Friday, November 17, 2017

शादी में जरुर आना

शादी में जरुर आना
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पहले मुझे लगा यह है बदरी की दुल्हनिया टाइप की मूवी होगी और शुरुवात में थोड़ी वैसी लगी भी मगर धीरे-धीरे शादी में जरुर आना फिल्म अपने उनवान पर चढ़ी और फिल्म का तेवर और कलेवर दोनों ही बदल गए. चूंकि मैं उत्तर प्रदेश का बाशिंदा हूँ इसलिए पीसीएस की पद प्रतिष्ठा को ठीक से समझता हूँ. फिल्म का कथानक इलाहाबाद को केंद्र में रखकर बुना गया है और यूपी में इलाहाबाद सिविल सर्विस की तैयारी करने वालों का मदीना रहा है.
शादी में जरुर आना मध्यमवर्गीय चेतना के जटिल बुनावट को सिनेमेटिक फॉर्म में दर्शको के समक्ष रखने की एक ईमानदार कोशिश करती है. सपनें,सिविल सर्विस, दहेज़, लिंग भेद, नैतिकता,प्रतिशोध और शो ऑफ़ आदि जैसे तत्वों ने फिल्म की कहानी के कहन को आसान और प्रभावी बनाया है.
सत्येन्द्र ऊर्फ सत्तू और आरती शुक्ला के प्रेम को समझने के लिए आपको अपनी स्टूडेंट लाइफ में बार-बार झांकना पड़ता है और फिल्म आपको अतीत में ले जाती है जहां किसी के लिए खुद को सिद्ध करना था या किसी के लिए खुद सिद्ध होना था. प्रेम मे विश्वास एक अनिवार्य तत्व है मगर जब सामने एक अप्रत्याशित सपना आकर खड़ा हो जाए तो फिर आपका विवेक भी साथ छोड़ देता है उसके बाद चीज़ें अपनी दिशा खुद करने लगती है फिल्म में सपना ऐसे ही अचानक सामने आता है और फिल्म की शुरुवात से चल रही एक गुदगुदी को तनाव में बदल जाता है.
प्रेम में रिजेक्शन किसे अच्छा लगता है मगर मुझे इस फिल्म में नायक का रिजेक्शन नही लगा वह दरअसल हालात का रिजेक्शन था जो अप्रत्याशित ढंग से घटित होकर चला गया. सत्तू की सादगी और आरती का चुलबुलापन फिल्म के पूर्वाद्ध में बहुत हंसाता है मगर बाद में दोनों को देखकर लगने लगता है क्या ये वही लव बर्ड है?
शादी में जरुर आना एक साफ़ सुथरी एक रेखीय फिल्म है हाँ फिल्म कुछ अति भी है जैसे डीएम बने सत्येन्द्र मिश्र का छापे के दौरान खुद तोड़-फोड़ करना मुझे नही लगता कोई आई ए एस अधिकारी खुद इस तरह से करता होगा भले ही उसकी निजी खुन्नस क्यों न रही हो फिल्म की कहानी में एक यह झोल मुझे  जरुर लगा इसके अलवा मेरा इंतकाम देखोगी..गाना भी प्रेम में अवांछित हिंसा का प्रतिनिधत्व करता है मगर रोचक बात है इस गाने पर फिल्म में खूब सीटियाँ बजी इसका मतलब है भारतीय पुरुष दर्शक अब भी दिल में गुबार लेकर जीता है जो नही मिल सका उसे एक बार सबक जरुर सिखाना है ये अमूमन एक मनोवृत्ति है हालांकि मैं इसे अनुचित मानता है.
फिल्म की कहानी कमल पांडे ने बहुत बढ़िया और गठन के साथ लिखी है फिल्म देखतें हुए आप फिल्म से बंधे रहते है और फिल्म आपको एक पल के लिए भी बोर नही करती है फिल्म में गाने भी अच्छे है.
शादी में जरुर आना आपको प्रेम की एक रेखीय दुनिया के आंतरिक उथल-पुथल और रिश्तों के संघर्षो की दुनिया से रूबरू कराती है और मनुष्य के अंदर उपेक्षा और तिरस्कार से उपजे प्रतिशोध को देखने का अवसर देती है मगर फिल्म देखकर आप अंत में तय कर पाते है कि वास्तव में कोई गलत या सही नही होता है बस वक्त और हालत आदमी को मजबूर कर देते है.
शादी में जरुर आना एक निमंत्रण है या धमकी ये आपको फिल्म देखकर ही पता चलेगा मेरे ख्याल से सर्दी के इस मौसम में ऐसी शादी में एक बार जरुर जाना चाहिए इसी बहाने आपको अपनी कहानी को रिमाइंड करने का मौक़ा मिलेगा जो भले ही ऐसी न हो मगर उसके कुछ तार इससे जरुर मिलते जुलते होंगे बशर्ते आपने किसी से सच्चा प्रेम किया हो.

