Friday, September 23, 2016

पार्च्ड-2

कल पार्च्ड मूवी देखी। फिल्म देखकर फिल्म के सेंट्रल आईडिया पर एक लंबा क्रिएटिव नोट भी लिखा। आज फिल्म की प्रमुख पात्रों पर लिखने की कोशिश कर रहा हूँ इस उम्मीद के साथ कि आपको तस्वीर और साफ़ नज़र आएगी।
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पार्च्ड का कथानक राजस्थान/गुजरात के सीमांत गाँव पर बुना गया है। जहां रेत ही रेत है कच्चे मकान है बबूल के पेड़ है और उन सबके ऊपर पितृ सत्तात्मक समाज का आकाश है। वहां दकियानूसी और रूढ़ियों की कठिन धूप है जिसकी आंच में मनुष्यता जलती है वहां केवल पुरुषों को निर्णय लेने की आजादी है। स्त्री वहां भोग्या है और पुरुषों के लिए एक कार्मिक और दैहिक टूल भी।
गाँव की पंचायत में भले ही बूढ़े बुजुर्ग गाँव की समस्या सुनने के लिए बैठते है मगर उनके कान महिलाओं की समस्याओं के मामलें में बहरे है उनकी बोली भले ही राजस्थानी/गुजराती है मगर उसमें शोर कमोबेश खाप पंचायत जैसे तुगलकी फैसलों का ही है। उनके हिसाब से कुल और गांव की इज्जत बचाने की सारी जिम्मेदारी स्त्री की है पुरुष का काम केवल छद्म नैतिकता का डंडा चलाने के है और बड़ी चालाकी से गाँव का ये सिस्टम पुरुषों की सारी लम्पटई को सामाजिक स्वीकृति भी देता है। ये सिस्टम नियोजित ढंग से एक निःसहायता का बोध स्त्री के मन में भरता है जो खुद अपने वर्ग की मदद नही कर सकती है मानो मजबूरी उसकी नियति बना दी गई है। फिल्म के एक सीन एक माँ की मजबूर आँखें दिखती है जो जानती है उसकी बेटी के साथ ससुराल में देवर और ससुर द्वारा दैहिक शोषण होता मगर फिर भी वो मजबूर है और बलात उसे ससुराल भेजना चाहती है।
गाँव के अंदर का ये सिस्टम महज राजस्थान के अति पिछड़े गांव की कहानी नही बल्कि ये कमोबेश देश के हर गांव का स्याह सच है।
अब बात फिल्म के किरदारों की करता हूँ।
रानी:
रानी की शादी कम उम्र में हो जाती है। राजस्थान में बाल विवाह एक बड़ी सामाजिक समस्या आज भी है। फिर पति की उपेक्षा को झेलती है क्योंकि पति ने बाहर एक दूसरी महिला से रिश्तें रखे हुए है। सास कहती है एकदिन सब ठीक हो जाएगा मगर रानी की।ज़िंदगी रानी जैसी बल्कि गुलामों जैसी रही और ये सब ठीक होना कभी ठीक नही हुआ। पति एक दुर्घटना में मर जाता है फिर रानी काले बाने में विधवा का जीवन जीने की अभ्यस्त हो जाती है। उसका एक नालायक बेटा है गुलाब है बिन बाप की परवरिश और दोस्तों के कुसंग ने उसको बिगाड़ दिया है उम्र कम है मगर वो मर्द होने के अभिमान से ग्रसित है। रानी को लगता है उसका ब्याह करके वो चैन से सो सकेगी मगर ये चैन उसे आखिर तक नसीब नही होता है।
उसकी अपनी कामनाएं उसने हमेशा के लिए नेपथ्य में भेज दी है वो मेहनतकश है और थोड़ी बहुत हंसोड़ भी। गुलाब उसके जीवन का दूसरा स्थाई दुःख है जो पूरी फिल्म में उस पर तारी रहता है।
लज्जो:
रानी की दोस्त है। पति शराबी है और मारपीट करता है।लज्जो को बाँझ घोषित किया हुआ है। इसी कारण पति का शोषण चरम पर है। लज्जो के अंदर एक बाल सुलभ खिलंदड़पना भी है वो अपने सारे दुःखों को भूलकर रानी के साथ हंसती गाती है।उसकी देह पर चोट के निशान जरूर है मगर असल में उसका स्त्रीत्व जख्मी है वो आत्म सम्मान से जीना चाहती है। उसके वही छोटे छोटे सपनें है मगर पति के शोषण के समक्ष वो बंधुआ है। वो एक सवाल का केंद्र बनती है कि क्या पुरुष बाँझ नही हो सकता है? और जब उसका जवाब उसे मिलता है तो उसकी दुनिया बदल जाती है फिल्म के अंत में उसे शोषण से स्थाई मुक्ति मिलती है।
बिजली:
