Friday, September 16, 2016

पिंक

शुजीत सरकार संवेदनशील विषयों पर फिल्म बनाने वाले निर्माता/निर्देशकों में से एक है। 'पिंक' ऐसे ही जॉनर की उनकी फिल्म है। इस फिल्म को निर्देशित किया अनिरुद्ध रॉय ने।
 उदारता,सहिष्णुता और ज्ञान परम्परा में विश्व के गुरु होने का दावा करने वाले भारत देश का समाज यथार्थ में कितने पूर्वाग्रहों और स्टीरियोटाइप्ड सोच के साथ जीता है पिंक यह बताती है।जेंडर सेंसेब्लिटी की ट्रेनिंग हमारी कितनी कमजोर है साथ स्यूडो और बायस्ड एथिक्स और मोराल के साथ हम किस तरह का समाज बना पाए पिंक उसी की तरफ हमारा ध्यान ले जाती है।
पिंक केवल कोई फेमिनिज़्म का नारा नही बनती बल्कि समाज के दोहरे मापदंड और हिप्पोक्रेसी को उजागर करती है।
देश की राजधानी दिल्ली में लड़कियां कितनी सुरक्षित है यह फिल्म का केंद्रीय विषय नही है मगर दिल्ली में वर्किंग और अकेली रहती
लड़कियों को लेकर जो सोशल परसेप्शन है फिल्म उसको जरूर उधेड़ती नजर आती है।
पिंक का मूल दर्शन यह है कि 'नो' (नही) का मतलब नही ही होता है ये एक कम्पलीट लॉजिक है इसे किसी व्याख्या की जरूर नही होती है। यदि किसी महिला ने 'नो' कहा है तो इसे नो ही समझना चाहिए न कि बलात उसके नो को सहमति में बदलने की जुर्रत की जाए चाहे वो गर्ल फ्रेंड हो,सेक्स वर्कर हो या फिर आपकी बीवी ही क्यों न हो।
'पिंक' स्त्री मन की महीन पड़ताल करती है देह को लेकर समाज की दृष्टि और उसकी सहजता को उसकी उपलब्धता मान लेने कि एक स्थापित मनोवृत्ति पर सवाल खड़े करती है। इसके अलावा फिल्म के जरिए देश की राजधानी दिल्ली को एक समाजशास्त्रीय संकट से गुजरते भी देख पातें है और वो समाजशास्त्रीय संकट यह है दिल्ली के आसपास के राज्यों जैसे हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सामंती किसान और रियल एस्टेट कारोबारी जब राजनीति में दखल बनाते है और दिल्ली में दबंगई करते है उसके बाद वो एक अलग लकीर दिल्ली के दिल में खींच देते है एक दिल्ली वो है जो महानगर है जिसे कायदे से खुला सुरक्षित और प्रगतिशील होना चाहिए साथ ही वह देश की राजधानी भी है और दुसरे इस प्रोपर्टी कारोबारियों से राजनीतिज्ञ बने लोगो के बिगड़ैल बेटे है जो ठीक से पढ़े लिखे होने के बावजूद भी वही पितृ सत्तात्मक और सामंती सोच के साथ शहर में अपने कद और पद का जमकर दुरूपयोग करते है इनकी जेंडर सेंसेब्लिटी एकदम से जीरो होती है। दिल्ली के अंदर बसता ऐसा देहात नई और ऐसी प्रगतिशील दिल्ली को स्वीकार नही कर पाता है जो ह्यूमन राइट्स और जेंडर सेंसिबल हो यह अंतर्विरोध महिलाओं को लेकर होने वाले अपराधों का एक बड़ा फैक्टर भी है।
फिल्म एक पार्टी नाईट के किस्से पर आधारित है शुरू में स्लो है मगर कोर्ट की कार्यवाही के सीन फिल्म को गति प्रदान करते है।
जब आप मुश्किल वक्त में होते है जब बुद्धिवादी और परिवक्व प्रेमी भी साथ छोड़ देते है उनके लिए इमेज के लिए पलायन अनिवार्य हो जाता है इसलिए उन्हें प्रेमी नही कायर ही कहा जाता है ये फिल्म देखकर पता चलता है।
मीनल अरोड़ा फिल्म की केंद्रीय पात्र है कहानी उन्ही के इर्द गिर्द घूमती है। कहानी आपको फिल्म देखकर ही पता चलेगी। पिंक लड़कियों के संघर्ष और दोस्ती एक भावुक दस्तावेज़ बन पड़ी है।
अमिताभ बच्चन फिल्म में एक ऐसे वकील की भूमिका में है जो वकालत छोड़ चुका है जिसकी बीमार पत्नी है और जो खुद अस्थमा से लड़ रहा है मगर उसकी चेतना जागती है और वो लिंग भेद और उत्पीड़न के संघर्ष में मीनल का साथ देता है। उनका अभिनय अच्छा है मगर वो तभी अच्छे लगे जब कोर्ट में बहस करते है।
फिल्म में कोर्ट रूप में उनका मेक अप थोड़ा जवान दिखाता है और बाहर उन्हें अपेक्षाकृत ज्यादा बूढ़ा दिखाया गया है जहां उनकी सांसे उखड़ी हुई और बोलते वक्त सांस की धौकनी चलती है फिल्म में उनका पहला डायलॉग उनके अस्थमा की आवाज़ के कारण मै सुन ही नही पाया।
कुछ पात्र अनावश्यक फिल्म में रखे गए है अमिताभ की पत्नी की भूमिका भी इसी श्रेणी की है जिनके एक दो अस्पताल के सीन है बाद में उनकी तस्वीर पर फूल ही चढ़ते दिखाई दिए।
पिंक में पुलिस का रवैया भी देखने लायक है वो कैसे राजनीतिक दबाव में किसी केस को कैसे बदलती है। हालांकि मीनल की पहली शिकायत वाले सीन को दीपक सिंहल(अमिताभ बच्चन) ने बतौर वकील केस में क्यों इस्तेमाल नही किया ये बात मुझे समझ नही आई आपको आए तो जरूर बताइएगा।
इसके अलावा फिल्म के शुरुवाती कुछ सीन्स में न जाने क्यों अमिताभ बच्चन मास्क लगे स्पाई बने रहते है इसका भी कोई लॉजिक समझ नही आता।
पिंक तकनीकी रूप से एक स्लो फिल्म है जो धीरे धीरे गति पकड़ती है। वकील की भूमिका में  पीयूष मिश्रा ने भी कमाल की एक्टिंग की है।
पिंक महिलाओं से अधिक पुरुषों के देखने लायक फिल्म है बशर्ते वो इससे एक मैसेज़ ग्रहण करें और अपनी लैंगिक सम्वेदनशीलता में इजाफा करें।
देख आइए आप भी। पिंक का रंग हमारी आँखों पर पुते पूवाग्रहों के काले चश्में से मिलाता है चश्मा उतरेगा तो पिंक की खूबसूरती उसके अस्तित्व की सम्पूर्णता और सह अस्तित्व के दर्शन को जीने में साफ़ साफ़ नज़र आएगी।
© डॉ.अजित

No comments:

Post a Comment