© डॉ. अजित 

Monday, November 13, 2017

करीब-करीब सिंगल

करीब-करीब सिंगल
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करीब-करीब को जोड़कर मैं तकरीबन शब्द बनाता हूँ. यह मेरी कोई मौलिक खोज नही है प्रचलन के लिहाज़ भाषा वैज्ञानिक इस पर बढ़िया प्रकाश डाल सकते है, मगर तकरीबन शब्द मुझे यहाँ अनुमान की आखिरी दहलीज़ पर छोड़ आता है जहां मैं मान लेने की स्थिति में खुद को पाता हूँ. मान लेना वैसे गणित के सवाल हल करने में मदद करता है, मगर जिंदगी का भी अपना एक गणित है और उस गणित में हमें बहुत कुछ वो मान लेना होता है जो असल में होता नही है या होता है तो हमें हासिल नही होता है या हासिल होकर भी हमारा नही होता है. मैं बातों को अधिक उलझाने की कोशिश नही करूंगा ये काम असल में जिंदगी का है. मैं तकरीबन सिंगल होने को इस फिल्म के जरिए समझने की एक ईमानदार कोशिश जरुर करूंगा शायद मैं फिल्म के उतना करीब पहुँच पाऊं जहां से सिंगल और मिंगल दुनिया का महीन भेद साफ-साफ़ दिखाई पड़ता है.
करीब-करीब सिंगल देखने के पीछे जाहिरी तौर पर इरफ़ान खान का ऑरा मुझे सिनेमा हाल तक ले गया था मगर फिल्म देखते हुए मैंने महसूस किया कि यह केवल इरफ़ान खान की फिल्म नही है बल्कि इस फिल्म एक करीब का सिरा इरफ़ान के हाथ में और दुसरे करीब का सिरा पार्वती थामे हुए है और इन दोनों के मध्य सिंगल होने और न होने का एक महाभाष्य टंगा हुआ है जिसका अलग-अलग पाठ हो सकता है.
योगी और जयश्री टीके मनुष्य के एकांत के दो गहरे प्रतीक है उनका जीवन एकरस से भरा दिखता जरुर है मगर असल में उनके आंतरिक जीवन में एक अमूर्त निर्वात भी पसरा हुआ है. यह फिल्म हमें यह बताती है कि स्त्री और पुरुष दोनों स्वतंत्र अस्तित्व होते हुए भी चेतना और संवेदना के स्तर पर एक दुसरे में किस कदर गुंथे हुए भी है.
सिंगल या अकेला होना आपका चुनाव हो सकता है मगर यह त्रासद बिलकुल नही होता है, यह त्रासद जब लगने लगता है जब समाज के मानको पर आपको जज किया जाने लगता है.
दरअसल मनोवैज्ञानिक तौर पर प्रत्येक मनुष्य की दो ज्ञात दुनिया होती है एक वह जो बाहर की दुनिया को दिखती है और एक वह जिसके बारें में केवल आप जानते है. आपकी नितांत ही निजी दुनिया में निजी दुःख,छूटे सपनें और अपने, छोटे-छोटे सुख दुबके रहते है. अंदर और बाहर की दुनिया के संघर्ष मनुष्य के सुख और दुःख का मानकीकरण करते है.
