में एक गहरी दोस्ती हुआ करती थी. मैं पीछे देखता हूँ और मुस्कुराता हूँ. मेरे पास लिखावट की शक्ल में कुछ अच्छी यादें है. दिन ब दिन जटिल होती जिंदगी में मेरे पास ख़त और किताबों की एक छोटी सी दुनिया है इसी दुनिया के भरोसे मैं जीवन के बेहतर होने की उम्मीद को जिंदा रख पाता हूँ.
बहुत दिनों से मेरे ख्यालों में यह खत दस्तक दे रहा था मगर मेरे पास आपका कोई मुक्कमल पता नही था और ख्याल भी बेहद उलझे हुए थे इसलिए मैंने  कुछ दिन आपका पता और कुछ दिन ख्यालों के बाल संवारने में लगा दिए. आज सुबह वो ख्याल मुझे स्कूल जाती किसी लड़की के दो चोटियों जैसे मासूम खड़े मिले मैं उन्हें देख मुस्कुराया और फिर खुद को समेटकर यह खत लिखने बैठ गया.
मेरी  अब तक की बातों से यह साफ़ अनुमान लगाया जा सकता है कि मैं एक आत्ममुग्ध शख्स हूँ क्योंकि आपको चिट्ठी लिखते वक्त भी मैंने भूमिका के केंद्र में खुद को रखा है मगर यह मेरे वजूद का आधा सच है और जो बचा हुआ सच है उसमें कुछ किरदार मेरे इर्द-गिर्द जमा है जिनसे मेरे लगभग रोज़ ही बतकही हो जाती है यह किस स्वप्न में बडबडाने जैसा समझा जा सकता है.
जिन किरदारों के तसव्वुर के जले मेरे दिल ओ’ दिमाग में लगे है उनमें से एक मौजूं किरदार आप भी है. मैंने आपकी ज्यादा फ़िल्में नही देखी है मगर बड़ी या छोटी स्क्रीन पर जब भी आपको देखा है तो आपके वजूद में एक खास किस्म का सम्मोहक ऑरा मैंने महसूस किया है. यह एक बड़ा विस्मय से भरा सम्मोहन रहा है मेरे लिए  आपको देखते हुए हर बार ऐसा लगा कि जैसे कुछ सवाल जवाब की शक्ल में मेरे सामने खड़े है.
आपको आँखों में जज्बाती सरहदों में कुछ मसलें दफ्न है जिन्हें देख ऐसा लगता है कि जैसे खुद खुदा ने अपने चूल्हे से बुझी लकड़ी निकाल कर आपकी आँखों पर काज़ल की गिरहबंदी कर दी है ताकि कुछ दिन मनुष्य अपनी अपनी कामनाओं को प्रार्थना की शक्ल में रूपांतरित करने का हुनर सीख सकें. आपकी पलकों के झपकने का अंतराल मैं अपने मन के दस्तावेजों में कुछ इस तरह दर्ज करता हूँ जैसे कोई जलकर्मी नदी के बढ़ते हुए जलस्तर को घंटो के हिसाब से दर्ज करता है और फिर प्रमाणिकता से नदी के खतरे के निशान से ऊपर बहने की चेतावनी जारी करता है. मैं  आपकी आँखों को समंदर नही कहूंगा क्योंकि समंदर अथाह होता है और यह अंतिम प्राश्रय देता है. मेरे पास इतना प्रतिक्षा के धैर्य का अभाव है इसलिए मैं आपकी आँखों में देखता हूँ और अपने सफर के जरूरी सामानों की एक लिस्ट बनाने लग जाता हूँ इस तरह है मैं इन आँखों में देखते हुए अपने सफ़र की जरूरी तैयारी करता हूँ. मुझे उम्मीद है इनमें जो उदासीनता की चमक है उसके भरोसे मैं अँधेरे में अपनी गति से सुनसान जंगल पूरे उत्साह से गाना गुनाते हुए पार कर सकता हूँ.
