Tuesday, July 25, 2017

लिपस्टिक अंडर माय बुर्का

लिपस्टिक अंडर माय बुर्का
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हिज़ाब में रोज़ी के महकतें सपनों की दास्तान
कामनाओं का अपना एक तिलिस्मी संसार होता है. आदमीयत की अंदरुनी दुनिया अमूर्तन के सहारे बड़ा विचित्र सा संसार बुनती है और जब हम एक औरत की अंदरुनी दुनिया देखने की कोशिश करतें है तो उसकी पेचीदगियां हमें विस्मय से भरती है. मगर ये विस्मय विशुद्ध रूप से एक पुरुष का विस्मय हो ऐसा भी नही है. जब एक स्त्री खुद से गहरी मुलाक़ात करने अपने मन के तहखाने में उतरती है फिर वहां मन और देह कुछ समय अक्लांत हो जीना चाहते हैं. वो हर किस्म की कन्डीशनिंग से मुक्ति चाहते है. ये चाहतें जब बाहरी दुनिया में आकार लेती है तो हम इन्हें तथाकथित वर्जनाओं से अतिक्रमण के रूप में देखतें है. ऐसा देखने का हमारा एक तयशुदा सामाजिक प्रशिक्षण है.
यह फिल्म स्त्री मुक्ति का कोई वोकल नारा नही देती है और ना ही इस फिल्म के जरिए समाधान की शक्ल में कोई निष्कर्ष तय कर सकतें है मगर यह फिल्म चार महिला किरदारों में माध्यम से उनके जीवन में बसे आंतरिक आकर्षणों और उसको पाने के लिए की गई जद्दोजहद का एक बढ़िया रूपक प्रस्तुत करती है.
जेंडर के संदर्भ में समाज का एक अपना ज्ञात सच है और इसी ज्ञात सच को हमें अंतिम रूप से मानने के लिए समाज तैयार करता है इसमें कोई दो राय नही कि लैंगिक पूर्वाग्रह और भेदभाव के चलते पुरुष ने खुद को एक सत्ता के रूप में स्थापित किया है समाज की अंदरूनी लोकतंत्र बेहद कमजोर और डरा हुआ है इसलिए सवाल करती हर स्त्री को वो एक सांस्कृतिक खतरे के तौर पर प्रोजेक्ट करता है.
रोज़ी एक औपन्यासिक नाम है जो फिल्म की सूत्रधार है प्रतीकात्मक रूप से देखा जाए तो यह मन के बीहड़ में उगा कामनाओं का गुलाब है जो मुरझाना नही चाहता है और अपने लिए हवा खाद पानी का प्रबंध करने के लिए हर स्त्री को अपने अपने ढंग से उकसाता है उसे सपने देखने की हिम्मत देता है.
लिपस्टिक अंडर माय बुर्का फिल्म में कायदे में हमें केवल एक लड़की और एक महिला बुर्के में नजर आती है मगर ये बुर्का स्त्री के अस्तित्व पर पड़ा वर्जनाओं और रूढ़ियो का सदियों पुराना पर्दा है जिसके अन्दर का अन्धेरा देखने की कभी कोई कोशिश नही होती है. यह फिल्म व्यक्तिवादी चेतना के जरिए स्त्री के आंतरिक संघर्षों को सेक्सुअलिटी के संदर्भ में रेखांकित करने की एक अच्छी कोशिश है.
यदि हमें इसे एक सामाजिक यथार्थ के रूप में देखें तो यह आधी आबादी का एक संगठित सच है मगर चूंकि फिल्म कोई आन्दोलन या नारा नही है इसलिए फिल्म का नेरेशन इस द्वंद से लडती स्त्री को कोई रास्ता नही दिखाती है. यह फिल्म मध्यमवर्गीय स्त्री की मन और देह के स्तर पर एक शुष्क मनोवैज्ञानिक रिपोर्टिंग करती है सिनेमा यदि दिशा का बोध कराए तो उसका कोलाज़ बड़ा हो जाता है. यहाँ फिल्म थोड़ी कमजोर पड़ गई है.
