Friday, May 8, 2015

पीकू

'पीकू' :भविष्य से बात करती एक संवेदनशील फ़िल्म
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सिनेमाई दर्शकों का कस्बाई या शहरी चरित्र भलें ही फंतासी को अधिक पसन्द करता हो उसके लिए मनोरंजन का खालिस अर्थ एक्शन,थ्रिल,कॉमेडी हो मगर फिर भी पीकू जैसी संवेदनशील फ़िल्म का बनना इस बात का संकेत है कि भले ही जोखिम हो मगर आज भी सिनेमा के जरिए अर्थपूर्ण विषयों पर संवाद करने का हौसला कुछ निर्माता निर्देशक रखते है।
'पीकू' कहानी है पिता-पुत्री के सम्वेदनशील रिश्तें की जहां बेटी की भूमिका के इतनें शेड्स है कि पिता पुत्री के रिश्तें की गहराई और संवेदना अंतर्मन को छू जाती है।
भास्कर बैनर्जी (अमिताभ बच्चन) और पीकू ( दीपिका पादुकोण) की कहानी धीरे धीरे गति पकड़ती है मगर जब एक बार आप फ़िल्म से कनेक्ट हो जाते है फिर उसके बाद आप फ़िल्म के पात्रों में खुद को तलाशनें लगतें है।
क्रोनिक कब्ज़ से पीड़ित पिता की मनोवैज्ञानिक स्थिति और उसके साथ समायोजन की समस्या का बड़ी सूक्ष्मता से फ़िल्म में चित्रण किया गया है। इस बंगाली फैमली के जरिए हम बंगाली परिवारों में स्त्री के लोकतांत्रिक अधिकारों और जीवनशैली में कुलीनता को भी देख समझ पातें हैं।
फ़िल्म का मूल कथानक भले ही उम्रदराज़ पिता के रहनें वाली बेटी के रोजमर्रा के संघर्ष के इर्द गिर्द बुना गया है मगर यह फ़िल्म सिंगल पेरेंट फैमली में पली पीकू के एकांत का एक अनकहा आख्यान भी है। पीकू इस फ़िल्म में दोस्त,बेटी,मां,प्रेमिका जैसी कई ज़िंदगियाँ जीने वाली नायिका है।
पीकू के लिए बूढ़ा और बीमार पिता (कब्ज को लेकर काफी हद तक मनोवैज्ञानिक भी) महज एक जिम्मेदारी नही है बल्कि एक जीवन के साथ घुली हुई कहानी है जिसकी खीझ भरी बातों पर जितना वो चिल्लाती है उतना ही उसके गहरे पिता प्रेम का भी पता चलता है।
पीकू में इरफ़ान खान (राणा चौधरी) का करेक्टर भी बेहद सुलझा हुआ है टैक्सी सर्विस ऑनर होने के बावजूद वो एक लम्बी यात्रा पर बतौर ड्राईवर पीकू और भास्कर बैनर्जी के साथ निकलता है उसकी बातें,सलाह और इमोशन्स सब बेहद गज़ब और महीन किस्म की है।
पीकू के पिता भास्कर बैनर्जी को मोशन की प्रॉब्लम है और मोशन इमोशन से जुड़ा होता है यह बात फ़िल्म का सेंट्रल आईडिया है मनोवैज्ञानिक लिहाज़ से फ़िल्म में कब्ज़ एक प्रतीक भर है कब्ज़ का अर्थ है एक पिता के ढलती उम्र के साथ की असुरक्षाऐं है जो अपनी तयशुदा मौत का इन्तजार करते हर एक बुजुर्ग की असुरक्षाएं है जिस दिन भास्कर उस ग्रंथि से मुक्त हो जाता है उस दिन उसका मोशन भी क्लियर हो जाता है और उसकी यात्रा भी पूर्ण हो जाती है।
फ़िल्म के अपने सूक्ष्म समाजशास्त्रीय और मनोवैज्ञानिक अर्थ है जिसके जरिए वो सिंगल पेरेंट फैमली के बुजुर्ग की मनस्थिति का बेहद भावपूर्ण चित्रण करती नजर आती है। पीकू का फ़िल्म में यह डायलॉग कि एक ख़ास उम्र के बाद पेरेंट्स खुद जिन्दा नही रह पातें है उन्हें जिन्दा रखना पड़ता है फ़िल्म का सारतत्व बयां करता है।
इरफ़ान खान,दीपिका,अमिताभ तीनों की एक्टिंग बेहतरीन है कई क्लोज़ कैमरा सीन में एक्सप्रेशन के मामलें में दीपिका बेहद क्लासिक लगी है। इरफ़ान और दीपिका की बड़ी एब्सट्रैक्ट किस्म की केमेस्ट्री फ़िल्म में दिखाई गई है।
डॉ श्रीवास्तव के रोल में रघुवीर यादव और मौसी के रोल में मौसमी चैटर्जी ने भी बढ़िया काम किया है। फ़िल्म में एक दो बढ़िया सोलो सांग भी है जो सुकून देते है।
पेरेंट्स की केयर और उनकी आदतों के साथ जीने की कला सिखनें के लिए यह एक बेहद जरूरी फ़िल्म है।यदि आपके साथ पेरेंट्स रहतें है या भविष्य में कभी रहेंगे तो आपको यह फ़िल्म एक बार जरूर देखनी चाहिए। यह फ़िल्म बेहद काम आएगी यह मेरी समझ कहती है।

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