यह बात मुझे ठीक से पता है कि अभिनय की दुनिया अपने आप में एक बड़ी आभासी दुनिया है मगर मुझे मुद्दत से आभास को यथार्थ और यथार्थ मान कर जीने की एक खराब आदत हो गई है. जिन्दगी मगर हमेशा अच्छी आदतों के भरोसे कहां जी जाती है इसलिए इस खराब आदत के सहारे मैं आजकल अपने सपनों पर इस्त्री करके उनकी तह लगाकर उन्हें एक अज्ञात बक्शे में जमा कर रहा हूँ. आपको देखने के बाद मैं जीवन का यह सच जान गया हूँ कि जो सपने हम नींद में देखते है वो दरअसल केवल हमारी अतृप्त कामनाओं की छाया होती है.चूंकि आपसे मेरी किसी किस्म की कोई कामना नही जुडी है इसलिए आपसे कभी सपने में मुलाक़ात नही हुई है. मैं इसी कारण आपकी आभासी उपस्थति को वर्तमान का एक सच मानता हूँ.
आपके पास एक विस्मय से भरी दृष्टि है जिससे खुद को बचा पाना लगभग नामुकिन है यह नज़र ठीक वैसी है जैसे किसी पहाड़ी बागान में चाय की पत्तियां चुनती महिलाओं की होती है जो अपनी चाय की पत्तियाँ चुनती है और फिर विस्मय से उनके भार का अनुमान लगाती है. आपको देखकर खुद के अनुमान कौशल को आजमाने का दिल करता है मगर फिर मैं इसलिए ठहर जाता हूँ  शायद हमेशा खुद को सिद्ध करने वाले पुरुष आपको बेहद निर्धन लगतें होंगे. आप मनुष्य को उसके नैसर्गिक रूप में देखना पसंद करती हैं इसलिए मैंने खुद को संभावनाओं और विकल्पों से मुक्त रखने का अभ्यास विकसित किया है यद्यपि मैं इसमें पूर्णत: सफल नही हूँ मगर फिर भी मुझे लगता है जिनके पास कोई योजना न हो ऐसे लोगो को आप हिकारत की नजर से नही देखती होंगी.
पिछले दिनों मैं सौन्दर्य की टीकाओं पर किसी से बात कर रहा था उनका मत था कि सौन्दर्य स्वत: प्रकट नही होता है उसे प्रकाशित करना पड़ता है मैं उन सज्जन से सहमत होना चाहता था मगर तभी मेरे ध्यान में आप आ गई आपको देखकर साफ़ तौर पर सौन्दर्यशास्त्र के इस सिद्धांत की मैं साधिकार अवहेलना कर सकता हूँ कि सौन्दर्य स्वत: प्रकट नही होता है. अलबत्ता तो सौन्दर्य का  विश्लेषण करना खुद में सौन्दर्य का एक अपमान है मगर आपको देखकर मुझे हमेशा से ऐसा लगता है कि आपके पास ऐसा सौन्दर्य है जिसे हम शास्त्रीय मान अप्राप्य नही समझ सकते है जो बुनावट में इतना महीन है मगर वो हमारे आसपास के चेहरों से इतना मिलता जुलता है कि आपको देखकर कभी ऐसा नही लगता है कि आप ऐसी स्टार है जो हमसे इतनी दूर है कि जिस पर बात करते हुए भौतिक दूरी और सामाजिक स्थिति से हमें हीनता का बोध घेरता हो. इसलिए मैं आपको लौकिक तौर बेहद खूबसूरत घोषित करता हूँ क्योंकि मुझे यह बात साफ़ तौर पर पता है कि अलौकिक सुन्दरता का वर्णन करने वाले लोग खुद से झूठ बोलते है और अपरिमेय,अप्राप्य वस्तुओं के दूर होने पर खुद को एक बुद्धिवादी सांत्वना देते है.  
अंत में आपकी हंसी पर एक बात कहना चाहूंगा आपकी हंसी कुछ कुछ वैसी है जैसे कोई मल्लाह सुबह अकेला नाव लेकर समंदर में चला गया हो और जाल को सुलझाने के चक्कर में बिना जाल फेंके फिर से किनारे लौट आया हो. आपकी हंसी मुझे  थोड़ी कुलीनताबोध से भरी मगर थोड़ी जजमेंटल किस्म की लगती थी मगर बाद में मैंने अपने इस निष्कर्ष को अपने मन का एक पूर्वाग्रह पाया दरअसल आपकी हंसी में कोई एन्द्रिक अधीरता नही है यह किसी इंतज़ार के चरम को महसूस करके सीधे हृदय से प्रस्फुटित होती है इसलिए आपकी हंसी को देखते हुए मनुष्य कम से कम अपने दुखों की भावुक प्रस्तुति भूल जाता है. इसलिए भी दुःख आपको नापसंद करते है.
