Sunday, April 19, 2015

धर्मसंकट में

धर्मसंकट में : इस दौर की एक बेहद जरूरी फ़िल्म
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धर्म के नाम पर फैले अतिवाद और गलतफ़हमियों के कारोबार के बीच ओह मॉय गॉड,पीके और अब धर्मसंकट में जैसी फ़िल्म का आना एक सुखद बयार के आने के जैसा है। इस दौर में धर्म ने जिस तरह से बहुसंख्यक लोगों की सोच और विवेक पर   कब्जा किया है उसनें बहुत से सवाल खड़े कर दिए है मसलन इंसान का होना महत्वपूर्ण है या धर्म अधिक महत्वपूर्ण है।
निर्देशक फवाद खान की फ़िल्म धर्मसंकट में हिन्दू और मुसलमान के बीच पिसते आदमी के द्वन्द को बहुत ही बारीकी से उकेरा है। फ़िल्म का कथानक बेहद रोचक किस्म का है। धर्मपाल त्रिवेदी (परेश रावल) को पचास की उम्र के पार अपनी माँ के लॉकर से मिले एडेप्सन सर्टिफिकेट से यह पता चलता है कि उसे गोद लिया गया था और वो एक मुसलमान का बेटा है। परवरिश के हिन्दू संस्कार और जन्म के मुसलमान होनें के दबाव के बीच धर्मपाल की जिंदगी पिसती है। फ़िल्म के पात्र गुजरात के है इसलिए भी हिन्दू मुसलमान के सम्बन्धों को सामाजिक दृष्टी से देखना और भी रुचिकर लगता है। एक स्टीरियोटाइप सोच के चलतें धर्मपाल भी मुसलमानों से नफरत करता है उन्हें देश में आतंकवाद की जड़ समझता है मगर जब उसे खुद के बारें में पता चलता है कि वो खुद एक मुसलमान है तो उसके द्वन्द और भी गहरें हो जातें हैं।
धर्मसंकट में दरअसल धर्म की वजह से मनुष्य के संकट में होने की कहानी है जिसमें धर्म के उस स्वरूप पर चोट की गई है जो मनुष्य को तोड़ता है जोड़ता नही है। फ़िल्म में अन्नू कपूर एक मुसलमान वकील की भूमिका में है जो धर्मपाल का पड़ौसी है जिससे धर्मपाल इसलिए चिढ़ता है क्योंकि वो मुसलमान है। बाद में यही मुसलमान मित्र उसका सच्चा दोस्त साबित होता है। फ़िल्म का सबसे कारुणिक प्रसंग है धर्मपाल का अपना बायोलॉजिकल पिता को तलाशना और उससे मिलनें के इस्लाम के तौर तरीकें सीखना। बतौर हिन्दू जीए शख्स के लिए नमाज़ और कलमा सीखना कितना चुनौतीपूर्ण हो सकता है फ़िल्म देखकर पता चलता है। हिन्दूओं की संस्कृतनिष्ठ हिंदी और मुसलमानों की उर्दू ज़बान को लेकर भी फ़िल्म में बढ़िया व्यंग्य किया गया है जब भाषा अभिव्यक्ति की बजाए धर्म विशेष से जुड़ जाती है तब उसकी ग्राह्यता में क्या क्या दिक्कतें पेश आती है फ़िल्म देखकर जान पातें है।
धर्मसंकट में नीलानंद बाबा (नसीरुद्दीन शाह) के जरिए हिन्दू धर्म के फैले धर्म के कारोबारी सच के बारें बढ़िया सवाल खड़ा किया है हिन्दुओं में नीलानन्द बाबा तो मुसलमानों में इमाम साहब दोनों के पहनावें जरूर अलग है मगर धर्म को लेकर सोच एक सी है। इमाम साहब धर्मपाल को उसके पिता से मिलनें के लिए जिस तरह से इस्लाम की दीवार खड़ी करतें है उसे देख बरबस ही आँखें नम हो जाती है। जिस तरह लगभग सभी बाबाओं का एक अतीत होता है उसी तरह नीलानन्द बाबा का भी एक अतीत है और यही अतीत फ़िल्म के सुखान्त की वजह भी बनता है। फ़िल्म में एक समानांतर प्रेम कहानी भी चलती है उसकों भी धार्मिक अंधभक्ति की बाधाओं से गुजरना पड़ता है।
धर्मसंकट के तीनों प्रमुख अभिनेता (परेश रावल,नसीरुद्दीन शाह,अन्नू कपूर) मंझे हुए कलाकर है इसलिए एक्टिंग तो तीनों की ही कमाल की है हाँ नसीरुद्दीन शाह का रोल जरूर काफी छोटा है। मुझे फिर भी तीनों में अन्नू कपूर सब पर भारी दिखे मुसलमान वकील के रोल में उन्होंने गजब की जान फूंक दी है फ़िल्म के एक सीन में जब वो अल्पसंख्यक होनें का दर्द बयां करतें है तो सच में रोंगटे खड़े हो जाते है। फ़िल्म का एक डायलॉग मुझे सबसे क्लासिक किस्म का लगा धर्मपाल को जब पता चलता है कि वो पैदाइशी मुसलमान है तब वो गहरे द्वन्द और अवसाद का शिकार हो जाता है ये बात वो वकील साहब (अन्नू कपूर)को बताता है जबकि उसे तब तक नापसन्द भी करता है तब वकील साहब उसे अपनी कार में बैठने के लिए बोलतें है इस पर धर्मपाल उनको कहता है क्या मुझे बैठने के लिए इसलिए बोल रहे हो कि मैं एक मुसलमान हूँ तब वकील साहब कहतें है नही इसलिए क्योंकि तुम परेशान हो।
धर्मसंकट में अल्पसंख्यक होने के दर्द अति धार्मिक होने की मुसीबतें और धर्म के नाम पर मनुष्य के विवेक को दास बनानें की कहानी है जिसको हास्य के पुट के साथ बहुत ही बेहतरीन ढंग से प्रस्तुत किया गया है। फ़िल्म के दो गीत भी बढ़िया हैं। मेरे हिसाब से ऐसी फ़िल्में सपरिवार देखनी चाहिए ताकि हम अपनें बच्चों को सच्ची धर्मनिरपेक्षता और मानवता का पाठ पढ़ा सकें। यह फ़िल्म किसी धर्म के खिलाफ नही है बस फ़िल्म यह समझानें की एक ईमानदार कोशिस जरूर करती है कि सबसे बड़ा धर्म मानवता का धर्म है। कुल मिलाकर एक बढ़िया देखनें लायक फ़िल्म है यह आपको धर्म के धर्मसंकट से निकालनें में जरूर मददगार है।

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