Sunday, March 1, 2015

दम लगा के हईशा

दम लगा के हईशा
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यह फ़िल्म मध्यमवर्गीय चेतना के द्वन्द को दिखाने का एक बढ़िया प्रयास है। बेमेल विवाह से उपजे द्वन्द और पारिवारिक परिवेश में ज्ञात से अनभिज्ञता का अभिनय फ़िल्म का केंद्रीय मुद्दा है। प्रेम और संध्या दोनों की यात्रा कल्पना से यथार्थ की यात्रा है। आदर्श पार्टनर का सपना देखना मानव व्यवहार का एक स्वाभाविक पक्ष है और अपेक्षाएं टूटने पर होने वाला द्वन्द भी गहरा होता जाता है मगर यदि आपकी दृष्टि खुद पर आ टिकती है तब आप कल्पना और यथार्थ का भेद समझने लगते है।
फ़िल्म देखते लगता है कि ये अपने मुहल्ले अपने पड़ौस की कहानी है सारे पात्र जाने पहचाने है फ़िल्म में कलात्मक सहजता है और सभी पात्रों को बहुत बढ़िया ढंग से गढ़ा भी गया है। मुझे ऐसी लो बजट की फ़िल्म पसन्द है इनको देखते हुए धारावाहिक और फ़िल्म का मिला जुला आनन्द मिलता है।
सफल सुखद दाम्पत्य के लिए फ़िल्म एक सूत्र भी देती है कि यदि मन का मेल हो जाए तो फिर देह का बेमेल होना खुद ब खुद हवा हो जाता है। फ़िल्म की नायिका संध्या का मोटा होना मुझे तो पसन्द आया और फ़िल्म के मध्यांतर के बाद नायक प्रेम को भी पसन्द आने लगता है।
फ़िल्म कुमार शानु के दौर की याद दिलाती है और कापी के पर्चे पर लिखकर कैसेट रिकॉर्डिंग के दिन याद आते जाते है जिन्हें अतीत का व्यसन है उनको फ़िल्म उसी दुनिया का हिस्सा भी बना देती है। फ़िल्म के अंत में रिश्तों का वजन उठाने के लिए जिस इच्छाशक्ति की आवश्यकता होती है उसे एक रोचक खेल के जरिए दिखाया है यदि आप एक बार यह गुर सीख लेते है तो फिर रिश्तें बोझ नही ताकत बन जाते है।
प्रेम और संध्या का बेमेल विवाह से लेकर प्रेम से मिलन तक की कहानी बहुत छोटे छोटे अहसास बुनती है एक दसवी फेल व्यक्ति की लाचारगी देखते हुए दिल पसीजता भी है।
फ़िल्म में एक गहरा व्यंग्य 'शाखा' और शाखा बाबु पर भी है फ़िल्म का यह प्रयोग बहुत प्रभावित करता हूँ अभिव्यक्ति के खतरे के इस दौर में यह दिखाना साहस का काम है।
फ़िल्म में संजय मिश्रा जैसे मंझे हुए कलाकर भी है उनके रहते फ़िल्म की एक अपनी गति बनी रहती है फ़िल्म में एक किरदार है बुआ का उसने भी बहुत प्रभावित किया है।
कुला मिलाकर एक बढ़िया फ़िल्म है संगीत भी ठीक है बस कुमार शानु की आवाज़ में 90 के दशक को याद करने वाला एक गीत फ़िल्म के अंत में दिया गया है तब तक लोग उठकर चलने लगते है और ये गाना देख नही पाया मैं ये एक गलत बात भी है।
फ़िल्म हरिद्वार ऋषिकेश की कहानी है इसलिए लोकलाइट होने वजह से मुझे और भी जुड़ाव महसूस हुआ फ़िल्म में दो लोगो का एक एक सीन है और ये दोनों लोकल हरिद्वार के ही रहने वाले है जिन्हें मैं व्यक्तिगत रूप से जानता भी हूँ उनकी बड़ी स्क्रीन पर देखना सुखद लगा। यह एक व्यक्तिगत बात भी है।
फ़िल्म में एक महीन सम्वेदना है जिसे समझने के लिए थोड़ा संवेदनशील दर्शक होना एक अनिवार्य शर्त है मसलन मेरे पीछे की सीट पर घटिया हास्यबोध के दर्शक थे जो अपनी स्तरहीन टिप्पणीयों से मेरा मजा जरूर किरकिरा करते रहें ऐसे लोगो के लिए यह फ़िल्म नही है जो पुरुषोचित्त अभिमान में जीते है और देह को एक्स रे की तरह स्कैन कर स्त्री पुरुष के सम्बन्धों को देखने के आदी है।

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