योगी शायर है और रूह की बेचैनी उसे नियामत के तौर पर हासिल है जयश्री हेल्थ सेक्टर की प्रोफेशनल है, विडो होने के कारण सिंगल है. देखा जाए तो दोनो एकदम विपरीत ध्रुव है मगर विज्ञान भी मानता है कि असंगतता के मध्य एक गहरा आकर्षण भी छिपा होता है रिश्तों का यह चुम्बकीय क्षेत्र फिल्म में उन्हें कभी नजदीक तो कभी दूर करता रहता है.
करीब-करीब सिंगल की सबसे बड़ी यूएसपी यह है कि फिल्म का बड़ा हिस्सा एक यात्रा में घटित होता है इसी कारण हम सिंगल और मिंगल दोनों की यात्रा के साक्षी बन पाते है. योगी का किरदार बहुत अच्छे ढंग से स्थापित किया गया है वो फक्कड़,फकीर,मनमौजी है दिल से जैसा महसूस करता है वैसा उसका बयान भी कर देता है. जयश्री के व्यक्तित्व पर सोशल कंडीशनिंग पर प्रभाव साफ़ तौर पर दिखते है. एक उम्र अकेले बिताने के बाद उसके अपने डर,असुरक्षाएं और सीमाएं है जो प्रेम के प्रवाह में कभी आड़े आती है तो कभी उसे सावधान भी करती है.
योगी और जयश्री दोनों का एक अतीत है मगर दोनों के अतीत का ट्रीटमेंट एकदम अलग है योगी के अतीत ने उसको मुक्त किया है जबकि जयश्री का अतीत उसके इर्द-गिर्द एक स्मृतियों का घेरा हमेशा तैयार रखता है. जयश्री की यात्रा खुद और खुद के अतीत से भागने से आरम्भ होकर अपने डर और संशयों की मुक्ति पर जाकर खत्म होती है और योगी की यात्रा जैसे अचानक से खत्म हो जाती है और ये अचानक से खत्म होना उसके जीवन का सबसे गहरा बोध बन जाता है.
करीब-करीब सिंगल देखकर हम यह जान पातें है कि प्रेम के लिए सहमत होना अनिवार्य नही होता है और प्रेम की शुरूवात गल्प से आरम्भ होकर जादुई यथार्थ पर खत्म हो जाए तो फिर हम कह सकते है कि एक सफ़र मुक्कमल हुआ.
यह फिल्म गुदगुदाती है और हमें समझाती भी है फिल्म देखते हुए आप फिल्म के दर्शक से अधिक सहयात्री अधिक होते है इसलिए इसके अलग अलग पड़ाव पर आपके अनुभव भी अलग होते है मसलन ऋषिकेश में आप सोच रहे होते है अब क्या होगा और सिक्किम में आपको पता नही होता है कि अब क्या होगा.
मनुष्य के निजी दुःख,डर,स्मृतियाँ और उनसे निर्मित आदतें मनुष्य की एक अलग दुनिया का सृजन करती है जहां की नीरवता में आप तभी दखल बरदाश्त करना पसंद करते है जब कोई ऐसा मिल जाए जिसे आप बिना किसी ज्ञात कारण के भी पसंद करने लगे हो. करीब-करीब सिंगल देखते वक्त अपने अपने आसपास ऐसे किरदारों की गिनती शुरू कर देते है जिनके शक्ल और अक्ल योगी और जयश्री से मिलती हो. यही फिल्म की सबसे बड़ी ख़ूबसूरती है.
इरफ़ान की आँखों और पार्वती की नाक के लिए करीब-करीब सिंगल जरुर देखी जानी चाहिए भले ही आप सिंगल है या मिंगल.

©डॉ.अजित