Tuesday, April 21, 2015

डेढ़ इश्किया

शुरुवात में डेढ इश्किया देखने का तजरबा किसी मुशायरे में शिरकत करने से जैसा है यह विशाल भारद्वाज की ही कलंदरी है कि विशुद्ध व्यवसायिक फिल्म में भी वें ऊर्दू अदब की खुशबू इतने से करीने से रखते है कि दिल बाग-बाग हो जाता है मल्टी प्लेक्स में फिल्म शुरु होने के थोडी ही देर बाद शेर औ शायरी का ऐसा शमां बंधता है कि दर्शको की वाह-वाह से ऐसा लगने लगता है कि हम सिनेमा हॉल मे न होकर किसी मुशायरे में शिरकत फरमा है। फिल्म के कई सीन्स में हमारे दौर के हकीकत के शायर जैसे अनवर जलालपुरी साहब,डॉ नवाज़ देवबन्दी साहब को देखना मेरे जैसे ऊर्दू अदब के मुरीद के लिए बेहद सुकून भरा रहा है...डॉ.नवाज़ देवबन्दी साहब का शेर हो या डॉ बशीर बद्र के शेर से अनवर जलालपुरी साहब का महफिल का आगाज हो एकदम से फिल्म में ऊर्दू अदब का अहसास दिल को राहत देता है हाँ हो सकता है फिल्म का ऐसा कलेवर कुछ कम ही लोगो को पसन्द आये लेकिन मुझे बेहद पसन्द आया है जिस तरह से विशाल भारद्वाज़ ने असल के शायर को फिल्म मे शामिल किया है वह काबिल-ए-तारीफ है और अभी तक मैने और किसी फिल्म में अभी तक देखा भी नही है। फिल्म से मेरे जुडने की एक वजह यह भी हो सकती है कि फिल्म के डायलॉग पर पश्चिमी यूपी की बोली का प्रभाव है अरशद वारसी का खालिस बिजनौरी लहज़े में डायलॉग बोलना खुद ब खुद फिल्म से जोड देता है फिल्म में लखनवी अदब और ऊर्दू जबान का वकार भी है साथ दो ठग/चोर के रुप में अरशद वारसी और नसीरुद्दीन साहब का बिजनौरी स्टाईल भी...। विशाल भारद्वाज़ के चुस्त डायलॉग निसन्देह मुझे बेहद पसन्द आये मै उनके इस फन का मुरीद हो गया हूँ। फिल्म में दो हसीन अभिनेत्रियां दोनो ही मुझे बेहद पसंद है और बेगम पारा के रोल में तो माधुरी दीक्षित का हुस्न गजब का रुहानी अहसास लिए है उनकी अदा,हरकते,भाव भंगिमाएं और अभिनय सबके सब कमाल के है वो बेगम पारा के रोल को जिस उरुज तक ले गई यह उन्ही के बस की बात थी कोई और अभिनेत्री शायद ऐसा न कर पाती। हुमा कुरेशी मुझे निजि तौर पर दो वजह से पसन्द है एक तो उनकी लम्बाई और दूसरी उनकी बेइंतेहा खुबसूरती उनके चेहरे मे कस्बाई लुक है वह अपने मुहल्ले की सबसे खुबसूरत लडकी जैसी लगती है इसलिए हुमा कुरेशी का फिल्म में मुनिया का रोल फिल्म की जरुरत बनता चला जाता है। नसीर साहब के अभिनय पर मै क्या तब्सरा करुँ इतनी मेरी हैसियत नही है वो लिविंग लीजेंड है लेकिन उनके अलावा अरशद वारसी की एक्टिंग की भी तारीफ बनती है और सबसे अधिक मुझे प्रभावित किया नकली नवाब की भूमिका में विजय राज साहब नें नसीरुद्दीन साहब के साथ कई सीन्स में उनका नैचुरल एक्टिंग और कम्फर्ट उनका भी मुरीद बना देता है।
फिल्म के दो बडी कमजोरी मुझे नजर आई एक तो फिल्म का अंत जरुरत से अधिक नाटकीयता लिए है और जल्दी से हजम होने वाला नही है दूसरा हमरी अटरिया पे आजा सांवरिया गीत फिल्म के अंत के बाद शुरु होता है जब तक दर्शक उठकर चलने लगते है मै इस गीत में माधुरी के डांस और नाट्यशास्त्र के लिहाज़ मुद्राएं देखने के लिए भी प्रेरित होकर फिल्म देखने गया था जो आधे-अधूरे मन से ही पूरा हो पाया हालांकि मै अंत तक सीट पर जमा रहा शायद एक दो और माधुरी के ऐसे मुरीद थे जो बैठे थे लेकिन दर्शको के जाने के क्रम मे गीत का मजा किरकिरा हो जाता है।
फिल्म समीक्षकों और सिनेमा के जानकार बुद्धिवादी दर्शको के लिहाज से डेढ इश्किया को भले ही डेढ स्टार भी न मिलें मै बिना इसकी परवाह इस फिल्म को विशाल भारद्वाव की एक उम्दा फिल्म करार देता हूँ और हाँ पिछली इश्किया से मुझे यह डेढ इश्किया ज्यादा पसन्द आयी...कोई आग्रह नही है ना ही मै कोई फिल्म समीक्षक हूँ सिनेमा का दर्शक होने के नाते फिल्म देखने के बाद जैसा मैने महसूस किया लिख दिया इसे फिल्म देखने की अनुशंसा जैसा भी न समझा जाए कहीं फिर आप बाद मे उलाहना दें क्योंकि डेढ इश्किया को महसूस करने के लिए दिल का डेढ होना बेहद जरुरी है।

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