आदतन चिट्ठी लम्बी हो गई है दरअसल मैं जब कुछ कहना चाहता हूँ तो फिर मैं एक नदी की तरह बहना चाहता हूँ हो सकता है मेरे किनारे मेरी बात ध्यान न सुनतें हो मगर मुझे भरोसा है  मेरी गति और यात्रा एकदिन मेरी तमाम बातें ठीक ढंग से संप्रेषित करने में सफल सिद्ध होगी. ये खत भी उसी यात्रा का एक हिस्सा भर है मुझे उम्मीद है देर सबेर यह आपके सही पते तक जरुर तामील होगा.
फिलहाल के लिए इतना ही...शेष फिर !
आपका एक दर्शक

डॉ.अजित  

Tuesday, July 25, 2017

लिपस्टिक अंडर माय बुर्का

लिपस्टिक अंडर माय बुर्का
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हिज़ाब में रोज़ी के महकतें सपनों की दास्तान
कामनाओं का अपना एक तिलिस्मी संसार होता है. आदमीयत की अंदरुनी दुनिया अमूर्तन के सहारे बड़ा विचित्र सा संसार बुनती है और जब हम एक औरत की अंदरुनी दुनिया देखने की कोशिश करतें है तो उसकी पेचीदगियां हमें विस्मय से भरती है. मगर ये विस्मय विशुद्ध रूप से एक पुरुष का विस्मय हो ऐसा भी नही है. जब एक स्त्री खुद से गहरी मुलाक़ात करने अपने मन के तहखाने में उतरती है फिर वहां मन और देह कुछ समय अक्लांत हो जीना चाहते हैं. वो हर किस्म की कन्डीशनिंग से मुक्ति चाहते है. ये चाहतें जब बाहरी दुनिया में आकार लेती है तो हम इन्हें तथाकथित वर्जनाओं से अतिक्रमण के रूप में देखतें है. ऐसा देखने का हमारा एक तयशुदा सामाजिक प्रशिक्षण है.
यह फिल्म स्त्री मुक्ति का कोई वोकल नारा नही देती है और ना ही इस फिल्म के जरिए समाधान की शक्ल में कोई निष्कर्ष तय कर सकतें है मगर यह फिल्म चार महिला किरदारों में माध्यम से उनके जीवन में बसे आंतरिक आकर्षणों और उसको पाने के लिए की गई जद्दोजहद का एक बढ़िया रूपक प्रस्तुत करती है.
जेंडर के संदर्भ में समाज का एक अपना ज्ञात सच है और इसी ज्ञात सच को हमें अंतिम रूप से मानने के लिए समाज तैयार करता है इसमें कोई दो राय नही कि लैंगिक पूर्वाग्रह और भेदभाव के चलते पुरुष ने खुद को एक सत्ता के रूप में स्थापित किया है समाज की अंदरूनी लोकतंत्र बेहद कमजोर और डरा हुआ है इसलिए सवाल करती हर स्त्री को वो एक सांस्कृतिक खतरे के तौर पर प्रोजेक्ट करता है.
रोज़ी एक औपन्यासिक नाम है जो फिल्म की सूत्रधार है प्रतीकात्मक रूप से देखा जाए तो यह मन के बीहड़ में उगा कामनाओं का गुलाब है जो मुरझाना नही चाहता है और अपने लिए हवा खाद पानी का प्रबंध करने के लिए हर स्त्री को अपने अपने ढंग से उकसाता है उसे सपने देखने की हिम्मत देता है.