बिजली रानी की दोस्त है वो नाचने गाने वाली वेैश्या है। रानी की पति शंकर कभी उसका ग्राहक हुआ करता था। एकदिन वो शंकर को उसके घर छोड़ने आई तो रानी ने उसको धन्यवाद कहा और खाना खिलाया। बिजली इस आत्मीयता की कायल होकर रानी की दोस्त बन जाती है। रानी,लज्जो और बिजली तीनों पक्की दोस्त है। बिजली पेशे से जरूर वेश्या है मगर उसकी चेतना रानी और लज्जो की अपेक्षा अधिक मुखर है। वो कड़वे सच को पूरी ईमानदारी से कहने की हिम्मत रखती है उसके समाज से दोगलेपन से घिन्न है। फिल्म के एक सीन में सारी गालियों के केंद्र में महिला होने पर बिजली कुछ नई गालियां ईजाद करती है जिसमें पुरुषों को गाली का केंद्र बनाया जाता है ये स्त्री सशक्तिकरण की नही स्त्री के मन में दबे हुए आक्रोश की अभिव्यक्ति के रूप में प्रकट होता है।
बिजली के पास सपनें है फंतासी है और एक सच्चे प्रेमी की कल्पना वो लज्जो और रानी को सपनें देखना सिखाती है उन्हें उनकी अंदरूनी दुनिया से मिलवाती है। वो उन दोनों की सारथी है उन्हें अंत में उनकी खुशियों तक ले जाती है।
जानकी:
गुलाब की पत्नी है जिसका बाल विवाह हुआ है। रानी एक सख्त सास है मगर उसके मन में वात्सल्य भी है। रानी को लगता है कि जानकी उसके बेटे को सुधार देगी (यह देहात की हर माँ की एक बेतुकी उपकल्पना रहती है) मगर बाद में जब गुलाब शराब पीकर उसके साथ मारपीट करता है तब रानी को जानकी में अपना अतीत साफ नजर आने लगता है। रानी अपनी गलती सुधरती है और जानकी के जीवन को एक सही दिशा देती है यहां वो सास से एक क्रांतिकारी माँ की भूमिका में तब्दील होती है।
गुलाब:
रानी का  बिगड़ैल बेटा है अभी किशोर है मगर उसमें पुरुष होने का दम्भ बेहद गहरा है। मोबाईल में अश्लील एमएमएस की क्लिप रखता है आवारा दोस्तों के साथ घूमता है शराब पीता है और पतन की पराकाष्ठा पर जाकर वेश्यावृत्ति भी करता है। इतनी कम उम्र में उसके ये तेवर देखकर दर्शक को पूरी फिल्म में उस पर गुस्सा बना रहता है।गुलाब के पतन का चरम यहां तक है कि वो अपनी माँ की दोस्त बिजली के पास तक पैसे लेकर वेश्यावृत्ति करने चले जाता है जिस पर उसको थप्पड़ पड़ता है। वो क्रूर पुरुष और शोषक की भूमिका में है बेहद दकियानूस है और गाँव में हर किसी नए किस्म के परिवर्तन का विरोधी है वो पढ़ाई लिखाई को गैर जरूरी समझता है। रानी अंत में उसका मोह छोड़कर एक मिसाल पैदा करती है।
किशन:
गाँव का प्रगतिशील युवा है। जिसने नॉर्थ ईस्ट की लड़की से प्रेम विवाह किया है गाँव में हस्त शिल्प का एक प्रोजेक्ट चलाता है। उसके जरिए गाँव की महिलाएं आत्मनिर्भर हो रही है। वो रूढ़ियों का विरोधी है इसलिए गाँव के पुरुषों की नजरों में खलनायक है। उसकी मदद से महिलाएं गांव में अपने पैसो से टीवी ला पाती है। वो वंचितों का सच्चा मददगार है। रानी की खूब मदद करता है मगर गुलाब उसके लिए जितना बुरा कर सकता है उतना करता है।

फिल्म का मास्टरस्ट्रोक सीन:
फिल्म के एक सीन मेंलज्जो से प्रणय अनुमति लेता एक युवा सन्यासी जब लज्जो के पैर आदर से छूता है तब लज्जो की आँखों से आंसू इस तरह बहते है मानों अंदर बरसों से जमा दर्द का ग्लेशियर फूट पड़ा हो वो अपने जीवन में पहली बार एक पुरुष का यह रूप देखती है जो उसके स्त्रीत्व इस तरह से आदर देता है।पति की मार पिटाई से त्रस्त लज्जो के लिए यह अनुभव दिव्यतम श्रेणी का था। वहां अनुमति लेने की चाह संसर्ग को वासना से इतर एक कलात्मक और चैतन्य अनुभूति में बदल देती है। स्त्री पुरुष सम्बन्ध की पवित्रता और चैतन्यता की वो अद्भुत प्रस्तुति बन पड़ी है।

© डॉ.अजित


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