Friday, September 23, 2016

पार्च्ड

रेत शुष्क ही नही दरदरा भी होता है इसलिए चुभता भी है,उसे हवा उड़ाती है मगर वो एक जगह न ठहरने के लिए शापित भी होता है। देह और मन दो ध्रुव है जिस पर झूला डाल भरी दोपहरी की लू मे झूलने की कोशिश की जा सकती है भले इसमें देह का ताप बढ़ जाए।
समाज समूह से बनता है मगर समूह के भीतर एक वैयक्तिक नितांत हमेशा बचता चला आता है।जिस पर कभी रूढ़ियों की बेल चढ़ी होती है जो अपनी हरियाली में भी चुभने के स्तर तक जालिम होती है  तो कभी हम  लैंगिक भिन्नता की ओट लेकर खुद एक क्रूर रिवाजों की तिरपाल तान देते है जिसके अंदर वही दिखता है जो हम देखना चाहतें है।
पार्च्ड तीन महिलाओं की आंतरिक दासता की नही बल्कि देशकाल समाज की एक तरफा दुनिया की उपेक्षा से सूखी तीन नदियों की कहानी है। जिसके रेत में ठंडक नही है बल्कि एक किस्म की जलन है जिस पर नँगे पांव चलते हुए दिल और दिमाग दोनों एक साथ जलते महसूस होते है। जिसके किनारे खड़े वृक्ष शीतल छाया नही देते बल्कि बाँझ होकर भी वो हरे भरे दिखने की अति नाटकीयता और छद्म दुनिया का हिस्सा बने होते है।
पार्च्ड सम्भावना की एक यात्रा है जो स्याह सच की रोशनी में सबके हाथ में एक दर्पण थमा जाती है ताकि बंदिशों के कारोबार में हम मनुष्यता की दासता को देखकर अपनी मनोवृत्ति और कुत्सा की उम्र का सही सही अंदाजा लगा सके।
देह का भूगोल मन से जब बैर पाल लेता है तब किस्सों में खुद का वजूद मुखर होकर रूबरू होता है सखा भाव सह अस्तित्व का मूल है इसकी योगमाया स्त्री चेतना की आंतरिक अनुभूतियों के सबसे बड़े केंद्र के रूप में हमेशा सुषुप्त रहती है।
जब खुद से एक गहरी मुलाक़ात होती है तब आंतरिक जड़ता टूटती है और प्रतिशोध पैदा होता है। गाँव देहात की आत्मीयता के जंगल में स्त्री की उम्रकैद का दस्तावेज़ जब अनुवाद के लिए सिनेमेटिक फॉर्म में सामनें आता है तो हम फिल्म देखते हुएअवाक होकर अपने शब्द सामर्थ्य पर खेद प्रकट कर कुछ मोटे मोटे अनुमान विकसित करते पाए जाते है।
बिन बाप का एक बिगड़ैल बच्चा गोखरू की तरह तलवों में चुभता है और ये चुभन दिल ओ दिमाग में फिल्म के अंत तक बनी रहती है। उम्मीद कुछ कुछ हिस्सों में रेत को मिट्टी बनाने की कोशिश करती है ताकि उसके जरिए दासता की लिपि को पोतकर प्यार का नया शब्दकोश रचा जा सकें।
प्रेम,प्रणय और वेदना की युक्तियां जब रेत में सांरगी बजाती है तब आँखों में आंसू होते है और बदन पर अपवंचना के कसे हुए तारों की छायाप्रति। पार्च्ड में उंगलियों पर हल्दी का लेप लगा है जो देह की चीत्कार से बने भित्तिचित्रों को कुरेद कर पहले जख्म की शक्ल देते है फिर उनका उपचार भी आंसूओं से करते है।
वक्त की शह और स्त्री पुरुष सम्बन्धो की आंतरिक जटिलता पर एक गहरा काजल का टीका लगाकर उसको नजर लगाने की कोशिश इस फिल्म की गई है अब तक काले टीके से नजर उतारने की रवायत रही है।यह स्त्री के मनोविज्ञान का आख्यान भर नही है बल्कि उसकी देह के समाजशास्त्र की अटरिया पर सूखतें उसके मन की परतों का महीन लेप बनाती है जो मन के जख्म भरने की दवा भी है और दुआ भी।
फिल्म बहुत कुछ जलाती है और बहुत कुछ अधजला छोड़ जाती है ताकि हम उसे देख ये तय कर सकें कि सभ्यता का विकास असंगतता के साथ क्यों हुआ है और क्यों किसी के हिस्से की खुशी पर किसी और का पहरा है।
अगर पहरे और बंदिशों में खुशियों का एक तरफा कारोबार हमनें समाज की रीत बना दी है तो इसके नफे नुकसान के लिए गर्दन झुका कर अपने उत्पादक तंत्र की पुनर्समीक्षा करनी होगी क्योंकि इस ग्रह के कुछ कुछ हिस्सों में ये निजता और वैयक्तिक संदर्भ की भ्रूण हत्या करके एक ऐसी दुनिया बना रहा है जहां एक आदमी खुश है तो एक आदमी शोषित कम से कम ईश्वर ने मनुष्य को इसलिए नही बनाया था।
पार्च्ड ईश्वर की मनुष्यता से निराशा की दो घण्टे की कहानी है जो अंत में एक चौराहे पर लाकर खड़ा करती है अब ये चुनना हमें खुद होगा कि हम लेफ्ट जाए कि राईट हां ये फिल्म देखकर आप राइट जा सकते है बशर्ते आप दिशाबोध से मुक्त होकर पहले सही को सही और गलत को गलत कहने की हिम्मत विकसित कर लें,मेरे ख्याल से फिल्म का मकसद भी यही है।

© डॉ.अजित

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