लिपस्टिक अंडर माय बुर्का फिल्म में कायदे में हमें केवल एक लड़की और एक महिला बुर्के में नजर आती है मगर ये बुर्का स्त्री के अस्तित्व पर पड़ा वर्जनाओं और रूढ़ियो का सदियों पुराना पर्दा है जिसके अन्दर का अन्धेरा देखने की कभी कोई कोशिश नही होती है. यह फिल्म व्यक्तिवादी चेतना के जरिए स्त्री के आंतरिक संघर्षों को सेक्सुअलिटी के संदर्भ में रेखांकित करने की एक अच्छी कोशिश है.
यदि हमें इसे एक सामाजिक यथार्थ के रूप में देखें तो यह आधी आबादी का एक संगठित सच है मगर चूंकि फिल्म कोई आन्दोलन या नारा नही है इसलिए फिल्म का नेरेशन इस द्वंद से लडती स्त्री को कोई रास्ता नही दिखाती है. यह फिल्म मध्यमवर्गीय स्त्री की मन और देह के स्तर पर एक शुष्क मनोवैज्ञानिक रिपोर्टिंग करती है सिनेमा यदि दिशा का बोध कराए तो उसका कोलाज़ बड़ा हो जाता है. यहाँ फिल्म थोड़ी कमजोर पड़ गई है.
एक अधेड़ स्त्री जो जंत्री में रखकर कामुक साहित्य पढ़ती है, एक ब्यूटी पार्लर चलाने वाले लड़की जो सेक्स को ही प्रेम और आजादी का प्रतीक मानती है जबकि उसकी खुद की मां न्यूड पेंटिंग्स के लिए मजबूरीवश मॉडलिंग का काम करती है, एक लड़की जो कालेज गोइंग है मगर बुर्का और परवरिश के धार्मिक संस्कारों के बोझ के तले दबी है वो खुल कर जीना चाहती है. जींस,शराब,सिगरेट, बूट, परफ्यूम, नेलपेंट उसके आयुजन्य और परिवेशजन्य आकर्षण है जिसके लिए शोपिंग माल में चोरी तक करती है,एक मुस्लिम महिला जिसका पति प्यार और सेक्स में भेद नही जानता है जो मेल ईगो से भरा हुआ है और जिसे औरत का काम करना खुद के वजूद की तौहीन लगता है जो संसर्ग के नाम पर हमेशा बलात्कार करता है.
ये चार महिलाओं का किरदार इस फिल्म में स्त्री समाज का वर्ग प्रतिनिधित्व करने के लिए गढ़े गये है निसंदेह चारों ही समाज का अपने-अपने किस्म का सच भी है . इन चारों स्त्रियों के पास एक अपरिभाषित किस्म का सपना है और रोज़ उसके पीछे भागने की एक जुगत भी है मगर कामनाओं के दिशाहीन संसार में जब आप अकेले दौड़तें है तो एक दिन थककर बैठना आपका निजी सच बन जाता है. यही सच स्त्री के आंतरिक एकांत का भी सच फिल्म के जरिए हमें देखने को मिलता है.
आजादी और बराबरी के डिस्कोर्स में फिल्म देह की तरफ झुकती है तो कभी कभी उत्तर आधुनिकता यथा सेक्स, शराब,सिगरेट के जारी प्रतीकात्मक रूप बराबरी के मनोवैज्ञानिक दावें को भी प्रस्तुत करती है मगर फिल्म का अंत कोई एक स्टेटमेंट नही बन पाता है. सपने देखना जरूरी है और अपनी खुशी की चाबी खुद के अंदर होती है मौटे तौर पर फिल्म यह उद्घोषणा करके खत्म हो जाती है.
लिपस्टिक अंडर माय बुर्का के जरिए हम आधी दुनिया का आधा सच जान पाते है और यदि फिल्म देखकर हम मात्र यह धारणा बना लें कि स्त्री मुक्ति का रास्ता देह की आजदी से जाता है तो यह भी एक किस्म की जल्दबाजी होगी दरअसल आजादी और बराबरी को एक फिनोमिना के स्तर पर समझाना इतना आसान काम भी नही है यह फिल्म जीवन के उस पक्ष पर एक सार्थक बातचीत करती है हम जिसका शोर रोज़ सुनते है मगर सुनकर भी जिसे हम अनसुना कर देते है मेरे ख्याल से फिल्म की यही सबसे बड़ी सफलता है.