एक अधेड़ स्त्री जो जंत्री में रखकर कामुक साहित्य पढ़ती है, एक ब्यूटी पार्लर चलाने वाले लड़की जो सेक्स को ही प्रेम और आजादी का प्रतीक मानती है जबकि उसकी खुद की मां न्यूड पेंटिंग्स के लिए मजबूरीवश मॉडलिंग का काम करती है, एक लड़की जो कालेज गोइंग है मगर बुर्का और परवरिश के धार्मिक संस्कारों के बोझ के तले दबी है वो खुल कर जीना चाहती है. जींस,शराब,सिगरेट, बूट, परफ्यूम, नेलपेंट उसके आयुजन्य और परिवेशजन्य आकर्षण है जिसके लिए शोपिंग माल में चोरी तक करती है,एक मुस्लिम महिला जिसका पति प्यार और सेक्स में भेद नही जानता है जो मेल ईगो से भरा हुआ है और जिसे औरत का काम करना खुद के वजूद की तौहीन लगता है जो संसर्ग के नाम पर हमेशा बलात्कार करता है.
ये चार महिलाओं का किरदार इस फिल्म में स्त्री समाज का वर्ग प्रतिनिधित्व करने के लिए गढ़े गये है निसंदेह चारों ही समाज का अपने-अपने किस्म का सच भी है . इन चारों स्त्रियों के पास एक अपरिभाषित किस्म का सपना है और रोज़ उसके पीछे भागने की एक जुगत भी है मगर कामनाओं के दिशाहीन संसार में जब आप अकेले दौड़तें है तो एक दिन थककर बैठना आपका निजी सच बन जाता है. यही सच स्त्री के आंतरिक एकांत का भी सच फिल्म के जरिए हमें देखने को मिलता है.
आजादी और बराबरी के डिस्कोर्स में फिल्म देह की तरफ झुकती है तो कभी कभी उत्तर आधुनिकता यथा सेक्स, शराब,सिगरेट के जारी प्रतीकात्मक रूप बराबरी के मनोवैज्ञानिक दावें को भी प्रस्तुत करती है मगर फिल्म का अंत कोई एक स्टेटमेंट नही बन पाता है. सपने देखना जरूरी है और अपनी खुशी की चाबी खुद के अंदर होती है मौटे तौर पर फिल्म यह उद्घोषणा करके खत्म हो जाती है.
लिपस्टिक अंडर माय बुर्का के जरिए हम आधी दुनिया का आधा सच जान पाते है और यदि फिल्म देखकर हम मात्र यह धारणा बना लें कि स्त्री मुक्ति का रास्ता देह की आजदी से जाता है तो यह भी एक किस्म की जल्दबाजी होगी दरअसल आजादी और बराबरी को एक फिनोमिना के स्तर पर समझाना इतना आसान काम भी नही है यह फिल्म जीवन के उस पक्ष पर एक सार्थक बातचीत करती है हम जिसका शोर रोज़ सुनते है मगर सुनकर भी जिसे हम अनसुना कर देते है मेरे ख्याल से फिल्म की यही सबसे बड़ी सफलता है.
लिपस्टिक अंडर माय बुर्का के जरिए हम मध्यमवर्गीय चेतना के नैतिकता और यौनिकता से जुड़े ओढ़े हुए समाज के पाखंड को देख सकते हैं यह फिल्म हमें उस दुनिया में ले जाती है जहां एक स्त्री अपने एकांत से भागकर अपनी कामनाओं का पीछा कर रही है उसे थकता हुआ देखकर पुरुषवादी मन को संतोष मिलता है और फिल्म इस लिहाज़ से अपना काम बेहतरी से कर गयी है क्योंकि इस फिल्म में कोई कोलाहल नही है मगर फिर भी द्वंदों की एक मधुमक्खी वाली सतत भिनभिनाहट जरुर है जिसे छूने पर डंक का खतरा महसूस होता है मगर स्त्री उसे छूती है और अंत में अपने दर्द पर उत्सव की शक्ल में रोते-रोते हंसने लगती है.
© डॉ. अजित

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