Sunday, May 21, 2017

हिंदी मीडियम

हिंदी मीडियम: मेरा पाठ  
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मेरा जैसा देहात से निकला दर्शक ऐसी फिल्मों को दिल से लगा लेता है. भले ही कामकाजी चक्करों में वो शहर का बाशिंदा बन गया है मगर असल में उसका दिल श्याम प्रकाश ( दीपक डोब्रीयाल) के जैसा ही है वो किसी का हक चाहकर भी नही मार सकता है.
हिंदी बनाम अंग्रेजी की बहस दरअसल दो भाषाओं के औचित्य की बहस नही है यह बहस है कुलीनता बनाम निम्नमध्यम वर्ग की. यह बहस है इंडिया बनाम भारत की. अंग्रेजी भाषा जब एक सम्प्रेष्ण के टूल से बढ़कर हमारे लिए गर्व का विषय बन समाज का हिस्सा बनती है तब यह सीधे-सीधे देश के अन्दर एक बड़ी लकीर खींच देती है.
‘हिंदी मीडियम’ जैसी फ़िल्में दरअसल कोई समाधान भले ही प्रस्तुत न करती हो मगर ये एक बड़े वर्ग के द्वंद को बहुत अच्छे से चित्रित जरुर करती है. फिल्म का मूल विषय बड़े और महंगे स्कूल में एडमिशन को लेकर मरते महानगरीय पेरेंट्स है वो किस किस्म के दबाव से गुजरते है वह देखने लायक चीज़ है, मगर ये दबाव उन्होंने परिवेश से अर्जित किया है इसके लिए उनका स्वयं का दोष भी कम नही है. एक तरफ देश के अन्दर सांस लेता एक दूसरा देश है जो उम्मीद की रोटी रोज खाता है मगर फिर भी खाली पेट सोता है. आरटीई जैसा क़ानून गरीबों के बच्चों को बड़े स्कूलों के क्लासरूम ले जाना चाहता है मगर शिक्षा को व्यवसाय मानकर करने वाले बड़े स्कूलों के अपनी एक अलग किस्म अभेद्य दुनिया है.
कई दिन से मेरे जेहन में एक बात घूम रही थी आज यह फिल्म देख कर कहने का मौक़ा मिला है तो जरुर कहूंगा आप मेरी और अपनी पीढ़ी के लोगो को गौर से देखिए हम लोग यहाँ तक बिना किसी पेरेंटल गाइडेंस के  पहुंचे है. जो लोग गाँव देहात से निकले है उनके माँ-बाप कई बार साक्षर भी नही होते थे या फिर उनकी साक्षरता अक्षरज्ञान भर जैसी होती है. मेरे खुद के पिता को ये नही पता था कि मैंने 12 तक कौन से विषय पढ़ें है मगर फिर भी हम उच्च शिक्षित हुए और दुनिया की आँख में आँख मिलाकर बात करने की योग्यता अर्जित की है अब जो नई शिक्षानीति देश में लागू हुई है उसमें जिनके माँ-बाप गरीब और अनपढ़ है वो इस एजुकेशन सिस्टम में सरवाईव नही कर सकते है. ये देश के लिए एक बेहद खतरनाक संकेत है. हिंदी मीडियम देखकर आप मेरी इस चिंता को ठीक से समझ पाएंगे.
फिल्म में एडमिशन की मारा-मारी में फंसा एक बिजनेसमेन(इरफ़ान खान) की कहानी है जिसके पास पैसा जरुर है मगर अंग्रेजी में कमजोर है इसलिए महंगे और बड़े स्कूल में बेटी का एडमिशन नही हो पा रहा है. इरफ़ान खान की पत्नी ( सबा कमर  ) अपनी बेटी के एजुकेशन को बढ़िया स्कूल में एडमिशन कराने को लेकर ओवरकांशियस है. दरअसल ये केवल बेटी के एडमिशन का मसला नही है ये एक क्लास शिफ्ट की जद्दोजहद से गुजरते परिवार की कहानी है जो अपनी दुनिया में बहुत खुश था मगर एक एडमिशन की घटना उनकी दुनिया बदल देती है.
हिंदी मीडियम में गरीबी का गरिमापूर्ण फिल्मांकन मन को द्रवित कर देता है.फिल्म गरीबी को परिभाषित जरुर करती है शिक्षा को लेकर उनके बुनियादी हक़ को छीनने वाली ताकतों को खुलकर एक्सपोज़ नही करती है, हालांकि फिल्म कोई नारा नही होती है इसलिए मुझे क्रान्ति से अधिक एक सामाजिक सन्देश की दरकार फिल्म से रहती है. गरीबों का हक मारकर आरटीई जैसे कानून का मजाक कैसे बनाया जाता है यह फिल्म देखकर पता चलता है मगर आप इस अपराध को अभिभावकीय जद्दोजहद समझ माफ़ करते चलते है इससे पता चलता है कि हम कहीं न कही अवचेतन के स्तर पर इस फर्जीवाड़े को लेकर कन्वीन्स भी है.
श्याम प्रकाश ( दीपक डोबरियाल) फिल्म में रुलाने के लिए ही है वो कमाल के अभिनेता है और इस फिल्म में उनका रोल छोटा जरुर है मगर उनका किरदार सिद्धांतो की ऊंचाई के मामलें में इरफ़ान कहां से की गुना बड़ा है. उनका एक डायलोग ‘गरीबी की आदत धीरे-धीरे लगती है’ अपने आप में एक कम्प्लीट स्टेटमेंट है. दीपक के आने के बाद फिल्म का कैनवास निसंदेह कई गुना बढ़ जाता है.
हिंदी मीडियम अपने बच्चों के साथ देखे जानी वाली फिल्म है क्योंकि अंग्रेजी का भूत अब हमारे कंधो से उतर कर उन्ही की सवारी कर रहा है. देश के एजुकेशन सिस्टम में भाषाई पूर्वाग्रह और गरीबी की समस्य के बीच उनके बुनियादी हक की लड़ाई के नितांत की अकेले होने की कहानी को हिंदी मीडियम के माध्यम से कहने की एक ईमानदार कोशिश की गई है.
फिल्म देखकर आप यह भी जान पाएंगे कि जब गरीब अपनी क्लास शिफ्ट करता है तब वह सबसे पहले गरीब और गरीबीयत से मुंह मोड़ता है. कड़वा अतीत भूलकर हर कोई इंडिया में रहना चाहता हैं क्योंकि भारत के साथ उनकी कड़वी स्मृतियाँ जो जुड़ी है.
पाकिस्तानी अभिनेत्री सबा कमर  अच्छी लगी है उनका अभिनय भी अच्छा है मगर उनकी लम्बाई इरफ़ान पर थोड़ी भारी पड़ी है मुझे गरीबी वाले रोल में अधिक खूबसूरत लगी इसकी शायद एक निजी वजह यह भी हो सकती है कि गरीबी और मामूलीपन मेरे परिवेश का हिस्सा रहा है हालांकि मैं कभी गरीब नही था इसलिए यहाँ इस कथन को गरीब होने का ग्लैमर लूटने वाले समझा सकता है इसलिए बताना जरूरी समझा ताकि मैं किसी के हिस्से का हक ना मार सकूं.
© डॉ. अजित