लिपस्टिक अंडर माय बुर्का के जरिए हम मध्यमवर्गीय चेतना के नैतिकता और यौनिकता से जुड़े ओढ़े हुए समाज के पाखंड को देख सकते हैं यह फिल्म हमें उस दुनिया में ले जाती है जहां एक स्त्री अपने एकांत से भागकर अपनी कामनाओं का पीछा कर रही है उसे थकता हुआ देखकर पुरुषवादी मन को संतोष मिलता है और फिल्म इस लिहाज़ से अपना काम बेहतरी से कर गयी है क्योंकि इस फिल्म में कोई कोलाहल नही है मगर फिर भी द्वंदों की एक मधुमक्खी वाली सतत भिनभिनाहट जरुर है जिसे छूने पर डंक का खतरा महसूस होता है मगर स्त्री उसे छूती है और अंत में अपने दर्द पर उत्सव की शक्ल में रोते-रोते हंसने लगती है.
© डॉ. अजित

Sunday, May 21, 2017

हिंदी मीडियम

हिंदी मीडियम: मेरा पाठ  
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मेरा जैसा देहात से निकला दर्शक ऐसी फिल्मों को दिल से लगा लेता है. भले ही कामकाजी चक्करों में वो शहर का बाशिंदा बन गया है मगर असल में उसका दिल श्याम प्रकाश ( दीपक डोब्रीयाल) के जैसा ही है वो किसी का हक चाहकर भी नही मार सकता है.
हिंदी बनाम अंग्रेजी की बहस दरअसल दो भाषाओं के औचित्य की बहस नही है यह बहस है कुलीनता बनाम निम्नमध्यम वर्ग की. यह बहस है इंडिया बनाम भारत की. अंग्रेजी भाषा जब एक सम्प्रेष्ण के टूल से बढ़कर हमारे लिए गर्व का विषय बन समाज का हिस्सा बनती है तब यह सीधे-सीधे देश के अन्दर एक बड़ी लकीर खींच देती है.
‘हिंदी मीडियम’ जैसी फ़िल्में दरअसल कोई समाधान भले ही प्रस्तुत न करती हो मगर ये एक बड़े वर्ग के द्वंद को बहुत अच्छे से चित्रित जरुर करती है. फिल्म का मूल विषय बड़े और महंगे स्कूल में एडमिशन को लेकर मरते महानगरीय पेरेंट्स है वो किस किस्म के दबाव से गुजरते है वह देखने लायक चीज़ है, मगर ये दबाव उन्होंने परिवेश से अर्जित किया है इसके लिए उनका स्वयं का दोष भी कम नही है. एक तरफ देश के अन्दर सांस लेता एक दूसरा देश है जो उम्मीद की रोटी रोज खाता है मगर फिर भी खाली पेट सोता है. आरटीई जैसा क़ानून गरीबों के बच्चों को बड़े स्कूलों के क्लासरूम ले जाना चाहता है मगर शिक्षा को व्यवसाय मानकर करने वाले बड़े स्कूलों के अपनी एक अलग किस्म अभेद्य दुनिया है.
कई दिन से मेरे जेहन में एक बात घूम रही थी आज यह फिल्म देख कर कहने का मौक़ा मिला है तो जरुर कहूंगा आप मेरी और अपनी पीढ़ी के लोगो को गौर से देखिए हम लोग यहाँ तक बिना किसी पेरेंटल गाइडेंस के  पहुंचे है. जो लोग गाँव देहात से निकले है उनके माँ-बाप कई बार साक्षर भी नही होते थे या फिर उनकी साक्षरता अक्षरज्ञान भर जैसी होती है. मेरे खुद के पिता को ये नही पता था कि मैंने 12 तक कौन से विषय पढ़ें है मगर फिर भी हम उच्च शिक्षित हुए और दुनिया की आँख में आँख मिलाकर बात करने की योग्यता अर्जित की है अब जो नई शिक्षानीति देश में लागू हुई है उसमें जिनके माँ-बाप गरीब और अनपढ़ है वो इस एजुकेशन सिस्टम में सरवाईव नही कर सकते है. ये देश के लिए एक बेहद खतरनाक संकेत है. हिंदी मीडियम देखकर आप मेरी इस चिंता को ठीक से समझ पाएंगे.
फिल्म में एडमिशन की मारा-मारी में फंसा एक बिजनेसमेन(इरफ़ान खान) की कहानी है जिसके पास पैसा जरुर है मगर अंग्रेजी में कमजोर है इसलिए महंगे और बड़े स्कूल में बेटी का एडमिशन नही हो पा रहा है. इरफ़ान खान की पत्नी ( सबा कमर  ) अपनी बेटी के एजुकेशन को बढ़िया स्कूल में एडमिशन कराने को लेकर ओवरकांशियस है. दरअसल ये केवल बेटी के एडमिशन का मसला नही है ये एक क्लास शिफ्ट की जद्दोजहद से गुजरते परिवार की कहानी है जो अपनी दुनिया में बहुत खुश था मगर एक एडमिशन की घटना उनकी दुनिया बदल देती है.
हिंदी मीडियम में गरीबी का गरिमापूर्ण फिल्मांकन मन को द्रवित कर देता है.फिल्म गरीबी को परिभाषित जरुर करती है शिक्षा को लेकर उनके बुनियादी हक़ को छीनने वाली ताकतों को खुलकर एक्सपोज़ नही करती है, हालांकि फिल्म कोई नारा नही होती है इसलिए मुझे क्रान्ति से अधिक एक सामाजिक सन्देश की दरकार फिल्म से रहती है. गरीबों का हक मारकर आरटीई जैसे कानून का मजाक कैसे बनाया जाता है यह फिल्म देखकर पता चलता है मगर आप इस अपराध को अभिभावकीय जद्दोजहद समझ माफ़ करते चलते है इससे पता चलता है कि हम कहीं न कही अवचेतन के स्तर पर इस फर्जीवाड़े को लेकर कन्वीन्स भी है.
श्याम प्रकाश ( दीपक डोबरियाल) फिल्म में रुलाने के लिए ही है वो कमाल के अभिनेता है और इस फिल्म में उनका रोल छोटा जरुर है मगर उनका किरदार सिद्धांतो की ऊंचाई के मामलें में इरफ़ान कहां से की गुना बड़ा है. उनका एक डायलोग ‘गरीबी की आदत धीरे-धीरे लगती है’ अपने आप में एक कम्प्लीट स्टेटमेंट है. दीपक के आने के बाद फिल्म का कैनवास निसंदेह कई गुना बढ़ जाता है.
हिंदी मीडियम अपने बच्चों के साथ देखे जानी वाली फिल्म है क्योंकि अंग्रेजी का भूत अब हमारे कंधो से उतर कर उन्ही की सवारी कर रहा है. देश के एजुकेशन सिस्टम में भाषाई पूर्वाग्रह और गरीबी की समस्य के बीच उनके बुनियादी हक की लड़ाई के नितांत की अकेले होने की कहानी को हिंदी मीडियम के माध्यम से कहने की एक ईमानदार कोशिश की गई है.
फिल्म देखकर आप यह भी जान पाएंगे कि जब गरीब अपनी क्लास शिफ्ट करता है तब वह सबसे पहले गरीब और गरीबीयत से मुंह मोड़ता है. कड़वा अतीत भूलकर हर कोई इंडिया में रहना चाहता हैं क्योंकि भारत के साथ उनकी कड़वी स्मृतियाँ जो जुड़ी है.
पाकिस्तानी अभिनेत्री सबा कमर  अच्छी लगी है उनका अभिनय भी अच्छा है मगर उनकी लम्बाई इरफ़ान पर थोड़ी भारी पड़ी है मुझे गरीबी वाले रोल में अधिक खूबसूरत लगी इसकी शायद एक निजी वजह यह भी हो सकती है कि गरीबी और मामूलीपन मेरे परिवेश का हिस्सा रहा है हालांकि मैं कभी गरीब नही था इसलिए यहाँ इस कथन को गरीब होने का ग्लैमर लूटने वाले समझा सकता है इसलिए बताना जरूरी समझा ताकि मैं किसी के हिस्से का हक ना मार सकूं.
© डॉ. अजित